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रुद्र-शिव

   
Script: Devanagari

रुद्र-शिव     

रुद्र-शिव n.  एक देवता, जो सृष्टिसंहार का मूर्तिमान् प्रतीक माना जाता है । प्राचीन भारती साहित्य में निर्देशित त्रिमूर्ति की कल्पना के अनुसार, ब्रह्मा को सृष्टि उत्पत्ति का, विष्णु को सृष्टिसंचालन (स्थिति) का, एवं शिव को सृष्टिसंहार का देवता माना गया है । भय भीत करनेवाले अनेक नैसर्गिक प्रकोप एवं रोगव्याधि आदि के साथ मनुष्यजाति को दैनंदिन जीवन में सामना करना पडता है । वृक्षों को उखाड देनेवाले झंझावात, मनुष्यों एवं पशुओं को विद्युत् एवं उल्कापात से नष्ट कर देनेवाले निसर्गप्रकोप, एवं समस्त पृथ्वी में संहारसत्र शुरू करनेवाले रोग एवं व्याधियाँ आदि की, मनुष्यजाति प्रागैतिहासिक काल से ही शिकार वन चुकी है । इसी नैसर्गिक एवं व्याधिजनित प्रकोपों का प्रतीकरूप मान कर रुद्रदेवता की उत्पत्ति वैदिक आर्यों के मन में हुई, जिस तरह उन्हें प्रात:काल में ‘उषस्’ देवता का, एवं उदित होनेवाले सूर्य में ‘मित्र’ देवता का साक्षात्कार हुआ था । वैदिक साहित्य में नैसर्गिक एवं व्याधिजनित उत्पात निर्माण करनेवाले देवता को रुद्र कहा गया है, एवं उसी उत्पातों का शमन करनेवाले देवता को शिव कहा गया है । इस प्रकार रुद्र एवं शिव एक ही देवता के रौद्र एवं शांत रूप है । सृष्टि का प्रचंड विस्तार एवं सुविधाएँ निर्मांण करनेवाले परमेश्वर के प्रति मनुष्यजाति को जो आदर, कृतज्ञता एवं प्रेम प्रतीत हुआ, उसीका ही मूर्तिमान् रुप भगवान् विष्णु है, एवं उसी सृष्टि का विनाश करनेवाले प्रलयंकारी देवता के प्रति जो भीति प्रतीत होती है, उसीका मूर्तिमान् रूप रुद्र है । पाश्रात्य देवताविज्ञान में सृष्टिसंचालक एवं सृष्टिसंहारक देवता प्राय: एक ही मान कर, इन द्विविध रूपों में उसकी पूजा की जाती है । किन्तु भारतीय देवताविज्ञान मे सृष्टि की इन दो आदिशक्तियों को निभिन्न माना गया है, जिसमें से सृष्टि संचालक शक्ति को विष्णु-नारायण-वायु देव-कृष्ण कहा गया है, एवं सृष्टिसंहारक शक्ति को रुद्र कहा गया है । इस तरह ऋग्वेद से ले कर गृह्मसुत्रों तक के ग्रंथों में रुद्रदेवताविषयक कल्पनाओं की उत्क्रांति जब हम देखते है, तब ऐसा प्रतीत होता है कि, ऋग्वेद आदि ग्रन्थों में रुद्र निसर्गप्रकोप का एक सामान्य देवता था । वही रुद्र उत्तरकालीन ग्रंथों में पशु, जंगल, पर्वत, नदी, स्मशान आदि सारी सृष्टि को व्यापनेवाला एक महाबलशाली देवता मानने जाने लगा, एवं यह विष्णु के समान ही सृष्टि का एक श्रेष्ठ देवता बन गया ।
रुद्र-शिव n.  ऋग्वेद में इसका स्वरूप वर्णन प्राप्त है, जहाँ इसका वर्ण भूरा (बभ्रु), एवं रूप अति तेजस्वी बताया गया है [ऋ. २.३३] । यह सूर्य के समान जाज्बल्य, एवं सुवर्ण की भाँति यह जटाघारी है । बाद की संहिताओं में इसे सहस्रनेत्र, एवं नीलवर्णीय ग्रीवा एवं केशवाला बताया गया है. [वा. सं. १६.७] ;[अ. वे. २. २७] । इसका पेट कृष्णवर्णीय एवं पीठ रक्त्तवर्णीय है [अ. वे. १५.१] । यह चर्मधारी है [वा. सं . १६.२-४, ५१] । महाभारत एवं पुराणो में प्राप्त रुद्र का स्वरूपवर्णन कल्पनारम्य प्रतीत होता है । इस वर्णन के अनुसार, इसके कुल पाँच मुख थे, जिनमें से पूर्व, उत्तर, पश्चिम एवं उर्ध्व दिशाओं की ओर देखनेवाले मुख सौम्य, एवं केवल दक्षिण दिशा की ओर देखनेवाला मुख रौद्र था [म. अनु. १४०.४६] । इन्द्र के वज्र का प्रहार इसकी ग्रीवा पर होने के कारण, इसका कंठ नीला हो गया था [म. अनु. १४१,८] । महाभारत में अन्यत्र, समुद्रमंथन से निकला हुआ हलाहल विष प्राशन करने के कारण, इसके नीलकंठ बनने का निर्देश प्राप्त है, जहां इसे ‘श्रीकंठ’ भी कहा गया है [म. शां. ३४२.१३] । पुराणों में भी इसका स्वरूपवर्णन प्राप्त है, जहाँ इसे चतुर्मुख [विष्णुधर्म. ३.४४-४८, ५५.१] ; अर्धनारीनटेश्वर [मत्स्य., २६०] ; एवं तीन नेत्रोंवाला कहा गया है ।
रुद्र-शिव n.  दैदिक ग्रंथों में इसे पर्वतों में एवं मूजव‌ नामक पर्वत में रहनेवाला बताया गया है [वा. सं. १६.२-४, ३.६१] । इसका आद्य निवासस्थान मेरुपर्वत था, जिस कारण इसे ‘मेरुधामा’ नामान्तर प्राप्त था [म. अनु. १७.९१] । विष्णु के अनुसार, हिमालय पर्वत एवं मेरू एक ही हैं [विष्णु. २.२] । कृष्ण द्वैपायन व्यास ने एवं कुवेर ने मेरुपर्वत पर ही इस की उपासना की थी । महाभारत में अन्यत्र, इसका निवासस्थान मुंजवान् अथवा मूजवत पर्वत बताया गया है, जौ कैलास के उसपार था [म. आश्व. ८.१] ;[सौ. १७.२६. वायु, ४७.१९] । कैलास एवं हिमालय पर्वत भी इसका निवासस्थान बताया गया है [म. भी. ७.३१] ;[ब्रह्म. २९.२२] । इसका अत्यंत प्रिय निवासस्थान काशी में स्थित स्मशान था [म. अनु. १४१. १७-१९, नीलकंठ ठीका] , इसी कारण शिव के भक्तों में काशी अत्यंत पवित्र एवं मुमुक्षुओं का वसतिस्थान माना गया है (मैत्रेय देखिये) संवर्त को शवरूप में शिवदर्शन का लाभ काशीक्षेत्र में ही हुआ था ।
रुद्र-शिव n.  हिमवत् पर्वत के मुंजवत् शिखर पर शिव का तपस्यास्थान है । वहां वृक्षों के नीचे, पर्वतों के शिखरों पर, एवं गुफाओं में यह अद्दश्यरूप से उमा के साथ तपस्या करता है । इसकी उपासना करनेवाले, देव, गंधर्व, अप्सरा, देवर्पि, यातुधान, राक्षस एवं कुबेरादि अनुचर विकृत रूप में वहीं रहते हैं, जो रुद्रगण नाम से प्रसिद्ध हैं । शिव एवं इसके उपासक अद्दश्य रूप में रहते हैं, जिस कारण वे चर्मचक्षु से दिखाई नहीं देते [म. आश्व. ८.१-१२]
रुद्र-शिव n.  दक्षप्रजापति ने शिव को नंदिकेश्वर नामक वृषभ प्रदान किया, जिसे इसने अपना ध्वज एवं वाहन बनाया । इसी कारण शिव को ‘वृषभध्वज’ नाम प्राप्त हुआ [म. अनु. ७७.२७-२८] ; शैलाद देखिये ।
रुद्र-शिव n.  इसका प्रमुख अस्त्र विद्युत्-शर (विद्यत्) है, जो इसके द्वारा आकाश से फेंके जाने पर, पृथ्वी को विदीर्ण करता है [ऋ. ७.४६] । इसके धनुषबाण एवं वज्र आदि शस्त्रों का भी निर्देश प्राप्त है [ऋ. २.३३.३, १०, ५.४२.११, १०.१२६.६] । ऋग्वेद में प्राप्त रुद्र के इस स्वरूप एवं अस्त्रवर्णन में आकाश से पृथ्वी पर आनेवाली प्रलयंकर विद्युत अभिप्रेत होती है ।
रुद्र-शिव n.  ऋग्वेद में इसे भयंकर एवं हिंसक पशु की भाँति विनाशक कहा गया है [ऋ. २.३३] । अपने प्रभावी शस्त्रों से यह गायों एवं मनुष्यों का वध करता है [ऋ. १.११४.१०] । यह अत्यंत क्रोधी है, एवं क्रुद्ध होने पर समस्त मानवजाति को विनष्ट कर देता है । इसी कारण, इसकी प्रार्थना की गयी है कि, यह क्रोध में आ कर अपने स्तोताओं एवं उनके पितरों, संतानो. संबंधियों, एवं अश्वों का वध न करे [ऋ. १.११४] । अपने पुत्र एवं परिवार के लोगों को रोगविमुक्त करने के लिए भी इसकी प्रार्थना की गय़ी है [ऋ. ७. ४६.२] । ऋग्वेद में अन्यत्र इसे ‘जलाष’ (व्याधियों का उपशमन करनेवाला) एवं ‘जलाषभेषज’ (उपशामक औषधियों से युक्त) कहा गया है [क्र. १.४.३-४] । यह चिकित्सकों में भी श्रेष्ठ चिकित्सक है [ऋ. २.३३४] , एवं इसके पास हजारो औषधियाँ है [ऋ. ७.४६.३] । यह दानवों की भाँति केवल क्रूरकर्मा ही नही, बल्कि प्रसन्न होने पर मानवजाति का कल्याण करनेवाला, एवं पशुओं का रक्षण करनेवाला होता है । इसी कारण, ऋग्वेद में इसे शिव [ऋ. १०.९२.९] , एवं पशुप [ऋ. १.११४.९] कहा गया है ।
