द्वितीयस्कन्धपरिच्छेदः - षष्ठदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


एवं चतुर्दशजगन्मयतां गतस्य

पातालमीश तव पादतलं वदन्ति ।

पादोर्ध्वदेशमपि देव रसातलं ते

गुल्फद्वयं खलु महातलमद्भुतात्मन् ॥१॥

जङ्घे तलातलमथो सुतलं च जानू

किं चोरुभागयुगलं वितलातले द्वे ।

क्षोणीतलं जघनमम्बरमङ्ग नाभि -

र्वक्षश्र्च शक्रनिलयस्तव चक्रपाणे ॥२॥

ग्रीवा महस्तव मुखं च जनस्तपस्तु

फालं शिरस्तव समस्तमयस्य सत्यम् ।

एवं जगन्मयतनो जगदाश्रितैर -

प्यन्यैर्निबद्धवपुषे भगवन् नमस्ते ॥३॥

त्वद्ब्रह्मरन्ध्रपदमीश्र्वर विश्र्वकंद -

च्छन्दांसि केशव घनास्तव केशपाशाः ।

उल्लासि चिल्लियुगलं द्रुहिणस्य गेहं

पक्ष्माणि रात्रिदिवसौ सविता च नेत्रे ॥४॥

निश्शेषविश्र्वरचना च कटाक्षमोक्षः

कर्णो दिशोऽश्र्वियुगलं तव नासिके द्वे ।

लोभत्रपे च भगवन्नधरोत्तरोष्ठौ

तारागणाश्र्च दशनाश्शमनश्र्च दंष्ट्रा ॥५॥

माया विलासहसितं श्र्वासितं समीरो

जिह्णा जलं वचनमीश शकुन्तपङ्क्तिः ।

सिद्धादयस्स्वरगणा मुखरन्ध्रमग्नि -

र्देवा भुजाः स्तनयुगं तव धर्मदेवः ॥६॥

पृष्ठं त्वधर्म इह देव मनस्सुधांशु -

रव्यक्तमेव हृदयाम्बुजमम्बुजाक्ष ।

कुक्षिस्समुद्रनिवहा वसनं तु संध्ये

शेफः प्रजापतिरसौ वृषणौ च मित्रः ॥७॥

श्रोणीस्थलं मृगगणाः पदयोर्नखास्ते

हस्त्युष्ट्रसैन्धवमुखा गमनं तु कालः ।

विप्रदिवर्णभवनं वदनाब्जबाहु -

चारूरुयुग्मचरणं करुणाम्बुधे ते ॥८॥

संसारचक्रमयि चक्रधर क्रियास्ते

वीर्यं महासुरगणोऽस्थिकुलानि शैलाः ।

नाड्यस्सरित्समुदयस्तरवश्र्च रोम

जीयादिदं वपुरनिर्वचनीयमीश ॥९॥

ईदृग्जगन्मयवपुस्तव कर्मभाजां

कर्मावसानसमये स्मरणीयमाहुः ।

तस्यान्तरात्मवपुषे विमलात्मने ते

वातालयाधिप नमोऽस्तु निरुन्धि रोगान् ॥१०॥

॥ इति विराट्पुरुषस्य जगदात्मत्ववर्णनं षष्ठदशकं समाप्तम् ॥

अद्भुत स्वरूपवाले देवाधिदेव ईश्र्वर ! उपर्युक्त प्रकारसे चौदह भुवनोंकें रूपमें प्रकट हुए आपके पादतलको पाताल , पादके ऊर्ध्वभागको रसातल और दोनों टखनोंको महातल कहा गया है ॥१॥

भगवन् चक्रपाणे ! आपकी दोनों पिंडिलियॉं तालतल , दोनों घुटने सुतल , दोनों जॉंधोंका अधोभाग वितल और ऊर्ध्वभाग अतल , जघनभाग पृथ्वीतल , नाभि आकाश और वक्षःस्थल इन्द्रका निवासभूत स्वर्ग है ॥२॥

विश्र्वमूर्ते ! आप विश्र्वात्माका कण्ठदेश महार्लोक , मुख जनलोक , ललाट तपोलोक और सिर सत्यलोक है । भगवन् । इस प्रकार जगत्के आश्रित तथा अन्यान्य वक्ष्यमाण अवयवोंद्वारा सम्पादित शरीरवाले आपको नमस्कार है ॥३॥

जगत्के कारणभूत ईश्र्वर ! वेद आपका ब्रह्मरन्ध्रपद है । केशव ! मेघ आपके केशसमूह , शोभाशाली भ्रूयुगल ब्रह्माका गृह , ऊपर -नीचेकी पलकें क्रमशः रात्रि और दिन तथा दोनों नेत्र सूर्य हैं ॥४॥

भगवन् । अखिल विश्र्वकी रचना आपका दृष्टिपात है । दिशाएँ आपके दोनों कान , दोनों अश्र्विनकुमार दोनों नासिकाएँ , लोभ अधरोष्ठ , लज्जा उत्तरोष्ठ , तारागण दॉंत और यमराज दाढ़ है ॥५॥

ईश ! आपकी लीलापूर्ण हँसी माया , श्वास वायुदेवता , जिह्णा जल , वचन पक्षिसमूह , षड्ज आदि स्वरसमुदाय सिद्धगण , मुखछिद्र अग्नि , भुजाएँ देवगण तथा स्तनयुगल धर्मदेव हैं ॥६॥

कमलनयन देव ! इस रूपमें अधर्म आपकी पीठ , चन्द्रमा मन , अव्यक्त हृदय -कमल , समुद्रसमूह कुक्षि , प्रातः -सायंकी दोनों संध्याएँ वस्त्र , ये प्रजापति ब्रह्मा लिङ्ग तथा मित्रदेवता अण्ड -कोश हैं ॥७॥

करुणासागर ! आपका कटिभाग मृगसमूह है , आपके चरणोंके नख हाथी , ऊँट और घोड़े आदि हैं , आपकी गति काल हैं तथा आपके मुखकमल , भुजाएँ , सुन्दर ऊरुयुगल तथा दोनों चरण विप्रादि वर्णोंके उत्पत्तिस्थान हैं ।

अर्थात् विप्रोंका उत्पत्तिस्थान आपका मुख , क्षत्रियोंका भुजाएँ , वश्योंका ऊरुयुग्म और क्षुद्रोंका चरण है ॥८॥

चक्रधर ! यह संसारचक्र आपकी क्रियाएँ है , महान् असुरोंका समुदाय आपका वीर्य है , पर्वत आपके अस्थिसमूह हैं , नदियोंका समुदाय नाड़ियॉं हैं और वृक्ष रोएँ हैं । ईश ! आपके ऐसे अनिर्वचनीय शरीरकी जय हो ॥९॥

गुरुवायुपुरनाथ ! आपका ऐसा विराट् रूप साधनभक्तिके अधिकारी साधकोंके षोडशोपचारपूर्वक पूजनरूप कर्मकी समाप्तिके समय स्मरण (ध्यान ) करने योग्य कहा जाता है । आपक इस विराट्के अन्तर्यामीरूप तथा शुद्ध सत्त्वमय स्वरूपवाले हैं , आपको नमस्कार हैं । आप मेरे रोगोंका नाश कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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