मुचुकुन्द

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।

प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः ॥

सूर्यवंशमें इक्ष्वाकुकुल बड़ा ही प्रसिद्ध है, जिसमें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा श्रीरामरुपसे अवतीर्ण हुए । इसी वंशमें महाराज मान्धाता - जैसे महान् प्रतापशाली राजा हुए । महाराज मुचुकुन्द उन्हीं मान्धाताके पुत्र थे । ये सम्पूर्ण पृथ्वीके एकच्छत्र सम्राट् थे । बल - पराक्रममें ये इतने बढ़े - चढ़े थे कि पृथ्वीके राजाओंकी तो बात ही क्या, देवराज इन्द्र भी इनकी सहायताके लिये लालायित रहते थे ।

एक बार असुरोंने देवताओंको दबा लिया, देवता बड़े दुखी हुए । उनके पास कोई योग्य सेनापति नहीं था, अतः उन्होंने महाराज मुचुकुन्दसे सहायताकी प्रार्थना की । महाराजने देवराजकी प्रार्थना स्वीकार की और वे बहुत समयतक देवताओंकी रक्षाके लिये असुरोंसे लड़ते रहे । बहुत कालके पश्चात् देवताओंको शिवजीके पुत्र स्वामिकार्तिकेयजी योग्य सेनापति मिल गये । तब देवराज इन्द्रने महाराज मुचुकुन्दसे कहा - ' राजन् ! आपने हमारी बड़ी सेवा की, अपने स्त्री - पुत्रोंको छोड़कर आप हमारी रक्षामें लग गये । यहाँ स्वर्गमें जिसे एक वर्ष कहते हैं, पृथ्वीमें उतने ही समयको तीन सौ साठ वर्ष कहते हैं । आप हमारे हजारों वर्षोंसे यहाँ हैं । अतः अब आपकी राजधानीका कहीं पता भी नहीं हैं; आपके परिवारवाले सब कालके गालमें चले गये । हम आपपर बड़े प्रसन्न हैं । मोक्षको छोड़कर आप जो कुछ भी वरदान माँगना चाहें, माँग लें; क्योंकि मोक्ष देना हमारी शक्तिके बाहरकी बात हैं ।'

महाराजको मानवीय बुद्धिने दबा लिया । स्वर्गमें वे सोये नहीं थे । लड़ते - लड़ते बहुत थक भी गये थे । अतः उन्होंने कहा - ' देवराज ! मैं यही वरदान माँगता हूँ कि मैं पेटभर सो लूँ, कोई भी मेरी निद्रामें विघ्न न डाले । जो मेरी निद्रा भंग करे, वह तुरंत भस्म हो जाय ।'

देवराजने कहा - ' ऐसा ही होगा, आप पृथ्वीपर जाकर शयन कीजिये । जो आपको जगायेगा, वह तुरंत भस्म हो जायगा ।' ऐसा वरदान पाकर महाराज मुचुकुन्द भारतवर्षमें आकर एक गुफामें सो गये । सोते - सोते उन्हें कई युग बीत गये । द्वापर आ गया, भगवानने यदुवंशमें अवतार लिया । उसी समय कालयवनने मथुराको घेर लिया । उसे अपने - आप ही मरवानेकी नीयतसे और महाराज मुचुकुन्दपर कृपा करनेकी इच्छासे भगवान् श्रीकृष्ण कालयवनके सामनेसे छिपकर भागे । कालयवनको अपने बलका बड़ा घमंड था, वह भी भगवान् उस गुफामें घुसकर छिप गये, जहाँ महाराज मुचुकुन्द सो रहे थे । उन्हें सोते देखकर भगवानने अपना पीताम्बर धीरेसे उन्हें ओढ़ा दिया और आप छिपकर तमाशा देखने लगे; क्योंकि उन्हें छिपकर तमाशा देखनेमें बड़ा आनन्द आता है । द्रष्टा ही जो ठहरे ।

कालयवन बलके अभिमानमें भरा हुआ गुफामें आया और महाराज मुचुकुन्दको ही भगवान् समझकर जोरोंसे दुपट्टा खींचकर जगाने लगा । महाराज जल्दीसे उठे । सामने कालयवन खड़ा था । दृष्टि पड़ते ही वहीं जलकर भस्म हो गया । अब तो महाराज इधर - उधर देखने लगे । भगवानके तेजसे सम्पूर्ण गुफा जगमगा रही थी । उन्होंने नवजलधरश्याम पीतकौशेयवासा वनमालीको सामने मन्द - मन्द मुसकराते हुए देखा । देखते ही वे अवाक् रह गये । अपना परिचय दिया । प्रभुका परिचय पूछा । गर्गाचार्यके वचन स्मरण हो आये । ये साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं, यह समझकर वे भगवानके चरणोंपर लोट - पोट हो गये ।

भगवानने उन्हें उठाया, छातीसे चिपटाया, भाँति - भाँतिके वरोंका प्रलोभन दिया, किंतु वे संसारीपदार्थोंकी निःसारता समझ चुके थे । अतः उन्होंने कोई भी सांसारिक वर नहीं माँगा । उन्होंने यही कहा - ' प्रभो ! मुझे देना हो तो अपनी भक्ति दीजिये, जिससे मैं सखी लगनके साथ भलीभाँति भक्ति कर सकूँ, ऐसा वरदान लगनके साथ भलीभाँति आपकी उपासना कर सकूँ; मैं श्रीचरणोंकी भलीभाँति भक्ति कर सकूँ, ऐसा वरदान दीजिये ।' प्रभु तो मुक्तिदाता हैं, मुकुन्द हैं । उनके दर्शनों के बाद फिर जन्म - मरण कहाँ ! किंतु महाराजने अभीतक भलीभाँति उपासना नहीं की थी । और वे मुक्तिसे भी बढ़कत उपासनाको चाहते थे । अतः भगवानने कहा - ' अब तुम ब्राह्मण होओगे, सर्व जीवोंमें समान दृष्टिवाले होओगे, तब मेरी जी खोलकर अनन्य उपासना करना । तुम मेरे तो वन ही गये । तुम्हारी उपासना करनेकी जो अभिलाषा हैं, उसके लिये तुम्हैं विशुद्ध ब्राह्मणवंशमें जन्म लेना पड़ेगा और वहाँ तुम उपासना - रसका भलीभाँति आस्वादन कर सकोगे ।' मुचुकुन्द ब्राह्मण - जन्ममें उपासना करके अन्तमें प्रभुके साथ अनन्य भावसे मिल गये ।

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Last Updated : April 28, 2009

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