रुद्र-शिव n.  यजुर्वेद के शतरुद्रीय नामक अध्याय में रुद्र का स्वभावचित्रण अधिक स्पष्ट रूप से प्राप्त है [तै. सं. ४.५.१] ;[वा. सं. १६] । वहाँ इसका ‘रुद्रा स्वरूप; (रुद्रतनु:), एवं ‘शिव स्वरूप’ (शिवतनु;) का विभेद स्पष्ट रूप से बताते हुए कहा गया है--- या ते रुद्र शिवा तनू शिवा विश्वस्य भेषजी । शिवा रुद्रस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे ॥ [तै. सं. रुद्राध्याय २] । (रुद्र के घोरा एवं शिव नामक दो रूप हैं, जिनमें से पहला रूप दुःखनिवृत्ति एवं मृत्युपरिहार करनेवाला. एवं धन, पुत्र, स्वर्ग आदि प्रदान करनेवाला है; एवं दूसरा रुप आत्मज्ञान एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है) । ययुर्वेद संहिता में मेघ से समीकृत कर के रुद्र का वर्णन किया गया है । इसे गिरीश एवं गिरित्र (पर्वतों में रहनेवाला) कहा गया है, एवं इसे जंगलों का, एवं वहाँ रहनेवाले पशुओं. चोर, डाकू एवं अन्त्यजों का अभिनियन्ता कहा गया है । यजुर्वेद में अग्नि को रुद्र कहा गया है, एवं उसे मखघ्न विशेषण भी प्रयुक्त किया गया है [तै. सं.अ ३.२.४] ;[तै. ब्रा. ३.२.८.३] । रुद्र के द्वारा दक्षयज्ञ के विध्वंस की जो कथा पुराणों में प्राप्त है. उसीका संकेत यहाँ किया होगा । यजुर्वेद में इसे कपर्दिन् (जटा धारण करनेवाला), शर्व (धनुषबाण धारण करनेवाला), भव (चर एवं अचर सृष्टि को व्यापनेवाला), शंभु (सृष्टिकल्याण करनेवाला), शिव (पवित्र), एवं कृत्तिवसन: (पशुचर्म धारण करनेवाला) कहा गया है [वा. सं. ३.६१, १६.५१] । इसके द्वारा असुरों के तीन नगरों के विनाश का निर्देश भी प्राप्त है [तै. सं.अ ६.४.३]
रुद्र-शिव n.  गणों का निर्देश प्राप्त है, एवं इस गण के लोग जंगल में रहनेवाले निषाद आदि वन्य जमातियों के ‘गणपति’ होने का निर्देश भी प्राप्त है । रुद्र वन्य जमातियों का राजा अथवा प्रमुख होने का निर्देश सर्वप्रथम यजुर्वेद संहिता में ही प्राप्त होता है । इस तरह जंगलों का देवता माना गया रुद्र, जंगलों में रहनेवाले लोगों का भी देव बन गया, जो संभवत: वैदिक रुद्र देवता का एवं अनार्य लोगों के रुद्रसद्दश देवता के सम्मीलन की ओर संकेत करता है ।
रुद्र-शिव n.  इस वेद में रुद्र के कुल सात नाम प्राप्त है, किन्तु उन्हें एक नहीं, बल्कि सात स्वतंत्र देवता माना गया है । जिस तरह सूर्य के सवितृ, सूर्य, मित्र, पूषन् आदि नामान्तर प्राप्त है, उसी प्रकार अथर्ववेद में प्राप्त रुद्रसद्दश देवता, एक ही रुद्र के विविध रुप प्रतीत होते है, जिनके नाम निम्न प्रकार है--- १. ईशान,---जो समस्त मध्यलोक का सर्वश्रेष्ठ अधिपति है । २. भव.---जो मध्यमलोक के पूर्वविभाग का राजा, व्रात्य लोगों का संरक्षक एवं उत्तम धनुर्धंर है । यह एवं शर्व पृथ्वी के दृष्ट लोगों पर विद्युतरूपी बाण छोडते हैं । इसे सहस्र नेत्र हैं, जिनकी सहायता से यह पृथ्वी की हरेक वस्तु देख सकता है [अ. वे. ११.२.२५] । यह आकाश, पृथ्वी एवं अंतरिक्ष का स्वामी है [अ. वे. ११.२.२७] । भव, शर्व एवं रुद्र के बाण कल्याणप्रद (सदाशिव) होने के लिए, इनकी प्रार्थना की गयी है (अ.अ वे. ११.६.९) । ३. शर्व.---जो उत्तम धनुर्धर एवं मध्यमलोक के दक्षिण विभाग का अधिपति है । इसे एवं भव को ‘भूतपति’ एवं ‘पशुपति’ कहा गया है [अ. वे. ११.२.१] । ४. पशुपति,---जो मध्यमलोक के पश्चिम विभाग का अधिपति है । इसे अश्व, मनुष्य, बकरी, मेंडक एवं गायों का स्वामी कहा गया है [अ. वे. ११.२.९] । ५. उग्र,---यह एक अत्यंत भयंकर देवता है, जो मध्यमलोक के उत्तर विभाग का अधिपति कहा गया है । यह आकाश, पृथ्वी एवं अंतरिक्ष के सारे जीवित लोगों का स्वामी है [अ. वे. ११.२.१०] । ६. रुद्र,---जो कनिष्ठ लोक का स्वामी है: एवं रोगव्याधि, विषप्रयोग एवं आग फैलाने की अप्रतिहत शक्ति इसमें है । अग्नि, जल, एवं वनस्पतियों में इसका वास है, एवं पृथ्वी के साथ चंद्र एवं ग्रहमंडल का नियमन भी यह करता है (अं. वे. १३.४.२८) । इसी कारण, इसे ‘ईशान’ (राजा) कहा गया है । ७. महादेव,---जो उच्चलोक का अधिपति है ।
रुद्र-शिव n.  इन ग्रंथों में रुद्र को उषस् का पुत्र कहा गया है, एवं जन्म के पश्चात् इसे प्रजापति के द्वारा आठ विभिन्न नाम प्राप्त होने का निर्देश प्राप्त है [श. ब्रा. ६.१.३.७] ;[कौ. ब्रा. ६.१.९] । इनमें से सात नाम यजुर्वेद की नामावलि से मिलते जुलते है, एवं आठवाँ नाम ‘अशनि’ (उल्कापात) बताया गया है । किन्तु इन ग्रंथों में ये आठ ही नाम एक रुद्र देवता के ही विभिन्न रुप के जगत्संहारक रूप के प्रतीक हैं, एवं भव, पशुपति, महादेव एवं ईशान आदि बाकी चार नाम इसके शान्त एवं जगत्पतिपालक रूप के द्योतक हैं । इस तरह ऋग्वेद काल में पृथ्वी को भयभीत करनेवाले जगत्संहारकरुद्रदेवता को ब्राह्मण ग्रंथोंके काल में जगत्संहारक एवं जगत्प्रतिपालक ऐसे द्विविध रूप प्राप्त हुयें । ब्राह्मण ग्रंथों में रुद्र के उत्पत्ति की एक कथा भी दी गई है । प्रजापति के द्वारा दुहितृगमन किये जाने पर उसे सजा देने के लिए रुद्र की उत्पत्ति हुई । पश्चात रुद्र ने पशुपति का रूप धारण कर मृगरूप से भागनेवाले प्रजापति का वध किया । प्रजापति एवं उसका वध करनेवाला रुद्र आज भी आकाश में मृग एवं मृगव्याध नक्षत्र के रुप में दिखाई देते हैं [ऐ. ब्रा. ३.३३] ;[श. ब्रा. १.७.४.१-३] ;[ब्रह्म, १०२]
रुद्र-शिव n.  रुद्र-शिव से संबंधित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपनिषद ‘श्वेताश्वतर उपनिषद’ है, जिसमें रुद्र-शिव को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ देवता कहा गया है । अनादि अनंत परमेश्वर का स्वरूप क्या है, एवं आत्मज्ञान से उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है, इसकी चर्चा अन्य उपनिषदों के भाँति इस उपनिषद में भी की गयी है । किन्तु यहाँ प्रथम ही जगत्संचालक ब्रह्मन् का स्थान जीवित व्यक्ति का रंग एवं रूप धारण करनेवाले रुद्र-शिव के द्वारा लिया गया है । इस उपनिषद में रुद्र, शिव, ईशान एवं महेश्वर को सृष्टि का अधिष्ठात्री देवता (देव) कहा गया है, एवं इसकी उपासना से एवं ज्ञान से ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता हैं, ऐसा कहा गया है । इस उपनिषद के अनुसार, सृष्टि का नियामक एवं संहारक देवता केवल रुद्र ही है [श्वे. उ. ३.२] , जो गूढ, सर्वव्यापी एवं सर्वशासक है [श्वे. उ. ५.३] , एवं केवल उसीके ज्ञान से ही मोक्षप्राप्ति हो सकती है [श्वे. उ. ४.१६] । एक ग्रंथ में विश्वमाया का नाम प्रकृति दिया गया है, एवं उस माया का शास्ता रुद्र बताया गया है [श्वे. उ. ४.१०] । श्वेताश्वतर उपनिषद शैवपंथीय नहीं, बल्कि आत्मज्ञान का एवं ईश्वरप्राप्ति का पंथनिरपेक्ष मार्ग बतानेवाला एक सर्वश्रेष्ठ प्राचीन उपनिषद माना जाता है, एवं इसी कारण शंकराचार्य, रामानुज आदि विभिन्न पंथ के आचार्यो ने इसके उद्धरण लिये हैं । यह उपनिषद ग्रंथ भक्तिसांप्रदाय एवं रुद्र-शिव की उपासना का आद्य ग्रंथ माना जाता है, एवं इसका काल भगवद्नीता के पूर्वकालीन है, जिसे वासुदेव कृष्ण की उपासना का आद्य ग्रंथ माना जाता है । इससे प्रतीत होता है कि, भगवद्नीता तक के काल में भारतवर्ष में रुद्र-शिव ही एकमेव उपास्य देवता थी, जिसके स्थान पर भगवद्रीता के पश्चात्, रुद्र एवं वासुदेव कृष्ण इन दोनों देवताओं की उपासना प्रारंभ हुयीं ।
