सप्तमस्कन्धपरिच्छेदः - चतुर्विंशतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


हिरण्याक्षे पोत्रिप्रवरवपुषा देव भवता

हते शोकक्रोधग्लपितधृतिरेतस्य सहजः ।

हिरण्यप्रारम्भः कशिपुरमरारातिदसि

प्रतिज्ञामातेने तव किल वधार्थं मुररिपो ॥१॥

विधातारं घोरं स खलु तपसित्वा न चिरतः

पुरःसाक्षात्कुर्वन् सुरनरमृगाद्यैनिधनम् ।

वरं लब्ध्वा दृप्तो जगदिह भवन्नायकमिदं

परिक्षुन्दन्निन्द्रादहरत दिवं त्वामगणयन् ॥२॥

निहन्तुं त्वां भूयस्तव पदमवाप्तस्य च रिपो -

र्बहिर्दृष्टेरन्तर्दधिथ हृदये सूक्ष्मवपुषा ।

नदन्नुच्चैस्तत्राप्यखिलभुवनान्ते च मृगयन्

भिया यातं मत्वा स खलु जितकाशी निववृते ॥३॥

ततोऽस्य प्रह्रादः समजनि सुतो गर्भवसतौ

मुनेर्वीणापाणेरधितगतभवद्भक्तिमहिमा ।

स वै जात्या दैत्यः शिशुरपि समेत्य त्वयि रतिं

गतस्त्वद्भक्तानां वरद परमोदाहरणताम् ॥४॥

सुरारीणां हास्यं तव चरणदास्यं निजसुते

स दुष्ट्वा दुष्टात्मा गुरुभ्ज्ञिरशिशिक्षच्चिरमुम् ।

गुरुप्रोक्तं चासाविदमिदमभद्राय दृढमि -

त्यपाकुर्वन् सर्वं तव चरणभक्त्यैव ववृधे ॥५॥

अधीतेषु श्रेष्ठं किमिति परिपृष्टेऽथ तनये

भवद्भक्तिं वर्यामभिगदति पर्याकुलधृतिः ।

गुरुभ्यो रोषित्वा सहजमतिरस्येत्यभिविदन्

वधोपायानस्मिन् व्यतनुत भवत्पादशरणे ॥६॥

स शूलैराविद्धः सुबहु मथितो दिग्गजगणै -

र्महासर्पैर्दष्टोऽप्यनशनगराहारविधुतः ।

गिरीन्द्रावक्षिप्तौऽप्यहह परमात्मन्नयि विभो

त्वयि न्यस्तात्मत्वात् किमपि न निपीडामभजत ॥७॥

ततः शङ्काविष्ठः स पुनरतिदुष्टोऽस्य जनको

गुरूक्त्या तद्गेहे किल वरुणपाशैस्तमरुणत् ।

गुरोश्र्चासंनिघ्ये स पुनरनुगान् दैत्यतनयान्

भवद्भक्तेस्तत्त्वं परममपि विज्ञानमशिषत् ॥८॥

पिता़श़ृण्वन् बालप्रकरमखिलं त्वत्सुतिपरं

रुषान्धः प्राहैनं कुलहतक कस्ते बलमिति।

बलं मे वैकुण्ठस्तव च जगतां चापि स बलं

स एव त्रैलोक्यं सकलमिति धीरोऽयमगदीत् ॥९॥

अरे क्वासौ क्वासौ सकलजगदात्मा हरिरिति

प्रभिन्ते स्म स्तम्भं चलितकरवालों दितिसुतः ।

अतः पश्र्चाद्विष्णो नहि वदितुमीशोऽस्मि सहसा

कृपात्मन् विश्र्वात्मन् पवनपुरवासिन् मृडय माम् ॥१०॥

॥ इति प्रह्रादचरितवर्णनं चतुर्विंशतितमदशकं समाप्तम् ॥

देव ! जब आपने श्रेष्ठ वाराह -मूर्ति धारण करके हिरण्याक्षको मार डाला , तब उसके सहोदर भाई हिरण्यकशिपुका धैर्य शोक और क्रोधके कारण जाता रहा । मुरारे ! फिर तो उसने असुरोंकी सभामें आपके वधके लिये प्रतिज्ञा की ॥१॥

तब उसने घोर तपस्या करके कुछ ही दिनोंमें अपने समक्ष ब्रह्माका साक्षात्कार किया । उनके देव , मनुष्य और पशु आदिसे न मारे जानेका वरदान प्राप्त करे गर्वित हो उठा । फिर तो आपकी कुछ भी परवाह न करते हुए इस जगत्को , जिसके आप ही एकमात्र स्वामी हैं , पीड़ीत करके उसने स्वर्गलोकको भी इन्द्रसे छीन लिया ॥२॥

पुनः आपका वध करनेके लिये वह आपके स्थान (क्षीरसागर )- में जा पहुँचा । तब आप ज्ञानदृष्टिरहित उस शत्रुके हृदयमें अपने सूक्ष्मशरीरसे अन्तर्लीन हो गये । आपके भयसे भागा हुआ मानकर उसने सिंहगर्जना की और चौदहों भुवनोंके अन्ततक आपकी खोज करता हुआ वह अपनेको विजयी मानकर लौट आया ॥३॥

तदनन्तर उसके प्रह्लाद नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । यह जब गर्भमें ही था तभी उसे वीणापाणि नारदमुनिसे आपकी भक्तिकी महिमा ज्ञात हो आपकी प्रेमलक्षणा भक्ति प्राप्त करके आपके भक्तोंके लिये परम उदाहरणस्वरूप हो गया ॥४॥

अपने पुत्र प्रह्लादमें आपके चरणोंकी दासता , जो असुरोंके लिये हास्यास्पद थी , देखकर दुष्टात्मा हिरण्यकशिपुने उसे चिर -कालतक शण्डामर्क आदि गुरुओंद्वारा शिक्षा दिलायी । परंतु गुरुद्वारा कही हुई यह सारी विद्या मङ्गलकारिणी नही है ——यों निश्र्चय करके प्रह्लाद सबका परित्यागकर केवल आपकी चरणभक्तिके साथ ही बढते रहे अर्थात् शरीरवृद्धिके अनुसार उनकी भक्ति भी बढ़ती गयी ॥५॥

तदनन्तर किसी समय पिताद्वारा ‘तुम्हारी पढ़ी हुई विद्याओंमें सर्वोत्तम क्या है ?’ यों पूछे जानेपर प्रह्लादने आपकी भक्तिको ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया । जिससे हिरण्यकशिपु क्रोधसे तिलमिला उठा । उसने कुपित होकर गुरुओंसे पूछा । तब गुरुमुखसे ‘यह इसकी प्राकृतिक बुद्धि है ’ यों जानकर हिरण्यकशिपु आपके चरणाश्रयी प्रह्लादपर वधोपायोंका प्रयोग करने लगा ॥६॥

वह त्रिशूलोंसे बींधा गया , दिग्गजोंद्वारा बारंबार कुचला गया , महान् विषधर सर्पोंसे डँसवाया गया , निराहार रखकर विष पिलाया गया और पर्वतकी चोटीसे ढ़केल दिया गया ; परंतु हे सर्वव्यापक परमात्मन् ! आश्र्चर्य है , आपमें मनको लगा देनेके कारण प्रह्लादको किसी प्रकारकी भी पीड़ा नहीं हुई ॥७॥

तब प्रह्लादका पिता हिरण्यकशिपु , जो अत्यन्त दुष्ट था , सशङ्क हो उठा । उसने गुरुओंके कहनेसे पुत्रको पुनः गुरु -गृहमें भेजकर वरुणपाशसे बॉंध वहीं अवरुद्ध कर दिया । वहॉं भी जब गुरु घरपर नहीं रहते थे , तब प्रह्लाद अपने अनुयायी दैत्यपुत्रोंको भगवद्भक्तिके तत्त्व तथा ब्रह्मज्ञानका उपदेश देते थे ॥८॥

जब पिता हिरण्यकशिपुने सुना कि सब -के -सब दैत्यबालक विष्णुकी ही स्तुतिमें तत्पर रहते हैं , तब क्रोधान्ध होकर उसने प्रह्लादसे पूछा ——‘कुलाङ्गार ! (मेरी आज्ञा उल्लङ्घनमें ) तेरा कोन -सा बल है ?’तब प्रह्लादने निर्भय होकर यों स्पष्ट उत्तर दिया —— ‘पिताजी ! विष्णु ही मेरे बल हैं और मेरे ही नहीं बल्कि आपके तथा सारे जगत्के बल वे ही है । यह सारी त्रिलोकी विष्णुका ही रूप है ’ ॥९॥

तदनन्तर ‘अरे ! सम्पूर्ण जगत्का आत्मस्वरूप वह विष्णु कहॉं है ? कहॉं है ?’ यों बकते हुऐ दैत्य हिरण्यकशिपुने तलवार चलाकर स्तम्भपर प्रहार किया । विष्णो ! तत्पश्र्चात् सहसा जो दृश्य उपस्थित हुआ उसका वर्णन करनेमें मैं समर्थ नहीं हूँ । कृपात्मन् ! विश्र्वात्मन् ! पवनपुरवासिन् ! मुझे सुखी कर दिजिये ॥१०॥


References : N/A
Last Updated : November 11, 2016

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP