संक्षिप्त विवरण - वैदिक एवं तान्त्रिक साधना

कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


इस विशाल भारतीय संस्कृति का विश्लेषण करने पर प्रतीत होगा कि इसके विभिन्न अंश हैं , और अङ -प्रत्यङु रुप में इसके विभिन्न विभाग हैं । इसमें सन्देह नहीं कि इसमें ‘वैदिक -साधना ’ ही प्रधान है , किन्तु इसका भी ध्यान रखना चाहिए कि भिन्न -भिन्न समयों में इस धारा में नये -नये ववर्यन हो चुके हैं । धर्मशास्त्र , नीतिशास्त्र , इतिहास -पुराणादि के आलोचन से तथा भारतीय समाज के आन्तरिक जीवन का परिचय मिलने से उपर्युक्त तथ्य का स्पष्टतया ज्ञान होगा । वैदिकधारा का प्राधान्य होने पर भी , इसमें सन्देह नहीं है कि इसमें विभिन्न धाराओं का संमिश्रण है । इन सब धाराओं के भीतर यदि व्यापक दृष्टि से देखा जाय तो ज्ञात होगा कि ‘तन्त्र की धारा ’ ही प्रथम एवं प्रधान है । इस धारा की भी बहुत से दिशाएँ हैं , जिनमे एक वैदिकधारा के अनुकूल थी । अगली पीढियों के गवेषण -गण इस तथ्य का निरुपण करेंगे कि वैदिकधारा की जो उपासना की दिशा है , वह अविभाज्य रुप से बहुत अंशों में तान्त्रिकधारा से मिलि हुई है , और बहुत से तान्त्रिक विषय अति प्राचीन समय से परम्पराक्रम से चले आ रहे थे। उपनिषद् ‌ आदि में जिन विद्याओं का परिचय मिलता है , यथा संवर्ग , उद्‌गीथ , उपकोशल , भूमा , दहर , पर्यङ्क आदि , ये सभी विद्याएँ इसी के अन्तर्गत हैं । वेद के रहस्य अंश में भी इन सब रहस्य विद्याओं के परिज्ञान का आभास मिलता है । यहाँ तक कहा जा सकता है कि वैदिक क्रिया -काण्ड भी अध्यात्म -विद्या का ही बाह्य रुप है , जो निम्न अधिकारियों के लिए उपयोगी माना जाता था । यदि इन सब अध्यात्म -विद्याओं का रहस्य -ज्ञान कभी हो जाय , तो पता चलेगा कि मूलभूत वैदिक तथा तान्त्रिक या आगामिक ज्ञानों में विशेष भेद नहीं रहा ।

वेद एवं तन्त्रों की मौलिक दृष्टि

यहाँ प्रसंगतः एक बात का उल्लेख आवश्यक है कि साधारण दृष्टि से संभव है यह समझ में न आवे , फिर भी यह सत्य है कि वेद और तन्त्र का निगूढ रुप एक ही प्रकार का है । दोनों ही अक्षरात्मक है , अर्थात् ‍ शब्दात्मक ज्ञान विशेष हैं । ये शब्द लौकिक नहीं दिव्य हैं , और अपौरुषेय हैं । मन्त्रदर्शीगण इसे ही प्राप्त कर सर्वज्ञत्व -लाभ किया करते थे ; वे अन्त में आत्मसाक्षात्कार के द्वारा अपना जीवन सफल करते थे । ‘पुराकल्प ’ में लिखा है --

यां सूक्ष्मां विद्याम् ‍ अतीन्द्रियां वाचम् ‍ ऋषयः साक्षात्कृतधर्माणः मन्त्रदृशः पश्यन्ति , ताम् ‍ असाक्षात्कृतधर्मेभ्यः प्रतिवेदयिष्यमाणा बिल्मं समामनन्ति , स्वप्रवृत्तमिव दृष्टश्रुतानुभूतम् ‍ आचिख्यासन्ते ।

निरुक्त प्रभृति ग्रन्थों के आलोचन से यह प्रतीत होता है कि ऋषिगण साक्षात्कृत -धर्मा थे और वे उन सामान्य लोगों को उपदेश द्वारा मन्त्र -दान करते थे , जो असाक्षात्कृतधर्मा थे । साक्षात्क्रृतधर्मा होने के कारण ऋषिगण वस्तुतः शक्तिशाली थे , अतः वे किसी से उपदेश -श्रवण करके ऋषित्व -लाभ नहीं करते थे ; प्रत्युत वे स्वयं वेदार्थ -दर्शन करते थे । इसी अभिप्राय से उन्हें मन्त्रद्रष्टा कहा जाता है । मन्त्रार्थ -ज्ञान का मुख्य उपाय है प्रतिभान , इसे ही प्रातिभ या अनौपदेशिकं ज्ञान कहते हैं । इसी के विषय में कहा जाता है ---

गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ।

गुरु शब्द से यहाँ अन्तर्गुरु या अन्तर्यामी समझना चाहिए । ऐसे उत्तम अधिकारियों को दृष्टर्षि भी कहा जाता है । शक्ति की मन्दता के कारण मध्यम अधिकारी इनसे अवर समझे जाते थे । इनका परिचय श्रुतर्षि नाम से मिलता है । उत्तम अधिकारी को दर्शन मिलता था उपदेश -निरपेक्ष होकर , और मध्यम अधिकारी को श्रवण -प्राप्त होता था उपदेश -सापेक्ष होकर । प्रथम ज्ञान का नाम आर्षज्ञान और द्वितीय का नाम औपदेशिक ज्ञान है । मनुसंहिता के अनुसार धर्मज्ञ वही है जो ऋषिदृष्ट वेद तथा तन्मूलक स्मृति शास्त्रों को वेदानुकूल तर्क से विचारता है ---

आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्रविरोधिना ।

यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतरः ॥ मनु० १२ १०६

किन्तु साधारण अधिकारी को जो ज्ञान होता है , वह सत् ‌ तर्क के द्वारा । सत्तर्क से अभिप्रेत है वेद शास्त्र के अविरोधी तर्क के द्वारा अनुसंधान । आगम शास्त्र (त्रि० र० तथा त्रिकदार्शनिक साहित्य ) में सत्तर्क का विशेष रुप से मण्डन किया गया है । वैदिक साहित्य में भी यह लिखित मिलता है । ऋषिगण जब अन्तर्हित होने लगे तो तर्क पर ही ज्ञान का भार दिया गया । सभी साधारण जिज्ञासु लोग अवर -कोटि में है , हम सभी इसी कोटि के है । इस प्रकार के लिए सत्तर्क ही अवलम्बनीय है ।

आगम

तन्त्र शास्त्रों के अनुसार तन्त्र का मूल आधार कोई पुस्तक नहीं है , वह अपौरुषेय ज्ञान विशेष है । ऐसे ज्ञान का नाम ही ‘आगम ’ है । यह ज्ञानात्मक आगम शब्दरुप में अवतरित होता है । तन्त्र -मत में परा -वाक् ‍ ही अखण्ड आगम है । पश्यन्ति अवस्था में यह स्वयं वेद्य रुप में प्रकाशित होता है और अपना प्रकाश अपने साथ रखता है । यही साक्षात्कार की अवस्था है , यहाँ द्वितीय या अपर में ज्ञान -संचार करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । वही ज्ञान मध्यमा वाक् ‍ में अवतीर्ण होकर ‘शब्द ’ का आकार धारण करता हैं और यह शब्द चित्तात्मक है । इसी भूमि में गुरु -शिष्य भाव का उदय होता है । फलतः ज्ञान एक आधार से अपर आधार में संचारित होता है । विभिन्न शास्त्रों एवं गुरु -परस्पराओं का प्राकट्य मध्यमा -भूमि में ही होता है । वैखरी में वह ज्ञान या शब्द जब स्थूल रुप धारण करता है , तब वह दूसरों के इन्द्रिय का विषय बनता है ।

उपर्युक्त संक्षित्प विवेचन से प्रतीत होगा कि वेद और तन्त्रों की मौलिक दृष्टि एक ही है यद्यपि वेद एक है किन्तु विभक्त होकर यह त्रयी या चतुर्विध होता है , अन्ततः वह अनन्त है। ‘वेदा अनन्ताः ’ यह भी वेद की ही वाणी है । आगमों की स्थिति भी ठीक इसी प्रकार की हैं । अवश्य ही तन्त्र की एक और भी दिशा है जिससे उसका वैदिक आदर्शो से किसी अंश में पार्थक्य प्रतीत होता है , और उस कारण से तान्त्रिक साधना का वैशिष्ट्य भी समझ में आता हैं । कुछ भी हो , ये सभी मिल कर भारतीय संस्कृति के अंगीभूत हो चुके है । जैसे बृहत् ‍ जलधारायें मिलकर नदी का रुप धारण करती है , और अन्त में महासमुद्र में विलीन हो जाती हैं ; वैसे ही वैदिक तान्त्रिक आदि अन्यान्य सांस्कृतिक -धारायें भारतीय संस्कृति में आश्रय -लाभ करती हैं और उसे विशाल से विशालत बनाती हैं ।

N/A

References : N/A
Last Updated : March 28, 2011

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP