मैत्रेय

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


महर्षि मैत्रेय पुराणवक्ता ऋषि हैं । वे ' मित्र ' के पुत्र होनेके कारण मैत्रेय कहाये । श्रीमद्भागवतमें इनके सम्बन्धमें इतना ही मिलता है कि ये महर्षि पराशरके शिष्य और वेदव्यासजीके सुहद सखा थे । पराशर मुनिने जो विष्णुपुराण कहा, उसके प्रधान श्रोता ये ही हैं । इन्होंने स्वयं कहा है -

त्वत्तो हि वेदाध्ययनमधीतमखिलं गुरो ।

धर्मशास्त्राणि सर्वाणि तथाङ्गानि यथाक्रमम् ॥

त्वत्प्रसादान्मुनिश्रेष्ठ मामन्ये नाकृतश्रमम् ।

वक्ष्यन्ति सर्वशास्त्रेषु प्रायशो येऽपि विद्विषः ॥

' हे गुरुदेव ! मैंने आपसे ही सम्पूर्ण वेद, वेदाङ्ग और सकल धर्मशास्त्रोंका क्रमशः अध्ययन किया है । हे मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कृपासे मेरे विपक्षी मी मेरे लिये यह नहीं किया है ।' इससे यही स्पष्ट होता है कि जिस प्रकार ये भगवान् वेदव्यासके सुहद और सखा थे, वैसे ही ये पूर्ण ज्ञानी और शास्त्रमर्मज्ञ मी थे । भगवान् श्रीकृष्णकी इनके ऊपर पूर्ण कृपा थी । उन्होंने निज लोकको पधारते समय अधिकारी समझकर अपना समस्त ज्ञान इन्हींको दिया था ।

भगवान् जब परम धामको पधारने लगे, तब खोजते - खोजते उद्धवजी उनके पास पहुँचे । भगवान् एक अश्वत्थ वृक्षके नीचे सरस्वतीके तटपर प्रभासक्षेत्रके समीप सुखानीस थे । उद्धवजीने उन प्रभुके दर्शन किये । उसी समय महामुनि मैत्रेयजी भी वहाँ पहुँच गये । भगवानने उन्हें ज्ञानोपदेश दिया और आज्ञा कि की इसे महामुनि विदुरको भी देना । जब उद्धवजीसे यह समाचार सुनकर महामना विदुरजी इनके समीप पहुँचे, तब ये बड़े प्रसन्न हुए । उस भगवददत्त ज्ञानका, जिसे इन्होंने विदुरजीको दिया था, वर्णन श्रीमद्भागवतके तृतीय स्कन्धके चौथे अध्यायसे आरम्भ होता है । महामुनि मैत्रेयका नाम ऐसा है, जिसे समस्त पुराणपाठक भली प्रकर जानते हैं । मैत्रेयजी ज्ञानके भण्डार, भगवल्लीलाओंके परम रसिक और भगवानके परम कृपापात्र थे । इनके गुरु महर्षि पराशरने विष्णुपुराण सुनानेके अनन्तर अपनी गुरुपरम्परा पराशरने विष्णुपुराण बतलाते हुए इनसे कहा कि इस पुराणको, जिसे तुमने मुझसे सुना है, तुम भी कलियुगके अन्तमें शिनीकको सुनाओगे । इस प्रकार ये चिरजीवी हैं और अब भी किसी - न - किसी रुपमें इस धराधामपर विद्यमान हैं । भगवानकी कथाका महत्त्व बतलाते हुए ये कहते हैं --

को नाम लोके पुरषार्थसारवित्

पुराकथानां भगवत्कथासुधाम् ।

आपीय कर्णाञ्जलिभिर्भवापहा

महो विरज्येत विना नरेतरम् ॥

( श्रीमद्भा० ३।१६।५० )

' संसारमें पशुओंको छोड़कर, अपने पुरुषार्थका सार जाननेवाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमनसे छुड़ा देनेवाली भगवानकी प्राचीन कथाओंमेंसे किसी भी अमृतउनकी ओरसे मन हटा लेगा ।'

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Last Updated : April 29, 2009

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