रुद्र-शिव n.  रुद्र-शिव की पत्नी उमा (हैमवती) का सर्वप्रथम निर्देश इस उपनिषद में प्राप्त है, जहाँ उसे स्पष्ट रूप से शिव की पत्नी नही, बल्कि साथी कहा गया है । इंद्र, वायु, अग्नि आदि वैदिक देवताओं की शक्ति, जिस समय काफी कम हो चुकी थी एवं रुद्र-शिव ही एक देवता पृथ्वी पर रहा था, उस समय की एक कथा इस उपनिषद में दी गयी है---एक बार देवों के सारे शत्रु को ब्रह्मन् ने पराजित किया, किन्तु इस विजयप्राप्ति का सारा श्रेय इंद्र, अग्नि आदि देवता लेने लगे । उस समय रुद्र-शिव देवों के पास आया । देवों का गर्वपरिहार करने के लिए इसने अग्नि, वायु एवं इंद्र के सम्मुख एक घाँस का तिनका रखा, एवं उन्हें क्रमश: उसे जलाने, भगाने एवं उठाने के लिए कहा । इस कार्य में तीनों वैदिक देव असफल होने के पश्चात्, हैमवती उमा ने ब्रह्मस्वरूप रुद्र-शिव का माहात्म्य उन्हें समझाया । ‘शिव अथर्वशिरस उपनिषद’ में भी रुद्र की महत्ता का वर्णन प्राप्त है । किन्तु वहाँ रुद्र-शिव के संबंधी तात्त्विक जानकारी कम है, एवं शिवोपासना के संबंधी जानकारी अधिक है, जिस कारण यह उपनिषद काफी उरत्तकालीन प्रतीत होता है ।
रुद्र-शिव n.  इन ग्रंथो में गायों का रोग टालने के लिए शूलगव नामक यज्ञ की जानकारी दी गयी है, जहाँ बैल के ‘वपा’ की आहुति रुद्र के निम्नलिखित बारह नामों का उच्चारण के साथ करने को कहा गया है---रुद्र; शर्व; उग्र; भव; पशुपति; महादेव; ईशान; इर; मृड; शिव; भीम एवं शंकर । इनमें से पहले तीन जगत्संहारक रूद्र के, दूसरे चार नाम जगत्प्रतिपालक रुद्र के, एवं अंतिम पाँच नाम नये प्रतीत होते हैं । पारस्कर गृह्म एवं हिरण्यकेशी गृह्यसूत्रों में शूलगव यज्ञ की प्रक्रिया दी गयी है । किन्तु वहाँ रुद्र के बदले इंद्राणी, रुद्राणी, शर्वाणी, भवानी आदि रुद्रपत्नियों के लिए आहुति देने को कहा है, एवं ‘भवस्य देवस्य पत्न्यै स्वाहा’ इस तरह के मंत्र भी दिये गये हैं [पा. गृ. ३. ८] ; हि. गृ. २.३.८ । इन्हीं ग्रंथों में पर्वत, नदी, जंगल, स्मशान आदि से प्रवास करते समय, रुद्र की उपासना किस तरह करनी चाहिये, इसका भी दिग्दर्शन किया गया है [पा. गृ. १५, हि. गृ. ५.१६]
रुद्र-शिव n.  इस ग्रंथ में रुद्र का निर्देश शिव एवं महादेव नाम से किया गया है । वहाँ इसकी पत्नी के नाम उमा, पार्वती, दुर्गा, काली, कराली आदि बताये गये हैं, एवं इसके पार्षदों को ‘शिवगण’ कहा गया है । मुंजवत् पर्वत पर तपस्या करनेवाले शिव को योगी अवस्था कैसी प्राप्त हुई इसकी कथा महाभारत में प्राप्त है । सृष्टि के प्रारंभ के काल में, ब्रह्मा की आज्ञासे शिव प्रजाउत्पत्ति का कार्य करता था । आगे चल कर, ब्रह्मा के द्वारा इस कार्य समाप्त करने की आज्ञा प्राप्त होने पर, शिव पानी में जा कर छिप गया । पश्चात ब्रह्मा ने दूसरे एक प्रजापति का निर्माण किया, जो सृष्टि उत्पत्ति का कार्य आगे चलाता रहा । कालोपरान्त शिव पानी से बाहर आया, एवं अपने अनुपस्थिति में भी प्रजा-उत्पत्ति का कार्य अच्छी तरह से चल रहा है, यह देख कर इसने अपना लिंग काट दिया, एवं यह स्वयं मुंजवत् पर्वत पर तपस्या करने के लिये चला गया । इसी प्रकार की कथा वायुपुराण में भी प्राप्त है । ब्रह्मन् के द्वारा नील लोहित (महादेव) को प्रजाउत्पत्ति की आज्ञा दिये जाने पर, उसने मन ही मन अपनी पत्नी सती का स्मरण किया, एवं हजारो विरूप एवं भयानक प्राणियों (रुद्रसृष्टि) का निर्माण किया, जो रंगरूप में इसी के ही समान थें । इस कारण ब्रह्मा ने इसे इस कार्य से रोंक दिया । तदोपरान्त यह प्रजा-उत्पत्ति का कार्य समाप्त कर ‘पाशुपत योग’ का आचरण करता हुआ मुंज पर्वत पर रहने लगा [वाय. १०] ;[विष्णु. १.७-८] ;[ब्रह्मांड. २.९.७९]
रुद्र-शिव n.  महाभारतमें निम्नलिखित लोगों के द्वारा शिव की उपासना करने का निर्देश प्राप्त है---१.अर्जुन, जिसने पाशुपतास्त्र की प्राप्ति के लिए शिव की दो बार उपासना की थी [म. भी ३८-४०] ;[द्रो. ८०-८१] ; २. अश्वत्थामन, जिसके शरीर में प्रविष्ट हो कर शिव ने पाण्डवों के रात्रिसंहार में मदद की थी [म. सौ. ७] ; ३. श्रीकृष्ण, जिसने अपनी पत्नी जांबवती को तेजस्वी पुत्र प्राप्त दान के लिए तपस्या की थी, एवं जिसे शिव एवं उमा ने कुल चौबीस वर प्रदान किये थें [म. अन.१४] ; ४. उपमन्यु, जिसने कडी तपस्या कर शिव से इच्छित वर प्राप्त कियें थे; ५. शाकल्य. जिसने शिवप्रसाद से ऋग्वेद संहिता एवं पदपाठ की रचना में हिस्सा लिया था [म. अनु. १४] । इनके अतिरिक्त, शिव के उपासकों में अनेकानेक ऋषि, रजा, दैत्य, अप्सरा, राजकन्या, सर्प आदि शामिल थे, जिनकी नामावलि निम्नप्रकार है---१. ऋषि-दुर्वासस्, परशुराम, मंकणक; २. राजा-राम दाशरथि, जयद्रथ, द्रुपद, मणिपुरनरेश प्रमंज, श्वेतकि; ३. दैत्य-अंधक, अंधकपुत्र आडि, जालंधर, त्रिपुर, बाण, भस्मासुर, रावण, रक्त्तबीज, वृक, हिरण्याक्ष; ४. अप्सरा-तिलोत्तमा; ५. राजकन्या-अंबा, गांधारी; ६.सर्प-मणि । इनमें से दैत्य एवं असुरों के द्वारा शिव की उदारता एवं भोलापन का अनेकबार गैर फायदा लिया गया, जो त्रिपुर, भस्मासुर, रक्त्तबीज, रावण आदि के चरित्र से विदित है ।
रुद्र-शिव n.  पुराणों में अष्टरुद्रों की नामावलि दी गयी है, जो शतपथ ब्राह्मण की नामावलि से मिलती जुलती है । इसन ग्रंथों के अनुसार, ब्रह्मा से जन्म प्राप्त होने पर यह रोदन करते हुए इधर उधर भटकने लगा । पश्चात इसके द्वारा प्रार्थना किये जाने. पर, ब्रह्मा ने इसे आठ निभिन्न नाम, पत्नियाँ एवं निवासस्थान आदि प्रदान कियें । प्रमुख पुराणों में से, विष्णु, मार्केंडेय, वायु एवं स्कंद में अष्टमूर्ति महादेव की नामावलि प्राप्त है [विष्णु, १.८] ;[मार्के. ४९] ;[पद्म. सृ. ३] ;[वायु, २७] ;[स्कंद. ७.१. ८७] । इन पुराणों में प्राप्त रुद्र की पत्नियों संतान, निवासस्थान आदि की तालिका निम्नप्रकार है---

