संक्षिप्त विवरण - हठयोग के षट्‌कर्म

कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


रुद्रयामल के चौंतीसर्वें और पैंतीसवें पटल में नेती , दन्ती , धौती , नेऊली और क्षालन -इन पञ्च स्वर योगों को कहा गया है । हठयोग प्रदीपिका में इन्हीं का विस्तार हैं । अतः उन्हें वहीं से लेकर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है ।

इस परिदृश्यमान चराचर विश्व प्रपञ्च का उपादान कारण प्रकृति है । मूल प्रकृति त्रिगुणात्मक होने से प्राणिमात्र के शरीर वात , पित्त , कफ ---इन त्रिधातुओं के नाना प्रकार के रुपान्तरों के सम्मिश्रण हैं । अतः अनेक शरीर वातप्रधान , अनेक पित्तप्रधान और अनेक कफप्रधान होते हैं । वातप्रधान शरीरों में आहार -विहार के दोष से तथा देश -कालादि हेतु से प्रायः वातवृद्धि हो जाती है । पित्तप्रधान शरीरों में पित्तविकृति और कफोल्वण शरीरों में प्रायः कफ -प्रकोप हो जाता है । कफ -धातु के विकृत होन पर दूषित श्लेष्म , आमवृद्धि या मेद का संग्रह हो जाता है । पश्चात् ‍ इन मलों के प्रकुपित होन से नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होने लगते हैं । इन व्याधियों को उत्पन्न न होने देने के लिये और यदि हो गये तो उन्हें दूर करके पुनः देह को पूर्ववत स्वस्थ बनाने के लिये जैसे आयुर्वेद के प्राचीन आचार्यो ने स्नेहपान , स्वेदन , वमन , विरेचन और वस्ति -ये पञ्चकर्म कहे हैं , वैसे ही हठयोग प्रवर्तक महर्षियों ने साधकों के कफप्रधान शरीर की शुद्धि के लिये षट्‌कर्म निश्चित किये हैं । ये षट्‌कर्म सब साधकों को करने ही चाहिये , ऐसा आग्रह नहीं है ।

हठयोग के ग्रन्थों में षट्‍कर्म के कर्तव्याकर्तव्यपर विचार किया गया है । हठयोग के षट्‌कर्म से जो लाभ होते हैं , वे लाभ प्राणायाम से भी प्राप्त होते हैं । अन्तर केवल समय का है । परन्तु जिस घर में गंदगी इतनी फैल गयी हो कि साधारण झाडू से न हटायी जा सके , उसमें कुदाल और टोकरी की आवश्यकता आ पडेगी । इसी प्रकार शरीर के एकत्रित मल को शीघ्र हटाने के लिये षट्‌कर्म की आवश्यकता है । इसी कारण ---

मेदः श्लेष्माधिकः पूर्व षट् ‌ कर्माणि समाचरेत् ‍ ।

अन्यस्तु नाचरेत्तानि दोषाणां समभावतः ॥ (हठयोगप्रदीपिका )

अर्थात् ‍ जिस पुरुष के मेद और श्लेष्मा , अधिक हों वह पुरुष प्राणायाम के पहले इन छः कर्मो को करे और इनके न होने से दोषों की समानता के कारण न करे । इतना ही नहीं , योगीन्द्र स्वात्माराम कारण न करे । इतनी ही नहीं , योगीन्द्र स्वात्माराम आगे चलकर षट्‌कर्मो को ‘घटशोधनकारकम् ‌’ अर्थात् ‍ देह को शुद्ध करने वाले और ‘विचित्रगुणसंधायि ’ अर्थात् ‍ विचित्र गुणों का संधान करने वाले भी कहते हैं ।

यह बात सत्य है कि षट्‌कर्मो के बिना ही पहले योगसाधन किया जाता था । समय और अनुभव ने दिखाया कि प्राणायाम से जितने समय में मल दूर किया जाता था , उसमें कम समय में षट्‌कर्मों द्वारा मल दूर किया जा सकता है । इन कर्मो की उन्नति होती गयी और छः से ये कर्म दस हो गये । पीछे गुरुस्परम्परा से प्राप्त गुप्तविद्या लुप्त होने लगीं । तब यो ये कर्म पूरे हुए षट्‌कर्म तक ही परिमित रह गये । इन षट्‌कर्मो से लाभ है , इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता । यह बात दूसरी है कि सबकी इधर प्रवृत्ति न हो और सब इन्हें न कर सकते हों ।

