तृतीय पटल - विष्णुचक्र

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


इस चक्र पर विचार करने पर साधक अवश्य ही राजत्व प्राप्त कर लेता है । अतः समान अङ्क होने पर उसे ग्रहण कर लेना चाहिए , किन्तु इसमें गुण्याङ्क अवश्य वर्जित करे । अवश्य ही यह चक्र देवताओं तथा असुरों से भी गोपनीय रखना चाहिए

॥११३ - ११४॥

अब चक्राकार विष्णु चक्र के विषय में कह रही हूँ , जो अत्यन्त गुप्त है । यह सर्वसिद्धि प्रदान करने वाला चक्र शुद्ध कर लेने पर फलदायी होता है । हे नाथ ! अब महाविष्णु के मङ्रल देने वाले उस स्थान के विषय में सुनिए । यह अङ्कय चक्र लक्ष्मी जी को अत्यन्त प्रिय है । इसमें महा प्रभा वाले नवकोण होते हैं । इसलिए ऊपर उसे लिखकर उसके भी ऊपर शुभ अष्ट ग्रह का निर्माण करे ॥११४ - ११६॥

वह गृह चतुष्कोण के आकार का होना चाहिए । उसकी सन्धि में शून्य तथा ८ अङ्क लिखे । इस प्रकार उसले ऊपर लिखे तो हे धनेश्वर ! वह विष्णुचक्र बन जाता है । पूर्व में महेन्द्र का आभरण ( गृण ) निर्माण करे । जिसका प्रकाश पुञ्ज ऊपर की ओर उठ रहा हो उसमें मुनि ७ , राम ३ , ख शून्य , चन्द्र १ आदि अङ्क लिखे । यह महेन्द्रगृह सर्वसमृद्धियों को देने वाला है ॥११७ - ११८॥

दक्षिण में अग्नि का घर निर्माण करे । उसमें रस ६ , वेद ४ , ख शून्य तथा युग्म २ अङ्क लिखे । उसके नीचे राम चक्र निर्माण करे । जिसमें ७ एवं ६ अङ्क ( एवं शून्य ) तथा राम ३ अङ्क लिखे । उसके निऋति ( दिक् ‍ ) के स्वर्ग ( गृह ) में युग २ अड्क , ९ शून्य तथा वेद ४ अङ्क लिखे । उसके नीचे नीचे जलेश ( वरुण ) का अत्यन्त मनोहर गृह निर्माण करे ॥११९ - १२०॥

उसमें राम ५ , इषु ५ , शून्य एवं बाण ५ लिखे । उसी में वायु का मन्दिर लिले । जिसमें भुज २ , हस्त २ , शून्य तथा रस ६ अङ्क लिखे । यह ईश्वरात्मक चक्र कहा गया है । मध्य देश के पञ्चाङ्र भाग में नवकोण का निर्माण करे । उसके मध्य में पञ्चकोण में तथा त्रिकोण में वर्णों को इस प्रकार लिखे ॥१२१ - १२२॥

धीर साधक इन्द्र के नीचे आद्य वर्ण तथा सातवाँ वर्ण अ आ इ ई उ ऊ ऋ लिखे । उसके दक्षिण कोण में दीर्घ ऋकार से अङ्क लिखे । उसके नीचे बुद्धिमान् ‍ साधक क से ट पर्यन्त वर्ण लिखे । उसके वाम भाग में ठ से म पर्यन्त वर्ण लिखे ॥१२३ - १२४॥

उसके ऊपर य से लेकर सभी वर्ण लिखे । फिर चक्र की गणना करे । पूर्व कोण के पति इन्द्र हैं । इसके बाद दूसरे कोण के पति यम तथा अग्नि है । तृतीय मन्दिर के ईश्वर निऋति तथा वरुण हैं । हे नाथ ! चतुर्थ गृह के अधिपति वायु तथा तथा कुबेर हैं ॥१२५ - १२६॥

पाँचवें गृह के अधिपति विश्व वेत्ताओं में श्रेष्ठ ईश्वर हैं । पञ्चकोणों में प्राणियों के भीतर रहने वाले पञ्च वायु का निवास है । प्राण में सिद्धि , अपान में व्याधि एवं पीडा़ , समान में सर्वसंपत्ति तथा उदान में निर्धनता होती है ॥१२७ - १२८॥