रुद्र का नाम - रुद्र
पत्नी - सुवर्चला अथवा सती
संतान - शनैश्चर
निवासस्थान - सूर्य

रुद्र का नाम - भव
पत्नी - उमा ( उषा )
संतान - शुक्र
निवासस्थान - जल

रुद्र का नाम - शर्व ( शिव )
पत्नी - विकेशी
संतान - मंगल
निवासस्थान - मही

रुद्र का नाम - पशुपति
पत्नी - शिवा
संतान - मनोजव
निवासस्थान - वायु

रुद्र का नाम - भीम
पत्नी - स्वाहा ( स्वधा )
संतान - स्कंद
निवासस्थान - अग्नि

रुद्र का नाम - ईशान
पत्नी - दिशा
संतान - स्वर्ग
निवासस्थान - आकाश

रुद्र का नाम - उग्र
पत्नी - दीक्षा
संतान - संतान
निवासस्थान - यज्ञीय ब्राह्मण

रुद्र का नाम - महादेव
पत्नी - रोहिणी
संतान - बुध
निवासस्थान - चंद्र
कालिदास के शाकुन्तल की नांदी में, अष्टमूर्ति शिव का निर्देश है, जहाँ उपर्युक्त तालिका में दिये गयें रुद्रके निवासस्थानों को ही ‘अष्टमूर्ति’ कहा गया है---जल, वह्नि, सूर्य, चंद्र, आकाश, वायु, पृथ्वी (अवनी) एवं यज्ञकर्ता [शा. १.१]
रुद्र-शिव n.  महाभारत एवं पुराणों में प्राय: सर्वत्र रुद्रों की संख्या एकादश बतायी गयी हैं, एवं उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न एक ही आद्य रुद्र से होने की कथा बताई गयी है । किन्तु इन ग्रंथों में प्राप्त एकादश रुद्रों की नामावलि एक दूसरी से मेल नहीं खाती है । इनमें से प्रमुख ग्रंथों में प्राप्त नामावलियाँ निम्न प्रकार है :--- १. महाभारत---मृगव्याध, शर्व, निऋति, अजैकपात, अहिर्बुधन्य, पिनाकिन्, दहन, ईश्वर, कपालिन्, स्थाणु, एवं भव [म. आ. ५०.१-३] । २. स्कंद.पुराण में---भूतेश, नीलरुद्र, कपालिन्, वृषवाहन, त्र्यंबक, महाकाल, भैरव, मृत्युंजय, कामेश, एवं योगेश [स्कंद, ७.१.८७] । इस पुराण के अनुसार, कृतयुग में अष्ट रुद्र उत्पन्न हुयें, एवं कलियुग में ग्यारह रुद्रों का अवतार हुआ, जिनकी नामाबलि यहाँ दी गयी है । ये ग्यारह रुद्र, दस वायु एवं एक आत्मा मिल कर बन गयें हैं, जिनमें से दस वायु के नाम निम्न हैं---प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त एवं धनंजय । ३. भागवत में---इस ग्रंथ में ग्यारह रुद्रों के नाम, उनकी पत्नियाँ, एवं निवासस्थान दिये गयें हैं, जों निम्न प्रकार है:---