एक बात और है । वर्तमान समय में अनेक योगाभ्यासी मूल उद्देश्य को न समझने के कारण शरीर में त्रिधातु सम होने पर भी नित्य षट्‌कर्म करते रहते हैं और अपने शिष्यों को भी जीवनपर्यन्त नियमित रिति से करते रहने का उपदेश देते हैं । यदि शरीरशुद्धि के लिये अथवा इन क्रियाओं पर अपना अधिकार रखने के लिये प्रारम्भ में सिखाया जाय तो कोई आपत्ति नहीं । कारण , भविष्य में कदाचित् ‍ देश -कालपरिवर्तन , प्रमाद या आहार -विहार में भूल से वातादि धातु विकृत हो जायँ तो शीघ्र क्रिया द्वारा उनका शमन किया जा सकता है । परंतु आवश्यकता न होने पर भी नित्य करते रहने से समय का अपव्यय , शारीरिक निर्बलता और मानसिक प्रगति में शिथिलता आ जाती है ।

षट्‍कर्म के नाम --- ‘हठयोगप्रदीपिका ’ ग्रन्थ के कर्ता स्वात्माराम योगी ने १ . धौति , २ . वस्ति , ३ . नेति , ४ .नैलि , ५ .कपालभाति और ६ .त्राटक को षट्‌कर्म कहा है । आगे चलकर गजकरणी का भी वर्णन किया है । परन्तु हिन्दी में ‘भक्तिसागर ’ ग्रन्थ के रचयिता चरणदास ने १ .नेति , २ .धौति , ३ .वस्ति , ४ .गजकर्म , ५न्योली और ६ .त्राटक को षट्‌कर्म कहा है । फिर १ . कपालभाति , २ . र्धौकनी , ३ . बाघी और ४ . शंखपषाल -इन चार कर्मो का नाम लेकर उन्हें षट्‌कर्मो के अन्तर्गत कर दिया है । दोनों में गजकर्म और कपालभाति को षट्‌कर्म के अंदर रखने में अन्तर पडता है । चूँकि ये षट्‌कर्म के शाखमात्र है अतएव इस विभेद क कोई वास्तविक अर्थ नहीं होता ।

षट्‌कर्म में नियम --- षट्‌कर्म -साधक को हठयोग में दर्शाये हुए स्थान , भोजन , आचार -विचार आदि नियमों को मानना परमावश्यक है । यहाँ यही कहा जा सकता है कि स्थान रमणीक और निरापद , भोजन सात्त्विक तथा परिमित होना चाहिये । एकान्तसेवन , कम बोलना , वैराग्य , साहस , इत्यादि वातें आचार -विचार से समझनी चाहिये ।

१ . नौलि (=नौलिक , नलक्रिया या न्योली )

अमन्दावर्त्तवेगेन तुन्दं सव्यापसव्यतः ।

नतांसो भ्रामयेदेषा नौलिः सिद्धैः प्रचक्ष्यते ॥ (हठयोगप्रदीपिका )

अर्थात् ‍ कन्धों को नवाये हुए अत्यन्त वेग के साथ , जलभ्रमर के समान अपनी तुन्द को दक्षिण -वाम भागों से भ्रमाने को सिद्धों ने नौलि -कर्म कहा है ।

पद्‌मासन (सिद्धासन या उत्कटासन ) लगाकर , जब शौच , स्नान , प्रातःसन्ध्या आदि से निवृत्त हो लिये हों और पेट साफ तथा हल्का हो गया हो , तब रेचक कर वायु को बाहर रोककर बिना देह हिलाये , केवल मनोबल से पेट को दायें से बायें और बायें से दायें चलाना सोचे और तदनुकूल प्रयास करे । इसी प्रकार सायं -प्रातः स्वेद आने पर्यन्त प्रतिदिन अभ्यास करते -करते पेंट की स्थूलता जाती रहती है । तदनन्तर यह सोचना चाहिये कि दोनों कुक्षियाँ दब गयीं और बीच में दोनों रहती है । तदनन्तर यह सोचना चाहिये कि दोनों कुक्षियाँ दब गयीं और बीच में दोनों ओर से दो नल जुटकर मूलाधार से ह्रदय तक गोलाकार खम्भ खडा हो गया । यही खम्भा जब बँध जाय तब नौलि सुगम हो जाती है । मनोबल और प्रयासपूर्वक अभ्यास बढाने से दायें -बायें घूमने लगती हैं । इसी को चलाने में छाती के समीप , कण्ठ पर और ललाट पर भी नाडियों का द्वन्द्व मालूम पडता है । एक बार न्योली चल जाने पर चलती रहती है । पहले -पहले चलने के समय दस्त ढीला होता है । जिसका पेट हल्का है तथा जो प्रयासपूर्वक अभ्यास करता है उसको एक महीने के भीतर ही न्योली सिद्ध हो जायगी ।

