नवमस्कन्धपरिच्छेदः - पञ्चत्रिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


नीतः सुग्रीवमैत्रीं तदनु हनुमता दुन्दुभेः कायमुच्चैः

क्षिप्त्वाङ्गुष्ठेन भूयो लुलुविथ युगपत्पत्रिणा सप्त सालान् ।

हत्वा सुग्रीवघातोद्यतमतुलबलं बालिनं व्याजवृत्त्या

वर्षावेलामनैष्ज्ञीर्विरहतरलितस्त्वं मतङ्गाश्रमान्ते ॥१॥

सुग्रीवेणानुजोक्त्या सभयमभियता व्यूहिता वहिनीं ता -

मूक्षाणां वीक्ष्य दिक्षु द्रुतमथ दायितामार्गणायावनम्राम् ।

संदेश चाङ्गुलीयं पवनसुतकरे प्रादिशो मोदशाली

मार्गे मार्गे ममार्गे कपिभिरपि तदा त्वत्प्रिया सप्रयासैः ॥२॥

त्वद्वार्ताकर्णनोद्यद्गरुदुरुजवसम्पातिसम्पातिवाक्य -

प्रोत्तीर्णार्णोधिरन्तर्नगरि जनकंजा वीक्ष्य दत्त्वाङ्गुलीयम् ।

प्रक्षुद्योद्यानमक्षक्षपणचणरणः सोढबन्धो दशास्यं

दृष्ट्वा ल्पुष्ट्वा च लङ्कां झटिति स हनुमान् मोलिरत्नं ददौ ते ॥३॥

त्वं सुग्रीवाङ्गदादिप्रबलकपिचमूचक्रविक्रान्तभूमी -

चको्रऽभिक्रम्य पारेजलधि निशिचरेन्द्रानुजाश्रीयमाणः ।

तत्प्रोक्तां शत्रुवार्तां रहसि निशमयन् प्रार्थनापार्थ्यरोष -

प्रस्ताग्नेयास्त्रतेजस्त्रसदुदधिगिरा लब्धवान् मध्यमार्गम् ॥४॥

कीशैराशान्तरोपाहृतगिरिनिकरैः सेतुमाधाप्य यातो

यातून्यामर्द्य दंष्ट्रानखशिखरिशिलासालशस्त्रैः स्वसैन्यैः ।

व्याकुर्वन् सानुजस्त्वं समरभुवि परं विक्रमं शक्रजेत्रा

वेगान्नागास्त्रबद्धः पतगपतिगरुन्मारुतैर्मोचितोऽभूः ॥५॥

सौमित्रिस्त्वस्त्रशक्तिप्रहृतिगलदसुर्वातजानीतशैल -

घ्राणात् प्राणानुपेतो व्यकृणुत कुसृतिश्लाघिनं मेघनादम् ।

मायाक्षोभेषु वैभीषणवचनहृतस्तम्भनः कुम्भकर्णं

सम्प्राप्तं कम्पितोर्वीतलमखिलचमूभक्षिणं व्यक्षिणोस्त्वम् ॥६॥

गृह्णन् जम्भारिसम्प्रेषितरथकवचौ रावणेनाभियुध्यन्

ब्रह्मास्त्रेणास्य भिन्दन् गलततिमबलामग्निशुद्धां प्रगृह्णन् ।

देवश्रेणीवरोज्जीवितसमरमृतैरक्षतैर्ऋक्षसङ्घै -

र्लङ्काभर्त्रा च साकं निजनगरमगाः सप्रियः पुष्पकेण ॥७॥

प्रीतो दिव्याभिषेकैरयुतसमधिकान् वत्सरान् पर्यरंसी -

मैथिल्यां पापवाचा शिव ! शिव ! किल तां गर्भिणीमभ्यहासीः ।

शत्रुघ्नेनार्दयित्वा लवणनिशिचरं प्रार्दयः शूद्रपाशं

तावद्वाल्मीकिगेहे कृतवसतिरुपासूत सीता सुतौ ते ॥८॥

वाल्मीकेस्त्वसुतोद्गापितमधुरकृतेराज्ञया यज्ञवाटे

सीतां त्वय्याप्तुकामे क्षितिमविशदसौ त्वं च कालर्थितोऽभूः ।

हेतोः सौमित्रिघाती स्वयमथ सरयूमग्ननिश्शेषभृत्यैः

साकं नाकं प्रयातो निजपदमगमो देव वैकुण्ठमाद्यम् ॥९॥

सोऽयं मर्त्यावतारस्तव खलु नियतं मर्त्यशिक्षार्थमेवं

विश्लेषार्तिर्निरागस्त्यजनमपि भवेत् कामधर्मातिसक्त्या ।

नो चेत्स्वात्मानुभूतेः क्व नु तव मनसो विक्रिया चक्रपाणे

स त्वं सत्त्वैकमूर्ते पवनपुरपते व्याधुनु व्याधितापान् ॥१०॥

॥ इति श्रीरामचरितवर्णनं पञ्चत्रिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

तत्पश्र्चात् हनुमान्ने आपके साथ सुग्रीवकी मित्रता करायी । तब आपने पैरके अँगूठेके बलसे दुन्दुभिके शरीरको दूर फेंककर एक ही बाणसे सात साल -वृक्षोंको काट गिराया । पुनः आपने सुग्रीवका वध करनेके लिये उद्यत अतुल बलशाली बालीको कपट -वृत्तिसे मारकर स्वयं विरहसे विह्वल हो मतङ्ग मुनिके आश्रमके निकट वर्षाकाल व्यतीत किया ॥१॥

तदनन्तर लक्ष्मणके कहनेसे भयभीत होकर साथ जाते हुए सुग्रीवने रीछों तथा वानरोंकी सेना इकट्ठी की , जो शीघ्र ही दिशाओंमे सीताकी खोज करनेके लिये उद्यत थी । उसे देखकर प्रसन्नचित्त हुए आपने वायुपुत्र हनुमानके हाथमें अपनी अंगूठी तथा संदेश प्रदान किया । तब उस कपिदलने प्रयासपूर्वक प्रत्येक मार्गमें आपकी प्रियतमाका अन्वेषण करना आरम्भ किया ॥२॥

तत्पश्र्चात् आपका वृत्तान्त सुननेसे जिसके पंख निकल आये थे , उस अतिशय वेगपूर्वक उड़नेवाले सम्पातीके कहनेसे जिसने समुद्रको पार किया और नगरीके भीतर घुसकर जानकीका दर्शन करके उन्हं अंगूठी प्रदान की , अशोक -वाटिकाको नष्ट -भ्रष्ट किया , रणमें अक्षकुमारका कचूमर निकाला तथा ब्रह्मास्त्रका बन्धन स्वीकार किया , उस हनुमानूने रावणको देखकर और लङ्काको जलाकर -तहस -नहस करके शीध्र ही लौटकर आपको चूड़ामणि समर्पित की ॥३॥

तब आप सुग्रीव -अङ्गद आदि प्रबल वानरोंकी महती सेनासे भूमितलको आक्रान्त करते हुए वहॉंसे चलकर समुद्रके तटपर आये । वहॉं राक्षसराज रावणका छोटा भाई विभीषण आपकी शरणमें आया और एकान्तमें उसने आपको शत्रुका वृत्तान्त कह सुनाया । तब समुद्रसे प्रार्थना करनेपर अपनी प्रार्थनाके विफल होनेके कारण क्रुद्ध होकर आपने आग्नेयास्त्रका प्रयोग किया । उसके तेजसे भयभीत होकर समुद्र प्रकट हुआ । तब उसके कथनानुसार आपको समुद्रके

मध्यसे मार्ग प्राप्त हुआ ॥४॥

उस समय वानरोंद्वारा अनवरत लाये जाते हुए पर्वत -समूहोंसे सेतुका निर्माण कराकर आप समुद्र -पार हुए । वहॉं युद्धमें दाढ़ , नख , पर्वत - शिखर , शिला और सालवृक्ष ही जिनके आयुध थे , अपनी उन सेनाओंद्वारा राक्षसोंको रौंद डाला । तत्पश्र्चात् जब लक्ष्मणसहित आप समरभूमिमें इन्द्रको जीतनेवाले मेघनादके साथ जूझते हुए परम पराक्रम प्रकट कर रहे थे , उसी समय उस राक्षसने आपको वेगपूर्वक नागास्त्रसे बॉंध लिया । तब पक्षिराज गरुड़की पॉंखोंके वायुसे आप मुक्त हुए ॥५॥

उस संग्राममें जब मेघनादके शक्तिप्रहारसे सुमित्राकुमार मूर्च्छित हो गये , तब हनुमान्जीद्वारा लाये गये पर्वतकी ओषधिके सूँघनेसे उन्हें पुनः जीवन प्राप्त हुआ । तत्पश्र्चात् लक्ष्मणने कुमार्गकी प्रशंसा करनेवाले मेघनादको कालके गालमें भेज दिया । तब विभीषणके बतलायये हुए मार्गसे मायासे क्षुब्ध हुई सेनाओंके स्तम्भनको आपने दूर किया । इसी समय धरातलको कँपाता हुआ तथा सारी वानरी -सेनाको भक्षण करता हुआ कुम्भकर्ण आ डटा , तब आपने उसका संहार कर डाला ॥६॥

तत्पश्र्चात् जम्भासुरके शत्रु इन्द्रने अपना रथ और कवच आपके पास भेजे । उन्हें ग्रहण करके आप रावणके साथ युद्ध करने लगे । उस संग्राममें आपनें ब्रह्मास्त्रद्वारा उसके सिरसमूहोंको काट डाला और अग्निपरीक्षाद्वारा शुद्ध हुई सीताको ग्रहण किया । तब समरभूमिमें मरे हुए रीछ -वानरोंको देवगणोंमें श्रेष्ठ इन्द्रने (अमृत -वर्षा करके ) पुनः जीवित तथा घावरहित कर दिया । तब आप पत्नी (तथा अनुज )-सहित उन रीछ -वानरोंके झुंडको तथा लङ्काधिपति विभीषणको साथ लेकर पुष्पकविमानद्वारा अपने नगरकी ओर प्रस्थित हुए ॥७॥

अयोध्यामें आपका दिव्य राज्याभिषेक हुआ , उससे प्रसन्न होकर आप ग्यारह वर्षोंतक प्रजाका पालन करते रहे । इसे बीचमें मैथिलीके विषयमें निन्दित वाणी सुनकर शिव ! गर्भिणीअवस्थामें उनका परित्याग कर दिया । तत्पश्र्चात् शत्रुघ्नद्वारा लवण राक्षसका वध कराकर स्वयं शूद्रमुनि शम्बूकको मौतके घाट उतार दिया । तबतक सीता महर्षि वाल्मीकिके आश्रममें निवास करती रहीं । वहॉं उन्होंने आपके दोनों पुत्र लव -कुशको जन्म दिया ॥८॥

आपके पुत्र लव -कुशद्वारा जिनकी मधुर कृति रामायण -काव्यका गान किया जाता था , उन महर्षि वाल्मीकिकी आज्ञासे सीता यज्ञशालामें पधारी ; क्योंकि आप उन्हें प्राप्त करना चाहते थे । वहॉं वे पृथ्वीमें प्रवेश कर गयीं और कालने आपसे भी स्वर्गाराहणके लिये प्रार्थना की । तब निमित्तवश लक्ष्मणका परित्याग करके स्वयं आप सरयूमें डूबकर अपने सम्पूर्ण भृत्योंके साथ स्वर्गलोकमें होते हुए ब्रह्माण्डोत्पत्तिसे भी पूर्व विद्यमान रहनेवाले अपने निवासस्थान वैकुण्ठको चले गये ॥९॥

चक्रपाणे ! आपका यह मर्त्यावतार निश्र्चय ही मृत्युलोकवासियोंके शिक्षार्थ ही हुआ था । इस प्रकार कामासक्तिसे प्रियविरहजनित दुःख और धर्मासक्तिसे निरपराधका त्याग भी होता है (अतः कामादिमें अत्यन्त आसक्ति नहीं करनी चाहिये । ) अन्यथा स्वानुभूतिसम्पन्न आपके मनमें विकार कहॉं ? सत्त्वैकमूर्ते ! ऐसे आप मेरे रोगजनित कष्टको दूर कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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