संक्षिप्त विवरण - स्वरयोग से रोग निवारण

कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


रोग -निवारण के लिये स्वर -योग का आश्रय भी लिया जाता है । नीरोगता के लिये भोजन सदा दाहिना स्वर (श्वास ) चलने पर करना चाहिये । वामस्वर शीतल एवं दक्षिणस्वर उष्ण माना जाता है । इसके अनुसार ही वात एवं कफ -प्रधान रोगों में दक्षिण नासिका के श्वास को चलाया जाता है एवं पित्तप्रधान रोग में वाम -स्वर से श्वास को चलाया जाता है । सामान्य नियम यह है कि रोग के प्रारम्भकाल में जिस नासिका से श्वास चल रहा होता है , उसे बंद करके दूसरी नासिका से श्वास रोग -शमन होने तक चलाया जाता है । इस स्वर -परिवर्तन से प्रवृद्ध दोष का संशमन हो जाता है । स्वरयोग की जानकारी के लिये शिव स्वरोदय एवं स्वर -चिन्तामणि नामक ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिये ।

योग सम्बन्धी बन्ध एवं मुद्राओं से रोग -निवारण

मुद्राओं के अभ्यास में महामुद्रा , विपरीतकरणी , खेचरी , मूलबन्ध , उड्डीयान -बन्ध एवं जालन्धरबन्ध मुख्य हैं । महामुद्रा क्षय , कुष्ठ , आवर्त , गुल्म , अजीर्ण आदि रोगों एवं सभी दोषों को नष्ट करती है । इसके अभ्यास से पाचन -शक्ति की प्रचण्ड वृद्धि होकर विष को भी पचाने की क्षमता प्राप्त होती है । महामुद्रा के साथ महाबन्ध एवं महावेध का भी अभ्यास किया जाता है । इन तीनों के अभ्यास से वृद्धत्व दूर होता है एवं अनेक शारीरिक सिद्धियों की प्राप्ति होती है । खेचरी मुद्रा के अभ्यास से शरीर में अमृतत्व -धर्म की वृद्धि होती है । सिद्धियों की प्राप्ति होती है । शरीर की सोमकला का विकास होता है तथा देह -क्षय की प्रक्रिया रुक जाती है । उड्डीयान का अभ्यास उदर एवं नाभि से नीचे स्थिति अङों के रोगों को दूरकर पुरुषत्व की अभिवृद्धि करता है । जननाङु एवं प्रजननाङु के रोगों से पीडित नर नारियों को उड्डीयानबन्ध का विशेष अभ्यास करना चाहिये । जालन्धर बन्ध से कण्ठ -रोगों एवं शिरोरोगों का नाश होता है तथा मूलबन्ध का अभ्यास गुदा एवं जननेन्द्रिय पर प्राण एवं अपान पर नियन्त्रण प्रदान करता है । उड्डीयान एवं जालन्धरबन्धं का अभ्यास तो प्राणायाम के समय ही किया जाता है , परंतु मूलबन्ध का अभ्यास सतत करना चाहिये । विपरीतकरणी मुद्रा का ठीक -ठीक अभ्यास वलीपलित को दूर कर युवावस्था प्रदान करता है ।

उपर्युक्त मुद्राओं के अतिरिक्त घेरण्डसंहिताप्रोक्त कुछ अन्य मुद्राओं का अभ्यास भी रोगनाश , वलीपलितविनाश एवं स्वास्थ्य -लाभ के लिये उपयोगी है । इनमें से नभोमुद्रा एवं माण्डूकीमुद्रा तालुस्थित अमृतपान में सहायक होने के कारण सभी रोगों का नाश करने वाली है । अश्विनी मुद्रा गुह्यरोगों का नाश करने वाली , अकालमृत्यु को दूर करने वाली तथा बल एवं पुष्टि को प्रदान करने वाली है । पाशिनी मुद्रा से बल एवं पुष्टि की प्राप्ति होती है । तडागी मुद्रा एवं भुजंगिनी मुद्रा -ये दोनों ही उदर के अजीर्णादि रोगों को नष्टकर दीर्घ जीवन प्रदान करती हैं ।

रोगों को दूर करने में ध्यान अथवा चिन्तन का महत्त्वपूर्ण स्थान है । ध्यान से शरीर , प्राण , मन , ह्रदय एवं बुद्धि में शान्ति , पवित्रता एवं निर्मलता आती है । ‘सद प्राणिमात्र के कल्याण का विचार करने से एवं सभी सुखी हों , नीरोग हों , शान्त हों ’ इस प्रकार की भावनाओं की तरंगो को सभी दिशाओं में प्रसारित करने से स्वयं को सुख तथा शान्ति की प्राप्ति होती है । व्यक्ति जैसा चिन्तन करता है , प्रायः वह वैसा बन जाता है । ‘मैं नीरोग हूँ , स्वस्थ हूँ - ऐसा चिन्तन निरन्तर दृढतापूर्वक करते रहने से आरोग्य बना रहता है । इसे आत्मसम्मोहन ‘ऑटो सजेशन ’ की विधि कहते हैं । इसी प्रकार प्रबल संकल्पशक्ति के द्वारा अपने या दूसरी के रोगों को भी दूर किया जाता है । रोगनिवारण के लिये प्रमुख बात यह है कि रोग होने पर उसका चिन्तन ही न करे , उसकी परवाह ही न करे । रोग का चिन्तन करने से रोग बद्धमूल हो जाता है एवं व्यक्ति का मनोबल दुर्बल हो जाता है । मानसिक रोगों का संकल्पशक्ति एवं प्रज्ञाबल से निवारण करना चाहिये एवं शारीरिक रोगों का औषधों से । इन रोगों के उन्मूलन में यौगिक साधनों का अद्भुत योगदान रहा है ।

शारीरिक एवं मानसिक रोगों से मुक्ति चाहने वालों को योग -क्रियाओं का अभ्यास करने के साथ -साथ रोगोत्पादक सभी मूल कारणों का त्याग करना चाहिये तथा अपने लिये अनुकूल एवं चिकित्साशास्त्र द्वारा निर्दिष्ट सात्त्विक पथ्य , सदाचार एवं सत्कर्म का सेवन करना चाहिये । यथासम्भव अनिष्ट -चिन्तन से बचना चाहिये तथा चित्त को राग -द्वेष -मोहादि दोषों से दूर करना चाहिये । सम्पूर्ण दुःखों का मूल कारण तमोगुणजनित अज्ञान , लोभ , क्रोध , तथा मोह है । त्रिगुण के प्रभाव तथा अज्ञान के बन्धन से मुक्त होने का एकमात्र योग है तथा योग -बल से भी बडी शक्ति है भगवान् ‍ की अनुग्रह शक्ति ।

अतएव अहंता -ममता का त्याग करके भगवच्चरणों का एकमात्र आश्रय लेकर योगसाधना करने से शारीरिक व्यधि के साथ -साथ त्रिविध ताप एवं भवव्यधि भी कट जाती है और ऐसा साधक पूर्णतम आनन्द को प्राप्त करने में सर्वथा समर्थ हो जाता है ।

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Last Updated : March 28, 2011

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