इस क्रिया का आरम्भ करने से पहले पश्चिमोत्तानासन और मयूरासन का थोडा अभ्यास कर लिया हो तो यह क्रिया शीध्र सिद्ध हो जाती है । जब तक आँत पीठ के अवयवों से भलीभाँति पृथक् ‍ न हो तब तक उठाने की क्रिया सावधानी के साथ करे , अन्यथा आँते निर्बल हो जायँगी । किसी -किसी समय आघात पहुँचकर उदर रोग , शोथ , आमवात , कटिवात , गृध्रसी , कुब्जवात , शुक्रदोष या अन्य कोई रोग हो जाता है । अतः इस क्रिया को शान्तिपूर्वक करना चाहिये । अँतडी में शोथ , क्षतादि दोष या पित्तप्रकोपजनित अतिसारप्रवाहिका (पेचिश ), संग्रहणी आदि रोगों में नौलि -क्रिया हानिकारक है ।

मन्दाग्निसंदीपनपाचनादि संधापिकानन्दकरी सदैव ।

अशेषदोषामयशोषणी च हठक्रियामौलिरियं च नौलिः ॥

( हठयोगप्रदीपिका )

यह नौलि मन्दग्नि का भली प्रकार दीपन और अन्नादि का पाचन और सर्वदा आनन्द करती है तथा समस्त वात आदि दोष और रोग का शोषण करती है । यह नौली हठयोग की सारी क्रियाओं में उत्तम है ।

अँतडियो के नौलि के वश होने से पाचन और मल का बाहर होना स्वाभाविक नौलि करते समय साँस की क्रिया तो रुक ही जाती है । नौलि कर चुकने पर कण्ठ के समीप एक सुन्दर अकथनीय स्वाद मिलता है । यह हठयोग की सारी क्रियाओं से श्रेष्ठ इसलिये है कि नौलि जान जाने पर तीनों बन्ध सुगम हो जाते हैं । अतएव यह प्राणायाम की सीढी है । धौति , वस्ति में भी नौलि की आवश्यकता होती है । शंखपषाली क्रिया में भी , जिसमें मुख से जल ले अँतडियों में घुमाते हुए पायु -द्वारा ठीक उसी प्रकार निकाल दिया जाता हैं जैसे शंख में एक ओर से जल देनें पर घूमकर जल दूसरी राह से निकल जाता है , नौलि सहायक है ।

२ . वस्तिकर्म ---

वस्ति मूलाधार के समीप है । रंग लाल है और इसके देवता गणेश हैं । वस्ति को साफ करने वाले कर्म को ‘वस्तिकर्म ’ कहते हैं । ‘योगसार ’ पुस्तक में पुराने गुड , त्रिफला और चीते की छाल के रस से बनी गोली देकर अपानवायु को वश में करने को कहा हैं । फिर वस्तिकर्म का अभ्यास करना कहा है ।

वस्तिकर्म दो प्रकार का है । १ . पवनवस्ति , २ . जलवस्ति । नौलिकर्म द्वारा अपानवायु को ऊपर खींच पुनः मयूरासन से त्यागने को ‘वस्तिकर्म ’ कहते हैं । पवनवस्ति पूरी सध जाने पर जलवस्ति सुगम हो जाती है , क्योंकि जल को खींचने का कारण पवन ही होता है । जब जल में डूबे हुए पेट से न्योली जाय तब नौलि से जल ऊपर खिंच जायगा ।

नाभिदघ्नजले पायौ न्यस्तनालोत्कटासनः ।

आधाराकुञ्चनं कुर्यात् ‍ क्षालनं वस्तिकर्म तत् ‍ ॥ (हठयोगप्रदीपिका )

अर्थात् ‍ गुदा के मध्य में छः अंगुल लम्बी बाँस की नली को रखे , जिसका छिद्र कनिष्ठिका अँगुली के प्रवेश योग्य हो , उसे घी अथवा तेल लगाकर सावधानी के साथ चार अंगुल गुदा में प्रवेश करे और दो अंगुल बाहर रखे । पश्चात् ‍ बैठने पर नाभि तक जल आ जाय , इतने जल से भरे हुए टब मे उत्कटासन से बैठे अर्थात् ‍ दोनों पार्ष्णियों (पैर की एडियों ) को मिलाकर खडी रखकर उन पर अपने स्फिच (नितम्बों ) को रखे और पैरों के अग्रभाग पर बैठे और उक्त आसन से बैठकर आधारकुञ्चन करे जिसमे बृहद् ‍ अन्त्र मे अपने -आप जल चढने लगेगा । बाद में भीतर प्रविष्ट हुए जल को नौलि क्रम से चला कर त्याग दे । इस जल के साथ अन्त्रस्थित मल , आँव , कृमि , अन्त्रोत्पन्न सेन्द्रियविष आदि बाहर निकल आते हैं । इस उदर के क्षालन (धोने ) को वस्तिकर्म कहते है ।

