संक्षिप्त विवरण - स्वर-विज्ञान

कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


विश्वपिता विधाता ने मनुष्य के जन्म के समय में ही देह साथ एक ऐसा आश्चर्यजनक कौशलपूर्ण अपूर्व उपाय रच दिया है , जिसे जान लेने पर सांसारिक , वैषायिक किसी भी कार्य में असफलता का दुःख नहीं हो सकता । हम इस अपूर्व कौशल को नहीं जानते । इसी कारण हमारा कार्य असफल हो जाता है , आशा भङु हो जाती है । हमें मनस्ताप और रोग भोगना पडता है । यह विषय जिस शास्त्र में है , उसे स्वरोदयशास्त्र कहते है
यह स्वरशास्त्र जैसा दुर्लभ है , स्वरज्ञ गुरु का भी उतना ही अभाव है । स्वरशास्त्र प्रत्यक्ष फल देने वाला है । मुझे पद -पद पर इसका प्रत्यक्ष फल देखकर आश्चर्यचकित होना पडा है । समग्र स्वरशास्त्र को ठीक -ठीक लिपिबद्ध करना बिलकुल असम्भव है । केवल साधकों के काम की कुछ बातें यहाँ संक्षेप में दी जा रही हैं ।

स्वरशास्त्र सीखने के लिये श्वास -प्रश्वास की गति के सम्बन्ध में सम्यक् ‍ ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है ।

कायानगरमध्ये तु मारुतः क्षितिपालकः ।

‘ देहरुपी नगर में वायु राजा के समान है । ’ प्राणवायु ‘ निःश्वास ’ और ‘ प्रश्वास ’-- इन दो नामों से पुकारा जाता है । वायु ग्रहण करने का नाम निःश्वास ’ और वायु के परित्याग करने का नाम ‘ प्रश्वास ’ है । जीव के जन्म से मृत्यु के अन्तिम क्षण तक निरन्तर श्वास - प्रश्वास की क्रिया होती रहती है । यह निःश्वास नासिका दे दोनों छेदों से एक ही समय एक साथ समानरुप से नहीं चला करता । कभी बायें और कभी दाहिने पुत से चलता है । कभी - कभी एकाध घडी तक एक ही समय दोनों नाकों से समानभाव से श्वास प्रवाहित होता है ।

बायें नासापुट के श्वास को इडा में चलना , दाहिना नासिका के श्वास को पिंगला में चलना और दोनों पुटोम से एक समान चलने पर उसे सुषुम्नो में चलना कहते है । एक नासापुट को दबाकर दूसरे द्वारा श्वास को बाहर निकालने पर यह साफ मालूम हो जाता है कि एक नासिका से सरलतापूर्वक श्वास -प्रवाह चल रहा है और दूसरा नासापुट मानो बन्द है , अर्थात् ‍ उससे दूसरी नासिका की तरह सरलतापूर्वक श्वास बाहर नहीं निकलता । जिस नासिका से सरलतापूर्वक श्वास बाहर निकलता हो , उस समय उसी नासिका का श्वास कहना चाहिये । किस नासिका से श्वास बाहर निकल रहा है , इतको पाठक उपर्युक्त प्रकार से समझ सकते है । क्रमशः अभ्यास होने पर बहुत आसानी से मालूम होने लगता है कि किस नासिका से निःश्वास प्रवाहित होत है । प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्योदय के समय से ढाई -ढाई घडी के हिसाब से एक -एक नासिका से श्वास चलता है । इस प्रकार रात -दिन में बारह बार बायीं और बारह बार दाहिनी नासिका से क्रमानुसार श्वास चलता है । किस दिन किस नासिका से पहले श्वास -क्रिया होती है , इसका एक निर्दिष्ट नियम है । यथा --

आदौ चन्द्रः सिते पक्षे भास्करस्तु सितेतरे ।

प्रतिपत्तो दिनान्याहुस्त्रिणि त्रीणि क्रमोदये ॥ (पवनविजयस्वरोदय )

शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि तीन -तीन दिन की बारी से चन्द्र अर्थात् ‍ बायीं नासिका से तथा कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि से तीन -तीन दिन की बारी से सूर्यनाडी अर्थात् ‍ दाहिनी नासिका से पहले श्वास प्रवाहित होता है । अर्थात् ‍ शुक्लपक्ष की प्रतिपदा , द्वितीया , तृतीया , सप्तमी , अष्टमी , नवमी , त्रयोदशी , चतुर्दशी , पूर्णिमा -इन नौ दिनों में प्रातःकाल सूर्योदय के समय पहले बायीं नासिका से तथा चतुर्थी , पञ्चमी , षष्ठी , दशमी , एकादशी , द्वादशी -इन छः दिनों को प्रातःकाल पहले दाहिनी नासिका से श्वास चलना आरम्भ होता है और वह ढाई घडो तक रहता है । उसके बाद दूसरी नासिका से श्वास जारी होता है । कृष्णपक्ष की प्रतिपदा , द्वितीया , तृतीया , सप्तमी , अष्टमी , नवमी , त्रयोदशी , चतुर्दशी , अमावास्या -इन नौ दिनों में सूर्योदय के समय पहले दाहिनी नासिका से तथा चतुर्थी , पञ्चमी , षष्ठी , दशमी , एकादशी , द्वादशी -इन छः दिनों में सूर्य के उदयकाल में पहले बायीं नासिका से श्वास आरम्भ होता है और ढाई घडी के बाद दूसरी नासिका से चलता है । इस प्रकार नियमपूर्वक ढाई -ढाई घडी तक एक -एक नासिका से श्वास चलता है । यही मनुष्य -जीवन में श्वास की गति का स्वाभविक नियम है ।

वहेत्तावद् ‍ घटीमध्ये पञ्चतत्त्वानि निर्दिशेत् ‍ । (स्वरशास्त्र )

प्रतिदिन रात -दिन की ६० घडियों में ढाई -ढाई घडी के हिसाब से एक -एक नासिका से निर्दिष्ट क्रम से श्वास चलने के समय क्रमशः पञ्चतत्त्वों का उदय होता है । इस श्वास -प्रश्वास की गति को समझकर कार्य करने पर शरीर स्वस्थ रहता है और मनुष्य दीर्घजीवी होता है , फलस्वरुप सांसारिक , वैषयिक -सब कार्यो में सफलता मिलने के कारण सुखपूर्वक संसार -यात्रा पूरी होती है ।

वाम नासिका (इडा नाडी ) खाआ श्वासफल

जिस समय इडा नाडी से अर्थात् ‍ बायीं नासिका से श्वास चलता हो , उस समय स्थिर कर्मो को करना चाहिये । जैसे - अलंकारधारण , दूर की यात्रा , आश्रम में प्रवेश , राजमन्दिर तथा महल बनाना एवं द्रव्यादि का ग्रहण करना । तालाब कुआँ आदि जलाशय तथा देवस्तम्भ आदि की प्रतिष्ठा करना । इसी समय यात्रा , दान , विवाह , नया कपडा पहनना , शान्तिकर्म , पौष्टिक कर्म , दिव्यौषर्धसेवन , रसायनकार्य , प्रभुदर्शन , मित्रतास्थापन एवं बाहर जाना आदि शुभ कार्य करना चाहिये । बायीं नाक से श्वास चलने के समय शुभ कार्य पर उन सब कार्यो में सिद्धि मिलती है । परंतु वायु , अग्नि और आकाश तत्त्व के उदय के समय उक्त कार्य नहीं करना चाहिये ।

दक्षिण नासिका (पिङुला नाडी ) का श्वासफल

जिस समय पिंगला नाडी अर्थात् ‍ दाहिनी नाक से श्वास चलता हो , उस समय कठिन कर्म करना चाहिये । जैसे ---कठिन क्रूर विद्या का अध्ययन और अध्यापन ,स्त्रेसंसर्ग , नौकदि आरोहण तान्त्रिकमतानुसार वीरमन्त्रदिसम्मत उपासना ,वैरी को दण्ड , शस्त्राभ्यास , गमन , पशुविक्रय , ईट , पत्थर , काठ तथा रत्नादि का घिसना और छीलना , संगीत अभ्यास , यन्त्र -तन्त्र बनाना , किले और पहाड पर चढना हाथी -घोडा तथा रथा आदि की सवारी सीखना व्यायाम षट्‌कर्मसाधन , यक्षिणी -बेताल , तथा भूतदिसाधन , औषध , सेवन , लिपि -लेखन ,दान ,क्रय -विक्रय , युद्ध , भोग , राजदर्शन , स्नानापार आदि।

दोनों नासिका (सुषुम्ना नाडी ) का श्वासफल

दोनों नासा छिद्रों से श्वास चलने के समय किसी प्रकार का शुभ या अशुभ कार्य नहीं करना चाहिये । उस समय कोई भी काम करने से वह निष्फल होगा । उस समय योगाभ्यास और ध्यानधारणादि के द्वारा केवल भगवान् ‍ को स्मरण करना उचित है । सुषुम्ना नाडी से श्वास चलने के समय किसी को भी शाप या वरप्रदान करने पर वह सफल होता नहीं है ।

इस प्रकार श्वास -प्रश्वास की गति जानकर , जत्त्वज्ञान के अनुसार , तिथि -नक्षत्र के अनुसार , ठीक -ठोक नियमपूर्वक सब कर्मो को करने पर आशाभङुजनित मनस्ताप आदि नहीं भोगना पडता ।

रोगोत्पत्ति का पूर्ण ज्ञान और उसका प्रतीकार

प्रतिपदा आदि तिथियों को यदि निश्चित नियम के विरुद्ध श्वास चले तो समझना चाहिये कि निस्संदेह कुछ अमङुल होगा । जैसे ,

१ . शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को सबेरे नींद टूटने पर सूर्योदय के समय पहले यदि दाहिनीं नाक से श्वास चलना आरम्भ हो तो उस दिन से पूर्णिमा तक के बीज गर्मी के कारण शरीर में कोई पीडा होगी और

२ . कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि को सूर्योदय के समय पहले बायीं नाक से श्वास चलना आरम्भ हो तो उस दिन से अमावस्या तक के अंदर कफ या सर्दि के कारण कोई पीडा होगी , इसमें संदेह नहीं ।

दो पखवाडों तक इसी प्रकार विपरीत ढंग से सूर्योदय के समय निःश्वास चलता रहे तो किसी आत्मीय स्वजन को भारी बीमारी होगी अथवा मृत्यु होगी या और किसी प्रकार की विपत्ति आयेगी । तीन पखवाडों से ऊपर लगातार गडबड होने पर निश्चय ही अपनी मृत्यु हो जायेगी ।

प्रतीकार --- शुक्ल अथवा कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल यदि इस प्रकार विपरीत ढंग से निःश्वास चलने का पता लग जाय तो उस नासिका को कई दिनों तक बंद रखने से रोग उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं रहती । उस नासिका को इस तरह बंद रखना चाहिये , जिसमें उससे निःश्वास न चले । इस प्रकार कुछ दिनों तक दिन -रात निरन्तर (स्नान और भोजन का समय छोडकर ) नाक बंद रखने से उक्त तिथियों के भीतर बिलकुल ही कोई रोग नहीं होगा ।

यदि असावधानी के कारण निःश्वास में गडबडी हो और कोई रोग उत्प्न्न हो जाय तो जब तक रोग दूर न हो जाय , तब तक ऐसा करना चाहिये कि जिससे शुक्लपक्ष में दाहिनी और कृष्णपक्ष में बायीं नासिका से श्वास न चले । ऐसा करने से रोग शीघ्र दूर हो जायगा और यदि कोई भारी रोग होने की सम्भावना होगी तो वह भारी न होकर बहुत सामान्य रुप में होगा और फिर थोडे ही दिनों में दूर हो जायगा । ऐसा करने से न तो रोगजनित कष्ट भोगना पडेगा और न चिकित्सक को धन ही देना पडेगा ।

नासिका बन्द करने का नियम

नाक के छेद में घुस सके इतनी -सी पुरानी रुई लेकर उसकी गोल पोटली -सी बना ले और उसे साफ बारीक कपडे से लपेटकर सी ले । फिर इस पोटली को नाक के छिद्र में घुसाकर छिद्र को इस प्रकार बन्द कर दे जिसमें उस नाम से श्वास -प्रश्वास का कार्य बिल्कुल ही न हों । जिन लोगों को कोई शिरो रोग है अथवा जिनका मस्तक दुर्बल हो , उन्हें रुई से नाक बंद न कर , सिर्फ साफ पतले कपडे की पोटली बनाकर उसी से नाक बंद करनी चाहिये ।

किसी भी कारण से हो , जितने क्षण या जितने दिन नासिका बंद रखने की आवश्यकता हो उतने क्षण या उतने दिनों तक अधिक अरिश्रम का कार्य , धूम्रपान , जोर से चिल्लाना , दौडना आदि नहीं करना चाहिये । जब जिस -किसी कारण से नाक बन्द रखने की आवश्यकता हो , तभी इन नियमों का पालन अवश्य करना चाहिये । नयी अथवा बिना साफ की हुई मैली रुई नाक में कभी नहीं डालनी चाहिये ।

निःश्वास बदलने की विधि

कार्यभेद से तथा अन्यान्य अनेक कारणों से एक नासिका से दूसरी नासिका में वायु की गति बदलने की भी आवश्यकता हुआ करती है । कार्य के अनुकूल नासिका से श्वास चलना आरम्भ होने तक , उस कार्य को न करके चुपचाप बैठे रहना किसी के लिये भी सम्भव नहीं । अतएव अपनी इच्छानुसार श्वास की गति बदलने की क्रिया सीख लेना नितान्त आवश्यक है । इसकी क्रिया अत्य्न्त सहज है , सामान्य चेष्टा से ही श्वास की गति बदली जा सकती है ।

१ . जिस नासिका से श्वास चलता हो , उसके विपरीत दूसरी नासिका को अँगूठे से दबा देना चाहिये और जिससे श्वास चलता हो उसके द्वारा वायु खींचना चाहिये । फिर उसको दबाकर दूसरी नासिका से वायु को निकालना चाहिये । कुछ देर तक इसी तरह एक से श्वास लेकर दूसरी से निकालते रहने से अवश्य श्वास की गति बदल जायगी ।

२ . जिस नासिका से श्वास चलता हो उसी करवट सोकर यह क्रिया करने से बहुत जल्द श्वास की गति बदल जाती है और दूसरी नासिका में श्वास प्रवाहित होने लगता है । इस क्रिया के बिना भी जिस नाक से श्वास चलता है , केवल उस करवट कुछ समय तक सोये रहने से भी श्वास की गति पलट जाती है ।

इस प्रकार जो अपनी इच्छानुसार वायु को रोक सकता है और निकाल सकता है वही पवन पर विजय प्राप्त करता है ।

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Last Updated : March 28, 2011

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