व्यान में ईश्वर प्राप्ति होती है । इस प्रकार इसमें शुभ लक्षण कहा गया है । पूर्वगेह में महामन्त्र का जो त्याग कर देता है वही श्रेष्ठ साधक है । हे शङ्कर ! अब विष्णु मार्ग से होने वाले विशेष को सुनिए और सावधानी से उसे धारण करिए ॥१२९ - १३०॥

सप्ताक्षर मन्त्र , त्र्यक्षरा मन्त्र तथा दशाक्षर मन्त्र यदि आद्य अक्षर के साथ पूर्वगृह में स्थित हो तो निश्चित ही सिद्धि होती है । सर्वत्र मन्त्रों में यही विधि प्रयुक्त होती है । ६ अक्षर वाला , ४ अक्षर वाला , २० अक्षरों वाला महामन्त्र तथा आम्नाय का आद्यक्षर हो तो मन्त्र फल देने वाला होता है । इसी प्रकार बुद्धिमान् ‍ साधक गणना करे । मेरे गृह में ७ अक्षरों वाला मन्त्र शुभ है ॥१३१ - १३३॥

साध्य तथा साधक के आद्य अक्षर से युक्त षष्ठाक्षर ६ तथा ३० त्रिशदक्षरों की गणना करें , यदि उसमें एक भी ठीक - ठीक से प्राप्त हो जाय तो मन्त्र सिद्धि निश्चित है । इसलिए मन्त्राक्षर के आदि लाभ के लिए यहाँ गणना अवश्य करे ॥१३४ - १३५॥

नैऋत्य में वरुण के दो अक्षर वाले , नव अक्षर वाले , शून्य युक्त वेदाक्षर ( ४० ) अक्षर वाले मन्त्रों की गणना विचक्षणों को अवश्य ही करनी चाहिए । इसी में अक्षर मन्त्र ( ॐ कार संयुक्त ) तथा ५ अक्षरों वाले मन्त्रों की भी गणना करे । इसी प्रकार १५ अक्षरों वाले मन्त्रों की भी गणना करे तो शुभ फल होता है ॥१३६ - १३७॥

वायुकोण में तथा कुबेर के मन्दिर में २२ अक्षरों वाले शून्य युक्त षष्ठ ( ६० ) अक्षरों के मन्त्रों की गणना करे । तारा के पञ्चाक्षर तथा शिव के पञ्चाक्षर मन्त्र की गणना करे । ७ अक्षर वाले मन्त्र ग्रहण करने से उत्तम फल कहा गया है ॥१३८ - १३९॥

ईशान के पञ्चकोण में नवाक्षर मन्त्र से फल कहे गये हैं । हैं । सुधी साधक महाविद्या के अष्टाक्षर मन्त्र की भी गणना करे । जैसा हमने पूर्व में कहा है , गणना उसी प्रकार करनी चाहिए । इससे विरुद्ध कभी भी गणना न करे । प्राण का मित्र समान है और समान व्यान का बन्धु है ॥१४० - १४१॥

इस प्रकार गणना से स्थित मन्त्र ग्रहण करे तो कदाचित् ‍ ही वह दोष का भागी हो सकता है । एक समय में प्रिय होने पर प्रीति तथा एक गृह में प्रिय होता है ॥१४२॥

इस प्रकार गणना कर मन्त्र ग्रहण करने से मानव क्षण मात्र में विष्णु पदवी प्राप्त कर लेता है । यदि चक्र पर मन्त्र का विचार किए बिना साधक शत्रु मन्त्र का ग्रहण करे तो वह अपनी आयु का ही विनाश करता है । बहुत क्या वह निश्चित रुप से गूँगा हो जाता है । हे महादेव ! यदि सभी चक्रों पर विचार पूर्वक यत्न से अपना प्रिय तथा हितकारी महा मन्त्र ग्रहण करें तो पृथ्वी में वह शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥१४३ - १४५॥

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Last Updated : July 28, 2011

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