नियम --- धौति , वस्ति दोनों कर्म भोजन से पूर्व ही करने चाहिये और इनके करने के अनन्तर हलका भोजन शीघ्र कर लेना चाहिये , उसमें विलम्ब नहीं करना चाहिये । वस्तिक्रिया करने से जल का कुछ अंश बृहद् ‍ अन्त्र में शेष रह जाता है , वह धीरे -धीरे मूत्राद्वार बाहर आयेगा । यदि भोजन नहीं किया जायगा तो वह दूषित जल अन्त्रों से सम्बद्ध सूक्ष्म नाडियों द्वारा शोषित होकर रक्त में मिल जायगा । कुछ लोग पहले मूलाधार से प्राणवायु के आकर्षण का अभ्यास करके और जल में स्थित होकर गुदा में नालप्रवेश के बिना ही वस्तिकर्म का अभ्यास करते हैं । उस प्रकार वस्तिकर्म करने से उदर में प्रविष्ट हुआ सम्पूर्ण जल बाहर नहीं आ सकता और उसके न आने से धातुक्षय आदि नाना दोष होते हैं । इससे उस प्रकार वस्तिकर्म नहीं करना चाहिये , अन्यथा ‘न्यस्तनालः ’ (अप्नी गुदा में नाल रखकर ) ऐसा पद स्वात्माराम क्यों देते ? यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि छोटे -छोटे जलजन्तुओं का नलद्वारा पेट में प्रविष्ट हो जाने का भय रहता है । अतएव नल के मुख पर महीन वस्त्र देकर करना चाहिये ।

वस्तिकर्म में मूलाधार के पीडित और प्रक्षालित होने से लिङु और गुदो के रोगों का नाश होना स्वाभाविक है ।

गुल्मप्लीहोदरं चापि वातपित्तकफोद‌भवाः ।

वस्तिकर्मप्रभावेन क्षीयन्ते सकलामयाः ॥ (हठयोगप्रदीपिका )

अर्थात वस्तिकर्म के प्रभाव से गुल्म , प्लीहा ,उदर (जलोदर )और वात , पित्त , कफ , इनके द्वन्द्व वा एक से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण रोग नष्ट होते हैं ।

धात्विन्दियान्तःकरणप्रसादं दद्याच्च कान्तिं दहनप्रदीप्तिम् ‍ ।

अशेषदोषोपचयं निहन्यादभ्यस्यमानं जलवस्तिकर्म ॥ (हठयोगप्रदीपिका )

अभ्यास किया हुआ यह वस्तिकर्म साधक के सप्त धातुओं , द्स इन्द्रियों और अन्तःकरण को प्रसन्न करता है । मुख्ज पर सात्त्विक कान्ति छा जाती है । जठराग्नि उद्दीप्त होती है । वात , पित्त , कफ , आदि दोषों की वृद्धि और न्यूनता दोनों को नष्ट कर साधक साम्यरुप आरोग्यता को प्राप्त करता है । एक बात इस सम्बन्ध में अवश्य ध्यान देने की है कि वस्ति क्रिया करनेवालों को पहले नेति और धौतिक्रिया करनी ही चाहिये , जिसका वर्णन नीचे दिया जाता है । अन्य क्रियाओं के लिये ऐसा नियम नहीं है ।

राजयक्ष्मा (क्षय ), संग्रहणी , प्रवाहिका , अधोरक्तपित्त , भगंदर , मलाशय और गुदा में शोथ , संततज्वर , आन्त्रसंनिपात , आन्त्रशोथ , आन्त्रव्रण एवं कफवृद्धि जनित तीक्ष्ण श्वासप्रकोप इत्यादि रोगों में वस्तिक्रिया नहीं करनी चाहिये ।

यह वस्तिक्रिया भी प्राणायाम का अभ्यास चालू होने के बाद नित्य करने की नहीं है । नित्य करने से आन्त्रशक्ति परावलम्बिनी और निर्बल हो जायगी , जिससे बिना वस्तिक्रिया के भविष्य में मलशुद्धि नहीं होगी । जैसे तम्बाकू और चाय के व्यसनी को तम्बाकू और चाय लिये बिना शौच नहीं होताम , वैसे नित्य वस्तिकर्म अथवा षट‌कर्म करने वाले की स्वाभाविक आन्तरिक शक्ति के बल से शरीरशुद्धि नहीं होती ।

३ . धौतिकर्म ---

चतुरङुलविस्तारं हस्तपञ्चदशायतम् ‍ ।

गुरुपदिष्टमार्गेण सिक्त्म वस्त्रं शनैर्ग्रसेत् ‍ ॥
पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं धौतिकर्म तत् ‍ ॥
(हठयोगप्रदीपिका )

अर्थात् ‍ चार अंगुल चौडे और पंद्रह हाथ लंबे महीन वस्त्र को गरम जल में भिगोकर थोडा निचोड ले। फिर गुरुपदिष्टे मार्ग से धीरे -धीरे प्रतिदिन एक -एक हाथ का अभ्यास हो सकता है । करीब एक हाथ कपडा बाहर रहने दिया जाय । मुख में जो वस्त्र प्रान्त रहे उसे दाढो से भली प्रकार दबा नौलिकर्म करे । फिर धीरे -धीरे वस्त्र निकाले । यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि वस्त्र निगलने के पहले पूरा जल पी लेना चाहिये । इससे कपडे के निगलने में सुभीता तथा कफ -पित्त का उसमें सटना आसान हो जाता है कपडे को बाहर निकलने में भी सहायता मिलती है । धौति को रोज स्वच्छ रखना चाहिये । अन्यथा धौति में लगे हुए दूषित कफरुप विजातीय द्रव्य के परमाणु पुनः दूसरे दिन भीतर जाकर हानि पहुँचायेंगे ।

पाश्चात्यों ने स्टमक ट्यूब बनाया है । कोई एक सवा हाथ की रबर के नली रहती है , जिसका एक मुख खुला रहता है और दूसरे सिरे के कुछ ऊपर हटकर बगल में एक छेद होता है । जल पीकर खुला सिरा ऊपर रखकर दूसरा सिरा निगला जाता है और जल रबर की नलिका द्वारा गिर जाता है ।

चाहे किसी प्रकार की धौति क्यों न हो , उससे , कफ , पित्त और रंग -बिरंगे पदार्थ बाहर गिरते है । ऊपर की नाडी में रहा हुआ एकाध अन्न का दाना भी गिरता है । दाँत खट्टा -सा जाता है । परंतु मन शान्त और प्रसन्न हो जाता है । वसन्त या ग्रीष्मकाल में इसका साधन अच्छा होता है ।

घटिका , कण्ठनलिका या श्वासनलिका में शोथ , शुष्क , काश , हिक्का , वमन , आमाशय में शोथ , ग्रहणी , तीक्ष्ण अतिसार , ऊर्ध्व रक्तिपित्त (मुँह से रक्त गिरना ) इत्यादि कोई रोग हो तब धौतिक्रिया लाभदायक नहीं होती ।

४ .नेतिकर्म ---

नेति दो प्रकार की होती है - जलनेति और सूत्रनेति । पहले जलनेति करनी चाहिये । प्रातःकाल दन्तधावन के पश्चात् ‍ जो साँस चलते हो , उसी से चुल्लू में जल ले और दूसरी साँस बंदकर जल नाक द्वारा खींचे । जल मुख में चला जायगा । सिर के पिछले सारे हिस्से मे , जहाँ मस्तिष्क का स्थान हैं , उस कर्म के प्रभाव से गुदगुदाहट और सनसनाहट या गिनगिनाहट पैदा होगी । अभ्यास बढने पर आगे ऐसा नहीं होगा । कुछ लोग नासिका के एक छिद्र से जल खींचकर दूसरे छिद्र से निकालने की क्रिया को ‘जलनेति ’ कहते हैं । एक समय में आध सेर से एक सेर तक जल एक नासापुट से चढाकर दूसरे नासापुट से निकाला जा सकता है एक समय एक तरफ से जल चढा कर दूसरे समय दूसरी तरफ से चढाना चाहिये ।

जलनेति से नेत्रज्योति बलवान होती है । स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों के लिये भी हितकर है । तीक्ष्ण नेत्ररोग , तीक्ष्ण अम्लपित्त और नये ज्वर में जलनेति नहीं करनी चाहिये । अनेक मनुष्य रोज सुबह नासापुट से जल पीते है । यह क्रिया हितकर नहीं है । कारण , जो दोष नासिका में संचित होंगे वे आमाशय में चले जायँगे । अतः उषःपान तो मुँह से ही करना चाहिये ।