रुद्र का नाम - मन्यु
पत्नी - धी
निवास्थान - ह्रदय

रुद्र का नाम - मनु
पत्नी - वृत्ति
निवास्थान - इंद्रिय

रुद्र का नाम - महिनस् ( सोम )
पत्नी - उशना
निवास्थान - असु

रुद्र का नाम - महत्
पत्नी - उमा
निवास्थान - व्योम

रुद्र का नाम - शिव
पत्नी - नियुता
निवास्थान - वायु

रुद्र का नाम - ऋत्तध्वज
पत्नी - सर्पि
निवास्थान - अग्नि

रुद्र का नाम - उग्ररेतस्
पत्नी - इला
निवास्थान - जल

रुद्र का नाम - भव
पत्नी - अंबिका
निवास्थान - मही

रुद्र का नाम - काल
पत्नी - इरावती
निवास्थान - सूर्य
१०
रुद्र का नाम - वामदेव
पत्नी - सुधा
निवास्थान - चंद्र
११
रुद्र का नाम - धृतध्वज
पत्नी - दीक्षा
निवास्थान - तप
विभिन्न पुराणों में---उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त अन्य पुराणों में प्राप्त एकादश रुद्र के नाम एवं उनके संभवनीय पाठभेद निम्न प्रकार है---१. अजैकपात् (अज, एकपात्, अपात्); २. अधिर्बुधन्य: ३. ईश्वर (सुरेश्वर, र्विश्वेश्वर, अपराजित, शास्तृ, त्वष्ट्ट); ४. कपालिन्; ५. कपर्दिन्; ६. त्र्यंबक (दहन, दमन, उग्र, चण्ड, महातेजस्, विलोहित, द्दवन), ७. बहुरूप (निंदित, निऋति, महेश्वर), ८. पिनाकिन् (भीम); ९. मृगव्याध (रैवत, परंतप); १०. वृषाकपि (विरूपाक्ष, भग); ११. स्थाणु (शंभु, रुद्र, जयंत, महत्, अयोनिज, हर, भव, शर्व, ऋत, सर्वसंज्ञ, संध्य एवं सर्प) ।
रुद्र-शिव n.  रुद्र के जन्म के संबंधी विभिन्न कथाएँ पुराणों में प्राप्त है । सृष्टि के विस्तार का कार्य ब्रह्मा के सनंदन आदि प्रजापतिपुत्रों पर सौंपा गया था । किंतु वह काम उनके द्वारा यथावत न किये जाने पर ब्रह्मा क्रुद्ध हुआ. एवं अपनी भ्रुकुटि उसने वक्र की । ब्रह्मा के उस बक्र किये भ्रुकुटि से ही रुद्र का जन्म हुआ [विष्णु. १.७.१०-११] । पद्य एवं भागवत में भी इसे ब्रह्मा के क्रोध से उत्पन्न कहा गया है [पद्म. सृ. ३] ;[भा. ३.१२.१०] । अन्य पुराणों में, इसे ब्रह्मा के अभिमान से [ब्रह्मांड. २.९.४७] ; ललाट से [भवि. ब्राह्म ५७] ; मन से [मत्स्य. ४.२७] ; मस्तक से [स्कंद. ५.१.२] उत्पन्न कहा गया है । विष्णु के अनुसार, प्रजोत्पादनार्थ चिंतन करने के लिए बैठे हुए ब्रह्मा को एक पुत्र उत्पन्न हुआ. जो शुरु में रक्तवर्णीय था, किन्तु पश्वात नीलवर्णीय बन गया । बह्मा का यही पुत्र रुद्र है । स्कंद में शंकर के आशीर्वाद से ही ब्रह्मा के रुद्र नामक पुत्र होने की कथा प्राप्त है । अन्य पुराणों में रुद्रगणों कें कश्यप एवं सुरभि के [ह. वं.१.३] ;[ब्रह्म ३.४७-४८] ;[शिव. रुद्र. १७] ; भूतकन्या सुरूपा के [भा. ६.६. १७] ; तथा प्रभास एवं बृहस्पतिभगिनी के [विष्णु १. १५. २३] पुत्र कहा गया है । महाभारत में कई स्थानों पर, रुद्र देवता के स्थान पर एकादश रुद्रों का निर्देश किया गया है [म. आ. ६०.३,११४. ५७-५८] ;[म. शां. २०१.५४८] ;[म. अनु. २५५.१३] ;[स्कंद. ६.२७७] ;[पद्म सृ. ४०]
रुद्र-शिव n.  इसके पराक्रम की विभिन्न कथाएँ पुराणों मे प्राप्त हैं । गंधमादन पर्वत पर अवतीर्ण होनेवाली गंगा इसने अपने जटाओं में धारण की [पद्म. ख. ३] । अपने असुर दक्ष के द्वारा अपमान किये जाने पर, इसने उसके यज्ञ का विध्वंस अपने वीरभद्र नामक पार्षद के द्वारा कराया । ब्रह्मा के द्वारा अपमान होने पर, इसने उसका पाँचवाँ सिर अपने दाहिने पाँव के अंगूठे के नाखुन से काट डाला । ब्रह्मा का सिर काटने से इसे ब्रह्महत्त्या का पातक लगा, जो इसने काशी क्षेत्र में निवास कर नष्ट किया [पद्म. सृ. १४] । कई अन्य पुराणों में ब्रह्मा का पाँचवा सिर इसने अपने भैरव नामक पार्षद के द्वारा कटवाने का निर्देश प्राप्त है [शिव. विद्या. १.८] । ब्रह्मा के यज्ञ में यह हाथ में कपाल धारण कर गया, जिस कारण इसे यज्ञ के प्रवेशद्वार के पास ही रोका दिया गया । किन्तु आगे चलकर इसके तप:प्रभाव के कारण. इसे यज्ञ में प्रवेश प्राप्त हुआ, एवं ब्रह्मा के उत्तर दिशा में बहुमान की जगह इसे प्रदान की गई [पद्म. सृ. १७] । समुद्रसंथन से निकला इलाहल-विष इसने प्राशन किया जिस कारण, इसकी ग्रीवा नीली हो गई, एवं इसके शरीर का अत्यधिक दाह होने लगा । उस दाह का उपशम करने लिए, इसने अपने जटासंभार में उसी समुद्रमंथन, से निकला हुआ चंद्र धारण किया, जिस कारण इसे ‘नीलकंठ,’ एवं ‘चंद्रशेखर’ नाम प्राप्त हुयें । ब्राह्मणों का नाश करने के हेतु, एक दैत्य हाथी का रूप धारण कर काशीनगरीं में प्रविष्ट हुआ था, जिसका इसने वध किया, एवं उसका चर्म का वस्त्र बनया । इसी कारण इसे ‘कृत्तिवासम्’ (हाथी का चर्म धारण करनेवाला)नाम प्राप्त हुआ [पद्म. ख. ३४] । देव असुरों के युद्ध में यह प्राय: देवों के पक्ष में ही शामिल रहता था. एवं देवसेना के सेनापति के नाते इसने अपने पुत्र कार्तिकेय को अभिषेक भी किया था [विष्णुधर्म. १.२३३] । फिर भी अपना श्रेष्ठत्व प्रस्थापित करने के लिए इसने देवों से तीन बार, एवं नारायण तथा कृष्ण से एक एक बार युद्ध किया था [म. शां. ३३०] । नारायण के साथ कियें युद्ध में, इसने उसके छाति पर शूल से प्रहार किया था. जो व्रणा ‘श्रीवत्स-चिह्न’ नाम से प्रसिद्ध है [म. शां ३३०,६५] । महाभारत में वर्णन किये गये शिव के पराक्रम में दक्ष-यज्ञ का विध्वंस, एवं त्रिपुरासुर का वध [म. क. २४] , इन दोनों को प्राधान्य दिया गया है (दक्ष प्रजापति एवं त्रिपुर देखिये) । त्रिपुरासुर के वध के पहले इसने उसके आकाश में तैरनेवाले त्रिपुर नामक तीन नगरो को जला दिया । शिव के द्वारा किये गयें त्रिपुरदाह का तात्त्विक अर्थ महाभारत में दिया गया है, जिसके अनुसार स्थूल, सूक्ष्म, एवं कारण नामक तीन देहरूप नगरों का शिव के द्वारा दाह किया गया । हर एक साधक को चाहिए की, वह भी शिव के समान इन तीन नगरों का नाश करे, जो दुष्कर कार्य शिव की उपासना करने से ही सफल हो सकता है ।
रुद्र-शिव n.  वह भूत पिशाचों का अधिपति था, एवं अमंगल वस्तु धारण कर इसने कंकाल, शैव. पाषंड, महादेव आदि अनेक तामस पंथों का निर्माण किया था । विष्णु की आज्ञानुसार, इसने निम्नलिखित ऋषयों को तामसी बनाया था---कणाद, गौतम, शक्त्ति. उपमन्यु, जैमिनि, कपिल, दुर्वास, मृकंडु, बुहस्पति, भार्गव एवं जामदग्न्य । देवों के यज्ञ में हविर्भाय न होने के कारण, इसने कुद्ध हो कर भग एवं पूषन् को कमश: एकाक्ष एवं दंतविहीन बनाया था, एवं यज्ञ देवता को मृग का रूप ले कर भागने पर विवश किया था । भूतपिशाचों के गणों के वीरभद्र आदि अधिपति इसके ही पुत्र माने जाते हैं । इसी कारण इसको एवं इसकी पत्नी को क्रमश: ‘महाकाल’ एवं ’काली’ कहा गया है । स्कंद में इसे सात सिरोंवाला कहा गया है, जिनमें से हर एक सिर अज, अश्व, बैल आदि विभिन्न प्राणियों से बना हुआ था । इन सिरों में से अपना अज एवं अश्व का सिर, इसने कमश; ब्रह्मा एवं विष्णु को प्रदान किया था । वामन आदि पुराणों में रुद्र के तामस स्वरूप का अधिकांश वर्णन प्राप्त है । भूतपतित्व, शीघ्रकोपित्व, एवं आहारादि में मद्यमांस की आधिक्यता, ये रुद्र के तामस स्वरूप की तीन प्रमुख विशेषताएँ है ।
रुद्र-शिव n.  इस तरह हम देखते है कि, रुद्र-शिव के उपासकों के मन में इस देवता की दो प्रतिमाएँ प्रस्तुत की गयी हैं । इन ग्रंथों में निर्दिष्ट तामस रुद्र का वर्णन ज्ञानप्रधान एवं योगसाधन में मग्न हुए शिव से अलग है । वेदों के पूर्वकालीन अनार्य रुद्र का उत्क्रान्त आध्यात्मिक रूप शिव माना जाता है । ऋग्वेद एवं ब्राह्मण ग्रन्थों में जो रुद्र था, वहीं आगे चल कर, उपनिषद ग्रन्थों में शिव बन गया, एवं उसे परमशुद्ध आध्यात्मिक रूप प्राप्त हो गया । उसकी पूजा मद्यमांस से नहीं, बल्कि फलपुष्पादि पदार्थों से की जाने लगी । कोई न कोई कामना मन में रख कर, परमेश्वर की उपासना करनेवाले सामान्य जनों के अतिरिक्त, परब्रह्मप्राप्ति की आध्यात्मिक इच्छा मन में रखनेवाले तत्त्वज्ञ भी उसे ‘महादेव’ मानने लगे । किंतु सामान्य भक्तों में उनके आध्यात्मिक अधिकार के अनुसार, शिव के तामस रूप की पूजा चलती ही रही, जिसका आविष्कार रूद्र के भैरव, कालभैरव आदि अवतारों की उपासना में आज भी प्रतीत होता है । रूद्र-शिव के इसी दो रूपों का विशदीकरण महाभारत में प्राप्त है, जहाँ रुद्र की ‘शिवा’ एवं ‘घोरा’ नामक दो मूर्तियाँ बतायी गयीं है :---द्वे तनू तस्य देवस्य ब्राह्मण विदु; । घोरामन्यां शिवामन्यां ते तनू बहुधा पुन: ॥ [म. अनु. १६१.३] (शिव की घोरा एवं शिवा नामक दो मूर्तियाँ है, जिनमें से घोरा अग्निरूप, एवं शिवा परमगुहा अध्यात्मस्वरूप महेश्वर है ) ।
रुद्र-शिव n.  रुद्र-शिव को निम्नलिखित दो पत्नियाँ थी---१. दक्षकन्या सती; २. हिमाद्रिकन्या पार्वती (उमा) (दक्ष, सती एवं पार्वती देखिये) । रुद्र को सती से कोई भी पुत्र नही था । पार्वती से इसे निम्नलिखित दो पुत्र उत्पन्न हुयें थे---१. गजानन (गणपति), जो पार्वती के शरीर के मल से उत्पन्न हुआ था; २. कार्तिकेय स्कंद, जो शिव का सेनापति था (गणपति एवं स्कंद देखिये) । उपर्युक्त पुत्रों के अतिरिक्त्त, पार्वती ने भूतपिशाचाधिपति वीरभद्र को, एवं बाणासुर को अपना पुत्र मान लिया था, जिस कारण यें दोनों भी शिव के पुत्र ही कहलाते हैं (वीरभद्र एवं बाण देखिये) । इसने शैलादपुत्र नंदिन् को भी अपना पुत्र माना था (नंदिन् देखिये) ।
रुद्र-शिव n.  रुद्र शिव की उपासना प्राचीन भारतीय इतिहास मे अन्य कौनसे भी देवता की अपेक्षा प्राचीन है । ऐतिहासिक द्दष्टि से रुद्र-शिव की इस उपासना के दो कालखंड माने जाते हैं---१. जिस काल में शिव की प्रतिकृति की उपासना की जाती थी; २. जिस काल में शिव की प्रतिकृति के उपासना का लोप हो कर, उसका स्थान शिवलिंगोपासना ने ले लिया । यद्यपि ऋग्वेद में शिश्न देवता की उपासना करनेवाले अनार्य लोगों का निर्देश दो बार प्राप्त है [ऋ. ७. २१.५.१०.९९.३] , फिर भी रुद्र की उपासना में लिंगोंपासना का निर्देश प्राचीन वैदिक वाङ्मय मे कहीं भी प्राप्त नहीं होता है । यही नही, पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में शिव, स्कंद एवं विशाख की स्वर्ण आदि मौल्यवान् धातु के प्रतिकृतियों की पूजा करने का स्पष्ट निर्देश प्राप्त है [महा. ३.९९] । वेम कदफिसस् के सिक्कों पर भी शिव की त्रिशूलधारी मूर्ति पाई जाती है, एवं वहाँ शिव के प्रतीक के रूप में शिवर्लिग नहीं. बल्कि नन्दिन् दिखाया गया है । शिवलिंगोपासना का सर्वप्रथम निर्देश श्वेताश्वतर उपनिषद में पाया जाता है, जहाँ ‘ईशान रुद्र; को सृष्टि के समस्त योनियों अधिपति कहा गया है [श्वे. उ. ४.११,५.२] । किन्तु यहाँ भी शिवलिंग शिव का प्रतीक होने का स्पष्ट निर्देश अप्राप्या है, एवं सृष्टि के समस्त प्राणि जतियों का सृजन रुद्र के द्वारा किये जाने का तात्त्विक अर्थ अभिप्रेत है । महाभारत में दिये गये उपमन्यु के आख्यान में शिवलिंगोपासना का स्पष्ट रूप से निर्देश प्रथम ही पाया जाता है । डाँ. भांडारकरजी के अनुसार, रुद्र-शिव सर्वप्रथम वैदिक देवता था, किन्तु आगे चल कर, वह व्रात्य, निषाद आदि वन्य एवं अनार्य लोगों का भी देवता बन गया । उन लोगों के कारण रुद्र-शिव के संबंधी प्राचीन वैदिक आर्यों के द्वारा प्रस्थापित की गयी कल्पनाओं में पर्याप्त फर्क किये गये, एवं भूतपति, सर्पधारण करनेवाला, स्मशान में रहनेवाला एक नये देवता का निर्माण हुआ । रुद्र के इस नये रुपान्तर के साथ ही साथ उसके प्रतिकृति की उपासना करने की पुरातन परंपरा नष्ट हो गयी, एवं उसका स्थान शिवलिंग की उपासना करनेवाली नयी परंपरा ने ले लिया । अन्य कई अभासकों के अनुसार, अनार्य लोगें से पूजित रुद्रदेवता, रुद्र देवता से काफी पूर्वकालीन है, एवं इन्हीं रुद्रपूजक लोगों का निर्देश ऋग्वेद में यज्ञविरोधी, शिश्नपूजक अनार्यं लोगों के रूप में किया गया है । अनार्य लोगों के इस मद्यमांसभक्षक, भूतों से वेष्टित, एवं अत्यंत क्रूरकर्मा तामस देवता को वैदिक रुद्र देवता से सम्मीलित कर, उसके उदात्तीकरण का एक महान् प्रयोग वैदिक आर्यों के द्वारा किया गया । इस प्रयोग के कारण, रुद्र देवता अपने नये रूप में जनमानस की एक अत्यंत लोकप्रिय देवता बन गई, एवं उसके अनार्य वन्य एवं अंत्यज भक्त्तों के भक्ति का भी एक नया उदात्तीकरण हो गया । अनार्यों के इस देवता के तामस स्वरूप को उदारता का, शक्ति का एवं तपश्वरण का एक नया पहलु वैदिक आर्यों के द्वारा प्रदान किया गया । श्वेताश्वतर जैसे उपनिषदों ने तो रुद्र-शिव को समस्त सृष्टि का नियंता एवं परब्रह्म प्राप्ति करानेवाला परमेश्वर बना दिया । यह उदात्तीकरण का कार्य करते समय, अनार्य रुद्र देवता के कुछ तामस पहलु वैदिक रुद्र देवता में आ ही गयें, जिनमें से शिवलिंगगोपासना एवं लिंगपूजा एक है ।
रुद्र-शिव n.  शिव की अत्यधिक प्राचीन प्रतिकृति मुँहेंजोदडो एवं हडप्पा के उत्खनन में प्राप्त हुए सिन्धु सभ्यता के खंडहरों में दिखाई देती हैं । इस उत्खनन में शिवस्वरूप से मिलते जुलतें देवता के कई सिक्के प्राप्त है, जहाँ तीन मुखवाले एक देवता के प्रतिमा चित्रांकित की गई है । यह देवता योगासन में बैठी है, एवं उसके शरीर के निचला भाग विवस्त्र है । मुँहेंजोदडो के इस देवता का स्वरूप महाभारत में वर्णित किये गए शिव के ‘त्रिशीर्ष’ (चतुर्मुख), ‘विवस्त्र’ (दिग्वासस्), ‘ऊर्ध्वलिंग’ (ऊर्ध्वरेतस्), ‘योगाध्यक्ष’ (योगेश्वर). स्वरूप से भिलता जुलता है [म. अनु. १४.१६२, १६५, ३२८, १७.४६, ७७,९९] । इन सिक्कों के आधार पर, सर जाँन मार्शल के द्वारा यह अनुमान व्यक्त किया गया है कि, ई, पू. ३००० काल सिन्धुघाटी सभ्यता में शिव के सद्दृश कई देवताओं की पूजा अस्तित्व में थी । मुँहेंजोदडो में प्राप्त देवता के बाये बाजू में व्याघ्र एवं हाथी है, एवं दाये बाजू में बैल एवं गण्डक हैं । यह चित्र महाभारत में प्राप्त शिव के वर्णन से मिलता जुलता है, जहाँ इसे ‘पशुपति’, ‘शार्दूलरूप’, ‘व्यालरूप’, ‘मृगबाणरूप’, ‘नागचर्मोत्तरच्छद’, ‘व्याघ्राजीन’, ‘महिषघ्न’, ‘गजहा’ एवं ‘मण्डलिन्’, तथा इसकी पत्नी दुर्गा को ‘गण्डिनी’ कहा गया है [म. अनु. १४.३१३, १७.४८,६१, ८५, ९१]
रुद्र-शिव n.  इस प्रकार महाभारत में प्राप्त शिववर्णन में एवं मुँहेंजोदडो में प्राप्त त्रिशिर देवता में काफी साम्य दिखाई देता है । किन्तु शिव का प्रमुख विशिष्टता जो वृषभ, वह मुँहेंजोदडों में प्राप्त सिक्कों में नही दिखाई देता है । महाभारत में शिव को सर्वत्र ‘वृषभवाह’ एवं ‘वृषभवाहन’ कहा गया हैं [म. अनु. १४.२९९,३९०] । इस विशिष्ट द्दष्टि से ई. पू. २००० में पश्चिम एशिया में हिटाइट लोगों के द्वारा पूजित तेशव देवता से शिव का काफी साम्य दिखाई देता है । बाबिलोनिया में प्राप्त अनेक शिल्पों में एवं अवशेषों में तेशब देवता की प्रतिमा दिखाई देती है, जहाँ उसे वृषभवाहन एवं त्रिशुलधारी बताया गया है । उसकी पत्नी का नाम माँ था, जिसकी जगन्माता मान कर पूजा की जाती थी । वैदिक एवं पौराणिक वाङ्मय में निर्दिष्ट रुद्र में एवं तेशव देवता में काफी साम्य है । तेशब से समान रुद्रशिव हाथ में विद्युत्, धनुष (धन्वी, पिनाकिन्), त्रिशूल (शूल), दण्ड, परशु, परशु, पट्टीश आदि अस्त्र धारण करता है [ऋ. २.३३.३] ;[म. अनु. १४.२८८, २८९, १७,४३, ४४,९९] । तेशब के समान रुद्रशिव भी अंबिका का पति है, जिसे पार्वती, देवी एवं उमा कहा गया है [म. व. ७८.५७] ;[अनु. १४.३८४, ४२७] । तेथब देवता की पत्नी सिंहारुढ वर्णित है, जो सिंहवाहिनी देवी दुर्गा से साम्य रखती है [मार्कं, ४.२] । सुसा में प्राप्त तेशब देवता के पत्नी का चित्रण-प्राय: मधुमक्षिका के साथ किया गया है, जो मार्केडेय में निर्दिष्ट ‘भ्रामरीदेवी’ से साम्य रखता है [मार्कं, ८८.५०] ;[दे. भा. १०.१३] । मार्कंडेय के अनुसार, भ्रामरीदेवी ने अरुण नामक असुर का वध किया था, जिससे प्राय: असीरिया एवं इराण में रहनेवाले कई विपक्षीय जाति का बोध होता है ।
रुद्र-शिव n.  शुक्लयजुर्वेद मे प्राप्त ‘शत्रुंजय-सूक्त’ रुद्र-शिव को उद्देश्य कर लिखा गया है, जिसकी सारी विचारधारा सुमेरियन देवता नेर्यल को उद्देश्य कर लिखे गये सूक्त से काफी मिलतीजुलती है । इन सारे निर्देशों से प्रतीत होता है की, अँनातोलिया, मेसोपोटँमिया एवं सिन्घुघाटी सभ्यता में प्राप्त नानाविध देवताओं से भारतीय रुद्रशिव कोई ना कोई साम्य जरूर रखता है [राँय चौधरी-स्टडीज इन इंडियन अँन्टिकिटिज. पृष्ठ २००-२०४]
रुद्र-शिव n.  अपने भक्तो के रक्षण के लिए एवं शत्रु के संहार के लिए शिव ने नानाविध अवतार नानाविध कल्पों में लिये, जिनकी जानकारी विभिन्न पुराणों में प्राप्त है । इन अवतारों की संख्या विभिन्न पुराणों में पाँच, दस, अठ्ठाईस एवं शत बताई गई है । शिव के इन सारे अवतारों में निम्नलिखित अवतार अधिक प्रसिद्ध है :---
(१) चार अवतार---१. शरभ, जो अवतार इसने नृसिंह का पराजय करने के लिए धारण किया था, २. मल्लारि, जो अवतार इसने मणिमल्ल का वध करने के लिए धारण किया था, ३. दुर्वासस्, जो अवतार त्रिमूर्ती में स्थित माना जाता है, ४. पंचशिख, जो अवतार त्रिपुरदाह के पश्चात् अवतीर्ण हुआ था ।
(२) पंच अवतार---शिव पुराण में शिव के निम्नलिखित पाँच अवतार दिये गयें हैं :---सद्योजात, अघोर, तत्पुरुष, ईशान, वामदेव [शिव. शत. १]
(३) दश अवतार---विष्णु के समान शिव के द्वारा भी दश अवतार लियें गयें थें, जो निम्नप्रकार हैं :---महाकाल, तार, भुवनेश, श्रीविद्येश, भैरव, छिन्नमस्तक, भूमवत्, बगलामुख, मातंग, कमल _ । [शिव शतरुद्र. १७]
४ अठ्ठाईस अवतार---वाराह कल्प के वर्तमान कल्प में शिव के द्वारा कुल अठ्ठाईस अवतार लिये गये थे, जो तत्कालीन द्वापर युग के व्यास को सहाय्यता करने के लिए उत्पन्न हुयें थे । पुराणों मे प्राप्त अवतारों की इस नामाबलि में हर एक अवतार के चार चार शिष्य बतायें गयें हैं, एवं कहीं कहीं इन अवतारों का अवतीर्ण होने का स्थान भी बताया गया है । वायु में इन्हीं अवतारों को ‘माहेश्वरावतार’ कहा गया है । शिव के अठ्ठाईस अवतार, उनका अवतीर्ण होने का स्थान, एवं शिष्यों के नाम निम्न प्रकार है---(१) श्वेत---(छागल पर्वत) - श्रेतम श्वेतशिख, श्वेताश्व, श्वेतलोहित । (२) सुतार---दुंदुभि, शतरूप, हृषीक, केतुमत् । (३) दमन---विशोक, विशेष, विपाप, पापनाशन । (४) सुहोत्र---सुमुख, दुर्भुख, दुदर्भ, दुरतिक्रम । (५) कंक---सनक, सनत्कुमार, सनंदन, सनातन । (६) लोकाक्षि---सुधामन्, विरजस् , संजय, अंडव । (७) जैगीषव्य---(काशी) - सारस्वत, योगीश, मेघवाह, सुवाहन । (८) दधिवाहन---कपिल, आसुरि, पंचशिख, शाल्वल । (९) ऋषभ---पराशर, गर्ग, भार्गव, गिरीश । (१०) भृगु---(भृगुतुंग) - भृंग, बलबंधु, नरामित्र, केतुशृंश । (११) तप---(गंगाद्वार) - लंबोदर, लंबाक्ष, केशलंब, प्रलंबक । (१२) अत्रि---(हेमकंचुक) - सर्वज्ञ, समबुद्धि, साध्य, शर्व । (१३) बलि---(वालखिल्याश्रम ) - सुधामन्, काश्यप, वसिष्ठ, विरजस् । (१४) गौतम---अत्रि, उग्रतपस्, श्रावण, श्रविष्ट । (१५) वेदशिरस्---(सरस्वती के तट पर) - कुणि, कुणिबाहु, कुशरीर, कुनेत्रक । (१६) गोकर्ण---(गोकर्णवन) - काश्यप, उशनस्. च्यवन, बृहस्पति । (१७) गुहावासिन्---(हिमालय) - उतथ्य, वामदेव, महायोग, महाबल । (१८) शिखंडिन्---(सिद्धक्षेत्र या शिखंडिवन) - वाच:श्रवस्, रुचीक, स्यवास्य, यतीश्वर । (१९) जटामालिन्---हिरण्यनामन्, कौशल्य, लोकक्षिन्, प्रधिमि । (२०) अठ्ठहास---(अठ्ठासगिरि) - सुमंतु, वर्वरि, कबंध, कुशिकंधर । (२१) दारूक---(दारुवन) - प्लक्ष, दार्भायणि, केतुमत्, गौतम (२२) लांगली भीम---(वाराणसी) - भल्लविन्, मधु, पिंग, श्वेतकेतु । (२३) श्वेत---(कालंजर) - उशिक, बृहदश्व, देवल, कवि । (२४) शूलिन्---(नैमिषारण्य) - शालिहोत्र, अग्निवेश, युवनाश्व, शरद्वसु । (२५) दंडीमुंडीश्वर---छगल, कुंडकर्ण, कुभांड, प्रवाहक । (२६) सहिष्णु---(रुद्रेवट) - उलूक, विद्युत्, शंबुक, आश्वलायन । (२७) सों---(प्रभासतीर्थ) - अक्षपाद, कुमार, उलूक, वत्स । (२८) लकुलिन्---कुशिक, गर्ग, मित्र, तौरूष्य [वायु, २३] ;[शिव. शत. ४-५] ;[शिव. वायु. ८-९] ;[लिंग. ७]
(४) शत-अवतार---भिन्न कल्पों मे उत्पन्न हुये शिव के शत अवतारों की नामावलि भी शिवपुराण में प्राप्त है, जहाँ इन अवतारों के वस्त्रों के विभिन्न रंग, एवं पुत्रों के विभिन्न नाम विस्तृत रुप से प्राप्त हैं [शिव. शत. ५]
रुद्र-शिव n.  रुद्र शिव की उपासना भारतवर्ष के सारे विभागों में प्राचीन काल से ही अत्यंत श्रद्धा से की जाती थी । रुद्र के इन उपासकों के दो विभाग दिखाई देते हैं :---१. एक सामान्य उपासक, जो शिव-उपासना के कौनसे भी सांप्रदाय में शामिल न होते हुए भी शिव की उपासना करते हैं; २. शिव के अन्य उपासक, जो शिव-उपासना के किसी न किसी सांप्रदाय में शामिल हो कर इसकी उपासना करते है । कालिदास, सुबंधु, बाण, श्रीहर्ष, भट्टनारायण, भवभूति आदि अनेक प्राचीन साहित्यिकों के ग्रंथ में श्रीविष्णु के साथ रुद्र-शिव का भी नमन किया गया है । प्राचीन चालुक्य एवं राष्ट्रकूट राजाओं के द्वारा शिव के अनेकानेक मंदिर बनायें गयें है, जिनमें वेरूल में स्थित कैलास मंदिर विशेष उल्लेखनीय है । ये सारी कृतियाँ सामान्य शिवभक्तों के द्वारा किये गये सांप्रदायनिरपेक्ष शिवोपासना के उदाहरण माने जा सकते हैं ।
रुद्र-शिव n.  ई. स. १ ली शताब्दी में श्रीविष्णु-उपासना के ‘पांचरात्र’ नामक सांप्रदाय की उत्पत्ति हुई । उसका अनुसरण कर ई, स, २ री शताब्दी में लकुलिन् नामक आचार्य ने ‘पाशुपत’ नामक शिव-उपासना के आद्य सांप्रदाय की स्थापना की, एवं इस हेतु ‘पंचार्थ’ नामक एक ग्रंथ भी लिखा । आगे चल कर इसी पाशुपत से शिव-उपासना के निम्नलिखित तीन प्रमुख सांप्रदायों का निर्माण हुआ---१. कापालिक; २. पाशुपत: ३. शैव । (१) कापालिक सांप्रदाय---रामानुज के अनुसार, शरीर के छ: मुद्रिका का ज्ञान पा कर, एवं स्त्री के जननेंद्रिय में स्थित आत्मा का मनन कर, जो लोग शिव की उपासना करते है, उन्हें कापाल सांप्रदायी कहते है (रामानुज. २.२.३५) । अपने इस हेतु के सिध्यर्थ इस संप्रदाय के लोग निम्नलिखित आचारों को प्राधान्य देते हैं:--- १. खोंपडी में भोजन लेना; २. चिताभस्म सारे शरीर को लगाना; ३. चिताभस्म भक्षण करना; ४. हाथ में डण्डा धारण करना; ५. मद्य का चषक साथ में रखना; ६. मद्य में स्थित रुद्रदेवता की उपासना करना । ये लोंग गले में रुद्राक्ष की माला पहनते है, एवं जटा धारण करते हैं । गलें में मुंडमाला धारण करनेवाले भैरव एवं चण्डिका की ये लोग उपासना करते है, जिन्हें ये लोग शिव एवं पार्वती का अवतार मानते है । इसी सांप्रदाय की एक शाखा को ‘कालामुख’ अथवा ‘महाव्रतधर’ कहते है, जो अन्य सांप्रदायिकों से अधिक कर्मठ मानी जाती है । (२) पाशुपत सांप्रदाय---इस सांप्रदाय के लोग सारे शरीर को चिताभस्म लगाते है, एवं चिताभस्म में ही सोते है । भीषण हास्य, नृत्य, गायन, हुडुक्कार एवं अस्पष्ट शब्दों में ॐ कार का जाप, आदि छ: मार्गों से ये शिव की उपासना करते हैं । इस सांप्रदाय की सारी उपासनापद्धति, अनार्य लोगों के उपासनापद्धति से आयी हुई प्रतीत होती है । (३) शैव सांप्रदाय---यह सांप्रदाय कापालिक एवं पाशुपत जैसे ‘अतिभार्गिक’ सांप्रदायोंसे तुलना में अधिक बुद्धिवादी है, जिस कारण इन्हें ‘सिद्धान्तवादी’ कहा जाता है । इस सांप्रदाय में मानवी आत्मा के पशु कहा गया है, जो इंद्रियपाशों से बँधा हुआ है । पशुपति अथवा शिव की मंत्रोपासना से आत्मा इन पाशों से मुक्त होता है, ऐसी इस सांप्रदाय के लोगों की कल्पना है । काश्मीर शैव-सांप्रदाय---इस सांप्रदाय की निम्नलिखित दो प्रमुख शाखाएँ मानी जाती हैं:--- १. स्पंदशास्त्र, जिसका जनक वसुगुप्त एवं उसका शिष्य कल्लाट माने जाते हैं । इस सांप्रदाय के दो प्रमुख ग्रंथ ‘शिवसूत्रम्’ एवं ‘स्पंदकारिका’ हैं, एवं इसका प्रारंभ काल ई. स. ९ वीं शताब्दी माना जाता है; २. प्रत्यभिज्ञानशास्त्र, जिसका जनक सोमानंद एवं उसका शिष्य उदयाकर माने जाते हैं । इस सांप्रदाय का प्रमुख ग्रंथ ‘शिवद्दष्टि’ है, जिसकी विस्तृत टीका अभिनवगुप्त के द्वारा लिखी गयी है । इस सांप्रदाय का उदयकाल ई. स. १० वीं शताब्दी का प्रारंभ माना जाता है । इन दोनों सांप्रदायों में कापालिक एवं पाशुपत जैसे प्राणायाम एवं अघोरी आचरण पर जोर नहीं दिया गया है, बल्कि चित्तशुद्धि के द्वारा ‘आनव,’ ‘मायिय’ एवं ‘काय’ आदि मलों (मालिन्य) को दूर करने को कहा गया है । इस प्रकार ये दोनों सिद्धान्त अघोरी रुद्र उपासकों से कतिपय श्रेष्ठ प्रतीत होते हैं । राजतरंगिणी के अनुसार, काश्मीर का शैव सांप्रदाय अत्यधिक प्राचीन है, एवं सम्राट अशोक के द्वारा काश्मीर में शिव के दो देवालय बनवायें गयें थे । काश्मीर में शिव के दो देवालय बनवायें गयें थे । काश्मीर का सुविख्यात राजा दामोदर (द्वितीय) शिव का अनन्य उपासक था । इस प्रकार प्राचीन काल से प्रचलित रहे शिव-उपासना के पुनरुत्थान का महत्वपूर्ण कार्य ‘स्पंद शास्त्र’ एवं ‘प्रत्यभिज्ञान शास्त्र’ वादी आचार्यों के द्वारा ई. स. १० वीं शताब्दी में किया गया । वीरशैव (लिंगायत) सांप्रदाय---इस सांप्रदाय का आद्य प्रसारक आचार्य ‘बसव’ माना जाता है, जिसकी जीवनगाथा ‘बसवपुराण’ में दी गयी है । इस सांप्रदाय के मत शैवदर्शन अथवा सिद्धान्तदर्शन से काफी मिलते जुलते है । इस पुराण से प्रतीत होत है की, प्राचीन काल में विश्वेश्वाराध्य, पण्डिताराध्य, एकोराम आदि आचार्यों के द्वारा प्रसूत किये गये सांप्रदाय को बसव ने ई. स. १२ वी शताब्दी में आगे चलाया । इस सांप्रदाय के अनुसार, ब्रह्मन् का स्वरूप ‘सत्,’ ‘चित्’ एवं ‘आनंद’ मय है, एवं वही शिवतत्त्व है । इस आद्य शिवतत्त्व के लिंग (शिवलिंग), एवं अंग (मानवी आत्मा) ऐसे दो प्रकार माने गये हैं, एवं इन दोनों का संयोग शिव की भक्ति से ही होता है ऐसा कहा गया है । इस तत्त्वज्ञान में लिंग के महालिंग, प्रसादलिंग, चरलिंग, शिवलिंग, गुरुलिंग एवं आचारलिंग ऐसे प्रकार कहे गये हैं, जो शिव के ही विभिन्न रूप हैं । इसी प्रकार अंग की भी ‘योगांग,’ ‘भोगांग’ एवं ‘त्यागांग; ऐसी तीन अवस्थाएँ बतायी गयी है, जो शिव की भक्ति की तीन अवस्थाएँ मानी गयी हैं । लिंगायतोंके आचार्य स्वयं को लिंगी ब्राह्मण (पंचम) कहलाते है, एवं इस सांप्रदाय के उपासक गले में शिवलिंग की प्रतिमा धारण करते हैं ।
रुद्र-शिव n.  ई. स. ७ वीं शताब्दी से द्रविड देश में शिवपूजा प्रचलित थी । इस प्रदेश के शैवसांप्रदाय का आद्य प्रचारक तिरुनानसंबंध था, जिसके द्वारा लिखित ३८४ पदिगम् (स्तोत्र) द्रविड देश में वेदों जैसे पवित्र माने जाते हैं । तंजोर के राजराजेश्वर मंदिर में प्राप्त राजराजदेव के ई. स. १० वीं शताब्दी कें शिलालेख में तिरुनानसंबंध का अत्यंत आदर से उल्लेख किया गया है । कांची के शिव मंदिर में, एवं पल्लव राजा राजसिंह के द्वारा ई. स. ६ वीं शताब्दी बनवायें गयें रजसिंहेश्वर मंदिर में शिवपूजा का अत्यंत श्रद्धाभाव से निर्देश प्राप्त है । पेरियापुराण नामक तमिल ग्रंथ में इस प्रदेश में हुयें ६३ शिवभक्त्तों के जीवनचरित्र दिये गये हैं ।
रुद्र-शिव n.  शिवपूजा का एका उपविभाग शक्ति अथवा देवी की उपासना है, जहाँ देवी की त्रिपुरसुंदरी नाम से पूजा की जाती है (देवी देखिये) । शिवपूजा के अन्य कई प्रकार गणपति (विनायक) एवं स्कंद की उपासना हैं (विनायक एवं स्कंद देखिये) ।
रुद्र-शिव n.  हर एक माह के कृष्ण एवं शुक्ल चतुर्दशी को शिवरात्रि कहते है, एवं फाल्गुन कुष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि कहते है । ये दिन शिव-उपासना की द्दष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं ।
रुद्र-शिव n.  इस संबंध में अनेक स्वतंत्र ग्रंथ, एवं आख्यान एवं उपाख्यान महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है, जो निम्नप्रकार है---
(१) शिवसहस्त्रनाम,---जो महाभारत में प्राप्त है । यह तण्डि ने उपमन्यु को, एवं उपमन्यु नें कृष्ण को कथन किया था [म. अनु. १७.३१-१५३] । इसके अतिरिक्त्त दक्षवर्णित शिवसहस्रनाम महाभारत में प्राप्त है [म. शां. परि. १.२८] । शिवसहस्रनाम की स्वतंत्र रचनाएँ भी लिंगपुराण [लिंग. ६५.९८] , एवं, शिवपुराण [शिव. कोटि. ३५] में प्राप्त है ।
(२) शिवपुराण---शैवसांप्रदाय के निम्नलिखित पुराण ग्रंथ प्राप्त हैं---कूर्म, ब्रह्मांड, भविष्य, मत्स्य, मार्कंडेय, लिंग, वराह. वामन, शिव एवं स्कंद [स्कंद. शिवरहस्य खंड, संभवकांड २.३०-३३] ; व्यास देखिये ।
(३) शिवगीता,---जो पद्म पुराण के गौडीय संस्करण में प्राप्त हैं, किन्तु आनंदाश्रम संस्करण में अप्राप्य है ।
(४) शिवस्तुति,---महाभारत में शिवस्तुति के निम्नलिखित आख्यान प्राप्त हैं:--- १. अश्वत्थामन् कृत [म. मौ. ७] २. कृष्णकृत [म. अनु. १४] ;[ह. वं. २.७४.२२-३४] ; ३. कृष्णार्जुनकृत [म. द्रो. ५७] ; ४. तण्डिन्कृत [म. अनु. ४७] ; ५. दक्षकृत [म. शां. परि. १.२८] ; मरुत्तकृत [म. आश्व. ८.१४.]
(५) शिवमहिमा,---जो महाभारत के एक स्वतंत्र आख्यान में वर्णित है ।
(६) लिंगार्चन महिमा,---जो महाभारत के एक स्वतंत्र आख्यान में प्राप्त है [म. अनु, २४७]
(७) शिवनिंदा,---द्क्ष के द्वारा की गई शिवर्निदा भागवत में प्राप्त है [भा. ४.२.९-१६]
रुद्र-शिव n.  रुद्र-शिव के नाम से, एवं इनके प्रासादिक विभूतिमत्त्व से प्रभावित हुए अनेक तीर्थस्थानों का निर्देश महाभारत एवं पुराणों में प्राप्त है, जिन में निम्नलिखित तीर्थस्थान प्रमुख हैं:---
(१) ज्योतिंलिंग---जिनकी संख्या कुल बारह बतायी गयै है (ज्योर्तिलिंग देखिये) ।
(२) मुंजपृष्ठ---एक रुद्रसेवित स्थान, जो हिमालय के शिखर पर स्थित था [म. शां. १२२.२-४]
(३) मुंजवट---गंगा के तट पर स्थित एक तीर्थत्थान, जहाँ शिव की परिक्रमा करने से गणपति पद की प्राप्ति होती है [म. व. ८३.४४६]
(४) मुंजवट---हिमालय में स्थित एक पर्वत, जहाँ भगवान् शंकर तपस्या करते है ।
(५) रुद्रकोटि---एक तीर्थस्थान, जहाँ शिवदर्शन की अभिलाषा से करोडो मुनि एकत्रित हुये थे, एवं उन पर प्रसन्न हो कर शिव ने करोडो शिवर्लिगो के रूप में उन्हें दर्शन दिया था [म. व. ८०.१२४-१२९]
(६) रुद्रपद---एक तीर्थ, जहाँ शिव की पूजा करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है [म. व. ८०.१०८] ; पाठभेद-’ वस्त्रापथ’।
(७) हिमवत्---एक पवित्र पर्वत, जो त्रिपुरदाह के समय भगवान् रुद्र के रथ में आधारकाष्ठ बना था । इस पर्वत में स्थित आदि यगिरि नामक स्थान में शिव का आश्रम स्थित था [म. शां. ३१९- ३२०]

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