अष्टमस्कन्धपरिच्छेदः - षड्विंशतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


पाण्ड्यखण्डाधिराज -

स्त्वद्भक्तत्मा चन्दनाद्रौ कदाचित् ।

मग्नधीरालुलोके

नैवागस्त्यं प्राप्तमातिथ्यकामम् ॥१॥

कुम्भोद्भूतिः सम्भृतक्रोधभारः

स्तब्धात्मा त्वं हस्तिभूयं भजेति ।

शप्त्वाथैनं प्रत्यगात्सोत्पि लेभे

हस्तीन्द्रत्वं त्वत्समृतिव्यक्तिधन्यम् ॥२॥

दुग्धाम्भोधेर्मध्यभाजि त्रिकू टे

क्रीडन् शैले यूथपोऽयं वशाभिः ।

सर्वान् जन्तूनत्यवर्तिष्ट शक्त्या

त्वद्भक्तानां कुत्र नोत्कर्षलाभः ॥३॥

स्वेन स्थेम्ना दिव्यदेशत्वशक्त्या

सोऽयं खेदानप्रजानन् कदाचित् ।

शैलप्रान्ते घर्मतान्तः सरस्यां

यूथैः सार्द्धं त्वत्प्रणुन्नोऽभिरेमे ॥४॥

हूहूस्तावद् देवलस्यापि शापाद्

ग्राहीभूतस्तज्जले वर्तमानः ।

जग्राहैनं हस्तिनं पाददेशे

शान्त्यर्थं हि श्रान्तिदोऽसि स्वकानाम् ॥५॥

त्वत्सेवाया वैभवाद् दुर्निरोधं

युध्यन्तं तं वत्सराणां सहस्त्रम् ।

प्राप्ते काले त्वत्पदैकाग्यसिद्ध्य़ै

नक्राक्रान्तं हस्तिवर्यं व्यधास्त्वम् ॥६॥

आर्तिव्यक्तप्राक्तनज्ञानभक्तिः

शुण्डोत्क्षिप्तैः पुण्डरीकैः समर्च्चन् ।

निर्विशेषात्मनिष्ठं

स्तोत्रश्रेष्ठं सोऽन्वगादीत् परात्मन् ॥७॥

श्रुत्वा स्तोत्रं निर्गुणस्थं समस्तं

ब्रह्मेशाद्यैर्नामित्यप्रयाते ।

सर्वात्मा त्वं भूरिकारुण्यवेगात्

तार्क्ष्यारूढः प्रेक्षितोऽभूः पुरस्तात् ॥८॥

हस्तीन्द्रं तं हस्तपद्मेन धृत्वा

चक्रेण त्वं नक्रवर्यं व्यदारीः ।

गन्धर्वेऽस्मिन् मुक्तशापे स हस्ती

त्वत्सारूप्यं प्राप्य देदीप्यते स्म ॥९॥

एतद्वृत्तहं त्वां च मां च प्रगे यो

गायेत्सोऽयं भूयसे श्रेयसे स्यात् ।

इत्युक्त्वैनं तेन सार्द्धं गतस्त्वं

धिष्णयं विष्णो पाहि वातालयेश ॥१०॥

॥ इति गजेन्द्रमोक्षवर्णनं षड्विंशतितमदशकं समाप्तम् ॥

पाण्ड्यदेशके अधिराज इन्द्रद्युम्न आपके भक्त थे । किसी समय वे चन्दनाद्रिपर तपस्या कर रहे थे । वहॉं अतिथि -सत्कारकी कामनासे महर्षि अगस्त्य उनके पास पधारे , परंतु आपके ध्यानमें दत्तचित्त होनेके कारण राजाने महर्षिको नहीं देखा ॥१॥

इससे कुम्भयोनि अगस्त्य अत्यन्त कुपित हो उठे और ‘तेरा हृदय जडवत् हो गया है । अतः हाथीकी योनिको प्राप्त हो जा ’——यों राजाको शाप देकर चले गये । राजा इन्द्रद्युम्न भी गजेंन्द्रभावको प्राप्त हो गये , परंतु उस समय भी उन्हें आपकी स्मृति बनी रही , इससे उनका वह गजेन्द्रत्व भी धन्य -धन्य हो गया ॥२॥

ये यूथपति होकर क्षीरसागरके मध्यमें स्थित त्रिकूट पर्वतपर हाथिनियोंके साथ विहार करने लगे । बलमें सभी जन्तुओंसे बढ़ —चढ़कर थे ; क्योंकि आपके भक्तोंको भला , किस योनिमें उत्कर्ष नहीं होता अर्थात् वे सर्वत्र उत्कृष्ट होते हैं ॥३॥

अपने असाधारण बल तथा उस दिव्य देशके प्रभावसे इन्हें कभी भी किसी प्रकारके क्लेशका अनुभव नहीं हुआ । एक बार आपकी प्रेरणासे ग्रीष्मकालिक तापसे संतप्त होकर ये पर्वतके प्रान्तभागमें स्थित सरोवरमें अपने साथ विहार करने लगे ॥४॥

उसी समय हूहू नामग गन्धर्व भी महर्षि देवलके शापसे ग्राह होकर उसी सरोवरके जलमें वर्तमान था । उसने इस गजेन्द्रके पैरको पकड़ लिया ; क्योंकि शान्ति देनेके लिये कभी आप अपने भक्तोंके लिये भी श्रान्तिदायक हो जाते हैं ॥५॥

आपकी उपासनाके प्रभावसे उसके साथ लगातार युद्ध करते एक हजार वर्ष बीत गये । तब समय आनेपर अपने चरणोंमें एकाग्रताकी प्राप्तिके लिये आपने गजेन्द्रको ग्राहसे आक्रान्त कर दिया ॥६॥

परात्मन् ! तब ग्राहजनित पीडासे जिसके पूर्वजन्मके ज्ञान और भक्तिकी अभिव्यक्ति हो गयी थी वह गजेन्द्र सूँडमें लेकर ऊपर उठाये हुऐ कमलोंद्वारा आपकी अर्चना करता हुआ जन्मान्तरमें अभ्यस्त हुए निर्गुण -ब्रह्म -विषयक उत्तम स्त्रोतका पाठ करने लगा ॥७॥

निर्गुण -ब्रह्मविषयक उस समस्त स्त्रोत्रो सुनकर ब्रह्मा और शंकर आदि देवगण ‘मैं नहीं हूँ ’ अर्थात् इसने मेरा स्तवन रहीं किया है , इसलिये वहॉं नही गये । तब सर्वव्यापी आप अतिशय करुणाके वेगसे गरुडपर आरूढ हो उसके सामने प्रकट हो गये ॥८॥

तब आपने अपने करकमलसे उस गजेन्द्रको पकड़कर चक्रद्वारा ग्राहश्रेष्ठको विदीर्ण कर दिया । इससे वह गन्धर्व शापमुक्त हो गया और वह हस्ती आपका सारूप्य प्राप्त करके उद्दीप्त हो उठा ॥९॥

‘ जो मनुष्य प्रातःकाल इस गजेन्द्रमोक्षरूप वृत्तान्तका और तुम्हाला तथा मेरा गान करेगा , उसका महान् मङ्गल होगा । ’ विष्णो ! गजेन्द्रसे ऐसा कहकर उसके साथ आप वैकुंठको चले गये । वातालयेश ! मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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