नियम - घर्षणनेति --- जलनेति के अनन्तर सूत्र लेना चाहिये । महीन सूत की दस -पन्द्रह तार की एक हाथ लंबी बिना बटी डोर , जिसका छःसात इंच लम्बा इक प्रान्त बटकर क्रमशः पतला बना दिया गया हो , पिघले हुए मोम से चिकना बनाकर जल में भिगो लेना उचित है । फिर इस स्निग्ध भाग को इस रीति से थोडा मोडकर जिस छिद्र से वायु चलती हो उस छिद्र में लगाकर और नाक का दूसरा छेद अँगुली से बन्दकर , खूब जोर से बारंबार पूरक करने से सूत का भाग मुख में आ जाता है । तब उसे तर्जनी और अङुष्ठ से पकडकर बाहर निकाले ले । पुनः नेति को धोकर दूसरे छिद्र में डालकर मुँह में से निकाल ले । कुछ दिन के अभ्यास के बाद एक हाथ से सूत को मुख से खींचकर और दूसरे से नाक वाल प्रान्त पकडकर धीरे -धीरे चालन करे । इस क्रिया को ‘घर्षणनेति ’ कहते हैं । इस प्रकार नाक के दूसरे रन्ध्र से भी , जब वायु उस रन्ध्र से चल रहा हो , अभ्यास करे । इससे भीतर लगा हुआ कफ पृथक् ‍ होकर नेति के साथ बाहर आ जाता है । नाक के एक छिद्र से दूसरे छिद्र में भी सूत चलाया जाता है , यद्यपि कुछ लोग इसे दोषयुक्त मानकर इसकी उपेक्षा करते हैं । उसका क्रम यह है कि सूत नाक के एक छिद्र से पूरक द्वारा जब खींचा जाता है , तो रेचक मुखा द्वारा न कर दूसरे रन्ध्र द्वारा करना चाहिये । इस प्रकार सूत एक छिद्र से दूसरे छिद्र में आ जाता है । इस क्रिया के करने में किसी प्रकार का भय नहीं है । सध जाने पर तीसरे दिन करना चाहिये । जलनेति प्रतिदिन कर सकते हैं । नेति डालने में किसी -किसी को छींक आने लगाती हैं , इसालिये एक -दो सेकेण्ड श्वासोच्छ्‌वास की क्रिया को बन्द करके नेति डालनी चाहिये ।

कपालशोधिनी चैव दिव्यदृष्टिप्रदायिनी ।

जत्रूर्ध्वजातरोगौघं नेतिराशु निहन्ति च ॥ (हठयोगप्रदीपिका )

‘ नेति कपाल को शुद्ध करती है , दिव्य दृष्टि देती है , स्कन्ध , भुजा और सिर की सन्धि के ऊपर के सारे रोगों को नेति शीघ्र नष्ट करती है । ’

त्राटककर्म ---

‘ समाहित अर्थात् ‍ एकाग्रचित्त हुआ मनुंष्य निश्चल दृष्टि से सूक्ष्म लक्ष्य को अर्थात् ‍ लघु पदार्थ को तब तक देखे जब तक अश्रुपात न होवे । इसे मत्स्येन्द्र आदि आचार्यो ने ‘ त्राटककर्म ’ कहा है । ’

सफेद दिवाल पर सरसों -बराबर काला चिह्र कर दे उसी पर दृष्टी ठहराते -ठहराते चित्त समाहित होता हैं , और दृष्टि शक्तिसम्पत्र हो जाती है । मैस्मेरिज्म में जो शक्ति आ जाती है वही शक्ति त्राटक से भी प्राप्य है ।

‘ त्राटक नेत्ररोगनाशक है । तन्द्रा - आलस्यादि को भीतर नहीं आने देता । त्राटककर्म संसार में इस प्रकार गुप्त रखने योग्य है जैसे सुवर्ण की पेटी संसार में गुप्त रखी जाती है क्योंकि - ‘ भवेद्वीर्यवती गुप्ता निर्वीर्या तु प्रकाशिता ’

उपनिषदों में त्राटक के आन्तर , बाह्य औ मध्य -इस प्रकार तीन भेद किये गये हैं । हठयोग के ग्रन्थों में प्रकार -भेद नहीं है ।

नियम --- पाश्चात्यों का अनुकरण करने वाले कुछ लोग मद्यपान , मांसाहार तथा अम्ल -पदार्धादि अपथ्य -सेवन करते हुए भी ‘मैस्मेरिज्म ’ विद्या की सिद्धि के लिये त्राटक किया करते हैं । परन्तु ऐसे लोगों का अभ्यास पूर्ण नहीं होता । अनेक लोगों के नेत्र चले जाते हैं और अनेक पागल हो जाते हैं । जिन्होंने पथ्य का पालन किया है वही सिद्धि प्राप्त कर सके हैं ।

१ . निरिक्षेन्निश्चलदृशा सूक्ष्मलक्ष्यं समाहितः ।

अश्रुसम्पातपर्यन्तमाचार्यैस्त्राटकं स्मृतम् ‍ ॥ ( हठयोगप्रदीपिका )

२ . मोचनं नेत्ररोगाणां तन्द्रादीनां कपाटकम् ‍ ।

यत्नतस्त्राटकं गोप्य यथा हाटकपेटकम् ‍ ॥ ( हठयोगप्रदीपिका )

यम -नियमपूर्वक आसनों के अभ्यास से नाडी समूह मृदु हो जाने पर ही त्राटक करना चाहिये । कठोर नाडियों को आघात पहुँचते देरी नहीं लगती । त्राटक के जिज्ञासुओं को आसनों के अभ्यास के परिपाक काल में नेत्र के व्यायाम का अभ्यास करना विशेष लाभदायक है । प्रातःकाल में शान्तिपूर्वक दृष्टि को शनैः शनैः बायें , दायें , नीचे की ओर , ऊपर की ओर चलाने की क्रिया को नेत्र का व्यायाम कहते हैं । इस व्यायाम से नेत्र की नसें दृढ होती है । इसके अनन्तर त्राटक करने से नेत्र को हानि पहुँचने की भीति कम हो जाती है ।

त्राटक के अभ्यास से नेत्र और मस्तिष्क में उष्णता बढ जाती है । अतः नित्य जलनेति करनी चाहिये तथा रोज सुबह त्रिफला के जल से अथवा गुलाब जल से नेत्रों को धोना चाहिये । भोजन में पित्तवर्धक और मलाविरोध (कब्ज ) करने वाले पदार्थो का सेवन न करे । नेत्र में आँसू आ जाने के बाद फिर उस दिन दूसरी बार त्राटक न करे । केवल एक ही बार प्रातःकाल में करे । वास्तव में त्राटक का अनुकूल समय रात्रि के को से पाँच बजे तक है । शान्ति के समय में चित्त की एकाग्रता बहुत शीघ्र होने लगती है । एकाध वर्षपर्यन्त नियमित रुप से त्राटक करने से साधक के संकल्प सिद्ध होने लगते है , दूसरे मनुष्यें के ह्रदय का भाव मालूम होने लगता है , सुदूर स्थान में स्थित पदार्थ अथवा घटना का सम्यक् ‍ प्रकार से बोध हो जाता है

५ . क्षालन ---

रुद्रयामल प्रोक्त पञ्चस्वर (पञ्चकर्म - षट्‌कर्म ) योग में क्षालन से अर्थ है नाडियोम का प्रक्षालन । यहाँ मुख्य रुप से शीर्षासन से इसे को कहा गया है । हठयोग में इसकी अन्य विधि है ।

ऊद्‌र्ध्वे मुण्डासनं कृत्वा अधोहस्ते जपं चरेत् ‍ ।

यदि त्रिदिनमाकर्तु समर्थो मुण्डिकासनम् ‍ ॥
तदा हि सर्वनाड्यश्च वशीभूता न संशयः ।

नाडीक्षालनयोगेन मोक्षदाता स्वय्म भवेत् ‍ ॥ (रुद्र० ३५ .३२ .३३ )

( क ) गजकर्म या गजकरणी ---

हाथी जैसें सूँड से जल खींच फेंक देता है , वैसे गजकर्म में किया जाता है । अतःइसका नाम गजकर्म या गजकरणी हुआ । यह कर्म भोजन से पहले करना चाहिये । विषयुक्त या दूषित भोजन करनें में आ गया हो तो भोजन के पीछे भी किया जा सकता है । प्रतिदिन दन्तधावन के पश्चात् ‍ इच्छा भर जल पीकर अँगुली मुख में उलटी कर दे । क्रमशः बढा हुआ अभ्यास इछामात्र से जल बाहर फेंक देगा । भीतर गये जल को ज्योलीकर्म से भ्रमा कर फेंकना और अच्छा होता है । जब जल स्वच्छ आ जाय तब जानना चाहिये कि अब मैल मुख की राह नहीं आ रहा है । पित्तप्रधान पुरुषों के लिये यह क्रिया हितकर है ।

( ख ) कपालभातिकर्म ---

अर्थात लोहकार की भस्त्रा (भाथी ) के समान अत्यन्त शीघ्रता से क्रमशः रेचक -पूरक प्राणायाम को शान्तिपूर्वक करना योगशास्त्र में कफदोष का नाशक कह गया है तथा क्रिया ‘कपालभाति ’ नाम से विख्यात है ।

जब सुषुमना में से अथवा फुफ्फुस में से श्वासनलिका द्वारा कफ बार -बार ऊपर आता हो अथवा प्रतिश्याय (जुकाम ) हो गया हो तब सूत्रनेति और धौतिक्रिया से इच्छित शोधन नहीं होता । ऐसे समय पर यह कपालभाति लाभदायक है । इस क्रिया से फुफ्फुस और समस्त कफवहा नाडियों में इकट्ठा हुआ कफ कुच कुछ जल जाता है और कुछ प्रस्वेदद्वार से बाहर निकल जाता है , जिससे फुफ्फुस -कोशों की शुद्धि होकर फुफ्फुस बलवान् ‍ होते हैं । साथ -साथ सुषुम्ना , मस्तिष्क और आमाशय की शुद्धि होकर पाचनशक्ति प्रदीप्त होती है ।

नियम --- परंतु उरःक्षत , ह्रदय की निर्बलता , वमनरोग , हुलास (उबाक ), हिक्का , स्वरभङु , मन की भ्रमित अवस्था , तीक्ष्ण ज्वर , निद्रानाश , ऊर्ध्वरक्तपित्त , अम्लपित्त इत्यादि दोषों के समय , यात्रा में और वर्षा हो रही हो , ऐसे समय पर इस क्रिया को न करे ।

अजीर्ण , धूप में भ्रमण से पित्तवृद्धि , पित्तप्रकोपजन्य रोग , जीर्ण कफ -व्याधि , कृमि , रक्तविकार , आमवात , विषविकार और त्वचारोगदि व्याधियों को दूर करने के लिये यह क्रिया गुणकारी है । शरद् ‍ ऋतु में स्वाभाविक पित्तवृद्धि होती रहती है । ऐसे समय पर आवश्यकतानुसार यह क्रिया की जा सकती है ।

 

षट्‌कर्म से रोग निवारण

हठयोग के अनुसार भौतिक शरीर के दोषों को दूर करने लिये एवं स्वस्थ बने रहने के लिये षट‌कर्म , आसन , प्राणायाम , मुद्रा , धारण एवं ध्यान का आलम्बन लेना चाहिये । षटकर्म का उपयोग प्रवृद्ध कफ -दोष को दूर करके वात , पित्त एवं कफ एन तीनों दोषों को समभाव में स्थापित करने के लिये होता है । यदि कफ -दोष बढा न हो तो , जिस अङु में विकार या अशक्ति प्रतीत हो , उसी अङु को बलवान बनाने या उक्त अङु से विकार को दूर करने के लिये षट्‌कर्मों में से यथावश्यक दो या तीन या चार कर्मो का अभ्यास करना चाहिये । १ . धौति , वस्ति , नेति , त्राटक , नौलिक एवं कपालभाति -इन छः क्रियाओं को षट्‌कर्मो कहते हैं । धौति कर्म कण्ठ से आमाशय तक के मार्ग को स्वच्छ करके सभी प्रकार के कफ -रोगों का नाश कर देता है । यह विशेषरुप से कफप्रधान कास , श्वास , प्लीहा एवं कुष्ठरोग में लाभकारी है । २ . वस्ति -कर्मद्वारा गुदामार्ग एवं छोटी आँत के निचले हिस्से की सफाई हो जाती है । इससे अपानवायु एवं मलान्त्र के विकार से उत्पन्न होने वाले रोगों का शमन हो जाता है । आँतो की गर्मी शान्त होती है , कोष्ठबद्धता दूर होती है । आँतो में स्थित -संचित दोष नष्ट होते हैं । जठराग्नि की वृद्धि होती है । अनेक उदररो नष्ट होते है । वस्तिकर्म करने से वात -पित्त एव्म कफ से उत्पन्न अनेक रोग तथा गुल्म , प्लीहा , और जलोदर दूर होते हैं । ३ . नेतिकर्म नासिकामार्ग को स्वच्छ कर कपाल -शोधन का कार्य करता हैं यह विशेषरुप से नेत्रों को उत्तम दृष्टि प्रदान करता है और गले से ऊपर होने वाले दाँत , मुख , जिह्रा , कर्ण एवं शिरोरोगों को नष्ट करता है । ४ . त्राटक -कर्मद्वारा नेत्रों के अनेक रोग नष्ट होते हैं एवं तन्द्रा , आलस्य आदि दोष नष्ट होते हैं । ५ उदर -रोग एवं अन्य सभी दोषों क नाश करने के लिये नेति प्रमुख है । यह मन्दाग्नि को नष्टकर जठराग्नि की वृद्धि करता है तथा भुक्तान्न को सुन्दर प्रकार से पचाने की शक्ति प्रदान करता है । इसका अभ्यास करने से वातादि दोषों का शमन होने से चित्त सदा प्रसन्न रहता है । ६ . कपालभाति विशेषरुप से कफ -दोष का शोषण करने वाली है । षट्‌कर्मो का अभ्यास करने से जब शरीरन्तर्गत कफ -दोष मलादिक क्षीण हो जाते है , तब प्राणायाम का अभ्यास करने से अधिक शीघ्र सफलता मिलती है ।

N/A

References : N/A
Last Updated : March 28, 2011

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP