श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १७

भारतीय जीवन-धारा में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान है, पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।


श्रीपराशरजी बोले -

हे मैत्रेय ! उन सर्वदा उदारचरित परमबुद्धिमान् महात्मा प्रह्लादजीका चरित्र तुम ध्यानपूर्वक श्रवण करो ॥१॥

पूर्वकालमें दितिके पुत्र महाबली हिरण्यकशिपुने, ब्रह्माजीके वरसे गर्वयुक्त ( सशक्त ) होकर स्मपूर्ण त्रिलोकीको अपने वशीभुत कर लिया था ॥२॥

वह दैत्य इन्द्रपदका भोग करता था । वह महान् असुर स्वयं ही सूर्य, वायु, अग्नि, वरुण और चन्द्रमा बना हुआ था ॥३॥

वह स्वयं ही कुबेर और यमराज भी था और वह असुर स्वयं ही सम्पूर्ण यज्ञ - भागोंको भोगता था ॥४॥

हे मुनिसत्तम ! उसके भयसे देवगण स्वर्गको छोड़कर मनुष्य शरीर धारणकर भूमण्डलमें विचरते रहते थे ॥५॥

इस प्रकार सम्पूर्ण त्रिलोकीको जीतकर त्रिभुवनके वैभवसे गर्वित हुआ और गन्धर्वोसे अपनी स्तुति सुनता हुआ वह अपनें अभीष्ट भोगोंको भोगता था ॥६॥

उस समय उस मद्यपानासक्त महाकाल हिरण्यकशिपुकी ही समस्त सिद्ध, गन्धर्व और नाग आदि उपासना करते थे ॥७॥

उस दैत्यराजके सामने कोई सिद्धगण तो बाजे बजाकर उसका यशोगान करते और कोई अति प्रसन्न होकर जयजयकार करते ॥८॥

तथा वह असुरराज वहाँ स्फटिक एवं अभ्र-शिलाके बने हुए मनोहर महलमें, जहाँ अप्सराओंका उत्तम नृत्य हुआ करता था, प्रसन्नताके साथ मद्यपान करता रहता था ॥९॥

उसका प्रह्लाद नामक महाभाग्यवान् पुत्र था । वह बालक, गुरुके यहाँ जाकर बालोचित पाठ पढ़ने लगा ॥१०॥

एक दिन वह धर्मात्मा बालक गुरुजीके साथ अपने पिता दैत्यराजके पास गया जो उस समय मद्यपानमें लगा हुआ था ॥११॥

तब, अपने चरणोमें झुके अपने परम तेजस्वी पुत्र प्रह्लादजीको उठाकर पिता हिरण्यकशिपुने कहा ॥१२॥

हिरण्यकशिपु बोला -

वत्स ! अबतक अध्ययनमें निरन्तर तत्पर रहकर तुमने जो कुछ पढ़ा है उसका सारभूत शुभ भाषण हमे सुनाओ ॥१३॥

प्रह्लादजी बोले -

पिताजी ! मेरे मनमें जो सबके सारांशरूपसे स्थिर है वह मैं आपकी आज्ञानुसार सुनाता हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥१४॥

जो आदि, मध्य और अन्तसे रहित, अजन्मा, वृद्धि-क्षय-शुन्य और अच्युत हैं, समस्त कारणोंके कारण तथा जगत्‌के स्थिति और अन्तकर्ता उन श्रीहरीको मैं प्रणाम करता हूँ ॥१५॥

श्रीपराशरजी बोले -

यह सुन दैत्यराज हिरण्यकशिपुने क्रोधसे नेत्र लाल कर प्रह्लादके गुरुकी और देखकर काँपते हुए ओठोंसे कहा ॥१६॥

हिरण्यकशिपु बोला -

रे दुर्बुद्धि ब्राह्मणाधम ! यह क्या ? तुने मेरी अवज्ञा कर इस बालककी मेरे विपक्षीकी स्तुतिसे युक्त असार शिक्षा दी है ! ॥१७॥

गुरुजीने कहा -

दैत्यराज ! आपको क्रोधके वशीभूत न होना चाहिये । आपका यह पुत्र मेरी सिखायी हुई बात नहीं कर रहा हैं ॥१८॥

हिरण्यकशिपु बोला -

बेटा प्रह्लाद ! बताओ तो तुमको यह शिक्षा किसने दी है ? तुम्हारे गुरुजी कहते है कि मैनें तो इसे ऐसा उपदेश दिया नहीं है ॥१९॥

प्रह्लादजी बोले -

पिताजी ! हृदयमें स्थित भगवान् विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत्‌के उपदेशक हैं । उन परमात्माको छोड़कर और कौन किसीको कुछ सिखा सकता है ? ॥२०॥

हिरण्यकशिपु बोला -

अरे मूर्ख ! जिस विष्णुक तू मुझ जगदीश्वरके सामने धृष्टतापूर्वक निश्शंक होकर बारम्बार वर्णन करता है, वह कौन है ? ॥२१॥

प्रह्लादजी बोले -

योगियोंके ध्यान करनेयोग्य जिसका परमपद वाणीका विषय नहीं हो सकता तथा जिससे विश्व प्रकट हुआ है और जो स्वयं विश्वरूप है वह परमेश्वर ही विष्णु है ॥२२॥

हिरण्यकशिपु बोला -

अरे मूढ ! मेरे रहते हुए और कौन परमेश्वर कहा जा सकता है ? फिर भी तू मौतके मुखमें जानेकी इच्छासे बारम्बार ऐसा बक रहा है ॥२३॥

प्रह्लादजी बोले -

हे तात ! वह ब्रह्माभूत विष्णु तो केवल मेरा ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण प्रजा और आपका भी कर्त्ता, नियन्ता और परमेश्वर है । आप प्रसन्न होइये, व्यर्थ क्रोध क्यों करते हैं ॥२४॥

हिरण्यकशिपु बोला -

अरे कौन पापी इस दुर्बुद्धि बालकके हृदयमें घुस बैठा है जिससें आविष्टचित्त होकर यह ऐसे अमंगल वचन बोलता है ? ॥२५॥

प्रह्लादजी बोले -

पिताजी ! वे विष्णुभगवान् तो मेरे ही हृदयमें नहीं, बल्कि सम्पूर्ण लोकोंमें स्थित हैं । वे सर्वगामी तो मुझको आप सबको और समस्त प्राणियोंको अपनी-अपनी चेष्टाओंमें प्रवृत्त करते हैं ॥२६॥

हिरण्यकशिपु बोला -

इस पापिको यहाँसे निकालो और गुरुके यहाँ ले जाकर इसका भली प्रकार शासन करो ! इस दुर्मतिको न जाने किसने मेरे विपक्षीकी प्रशंसामें नियुक्त करि दिया है ? ॥२७॥

श्रीपराशरजी बोले -

उसके ऐसा कहनेपर दैत्यगण उस बालकको फिर गुरुजीके यहाँ ले गये और वे वहाँ गुरुजीकी रात-दिन भली प्रकार सेवा - शुश्रूषा करते हुए विद्याध्ययन करते लगे ॥२८॥

बहुत काल व्यतीत हो जानेपर दैत्यराजने प्रह्लादजीको फिर बुलाया और कहा 'बेटा ! आज कोई गाथा ( कथा ) सुनओ ' ॥२९॥

प्रह्लादजी बोले -

जिनसे प्रधान, पुरुष और यह चराचर जगत् उप्तन्न हुआ है वे सकल प्रपत्र्चके कारण श्रीविष्णुभगवान हमपर प्रसन्न हों ॥३०॥

हिरण्यकशिपु बोला - अरे ! यह बड़ा दुरात्मा है ! इसको मार डालो; अब इसके जीनेसे कोई लाभ नहीं है, क्योकि स्वपक्षकी हानि करनेवाला होनेसे यह तो अपने कुलके लिये अंगाररूप हो गया है ॥३१॥

श्रीपराशरजी बोले -

उसकी ऐसी आज्ञा होनेपर सैकड़ो-हजारों दैत्यगण बड़े-बडे़ अस्त्र शस्त्र लेकर उन्हें मारनेके लिये तैयार हुए ॥३२॥

प्रह्लादजी बोले -

अरे दैत्यो ! भगवान विष्णु तो शस्त्रोमें तुमलोगोंमें और मुझमें-सर्वत्र ही स्थित हैं । इस सत्यके प्रभावसे इन अस्त्र-शस्त्रोंका मेरे ऊपर कोई प्रभाव न हो ॥३३॥

श्रीपराशरजी कहा -

तब तो उन सैकड़ो दैत्योंके शस्त्र समूहका आघात होनेपर भी उनको तनिक सी भी वेदना न हुई, वे फिर भी ज्यों- कें-त्यों नवीन बल-सम्पन्न ही रहे ॥३४॥

हिरण्यकशिपु बोला -

रे दुर्बुद्धे ! अब तू विपक्षीकी स्तुति करना छोड़ दे; जा, मैं तुझे अभय दान देता हूँ, अब और अधिक नादान मत हो ॥३५॥

प्रह्लादजी बोले -

हे तात ! जिनके स्मरणमात्रसे जन्म, जरा और मृत्यु आदिके समस्त भय दूर हो जाते हैं, उन सकल - भयहारी अनन्तके हृदयमें स्थित रहते मुझे भय कहाँ रह सकता है ॥३६॥

हिरण्यकशिपु बोला-

अरे सर्पो ! इअ अत्यन्त दुब्रुद्धि और दुराचारीकी अपने विषाग्नि सन्तप्त मुखोंसे काटकर शीघ्र ही नष्ट कर दो ॥३७॥

श्रीपराशरजी बोले -

ऐसी आज्ञा होनेपर अतिक्रूर और विषधर तक्षक आदि सर्पोने उनके समस्त अंगोमें काटा ॥३८॥

किन्तु उन्हें तो श्रीकृष्णचन्द्रमें आसक्तचित्त रहनेके कारण भगवत्स्मरणके परमानन्दके डुबे रहनेसे उन महासर्पोंके काटनेपर भी अपने शरीरकी कोई सुधि नहीं हुई ॥३९॥

सर्प बोले - हे दैत्यराज ! देखो, हमारी दाढ़ें टूट गयीं, मणियाँ चटखने लगीं, फणोंमें पीड़ा होने लगी और हृदय काँपने लगा, तथापि इसकी त्वचा तो जरा भी नहीं कटी । इसलिये अब आप हमें कोई और कार्य बताइये ॥४०॥

हिरण्यकशिपु बोला -

हे दिग्गजो ! तुम सब अपने संकीर्ण दाँतोको मिलाकर मेरे शत्रु-पक्षद्वारा ( बहकाकर ) मुझसे विमुख किये हुए इस बालकको मार डालो ! देखो, जैसे अरणीसे उप्तन्न हुआ अग्नि उसीको जला डालता है उसी प्रकार कोई-कोई जिससे उप्तन्न होते हैं उसीके नाश करनेवाले हो जाते हैं ॥४१॥

श्रीपराशरजी बोले -

तब पर्वत शिखरके समान विशालकाय दिग्गजोंने बालकको पृथिवीपर पटककर अपने दाँतोंसे खूब रौदां ॥४२॥

किन्तु श्रीगोविन्दका स्मरण करते रहनेसे हाथियोंके हजारों दाँत उनके वक्षःस्थलसे टकराकर टूट गये; तब उन्होंने पिता हिरण्यकशिपुसे कहा - ॥४३॥

"ये जो हाथियोंके वज्रके समान कठोर दाँत टूट गये है इसमें मेरा कोई बल नहीं है; यह तो श्रीजनार्दनभगवानके महाविपत्ति औअ क्लेशोंके नष्ट करनेवाले स्मरणका ही प्रभाव है " ॥४४॥

हिरण्यकशिपु बोला -

अरे दिग्गजो ! तुम हट जाओ ! दैत्यगण ! तुम अग्नि जलाओ, और हे वायु ! तुम अग्निको प्रज्वलित करो जिससे इस पापीको जला डाला जाय ॥४५॥

श्रीपराशरजी बोले -

तब अपने स्वामीकी आज्ञासे दानवगण काष्ठके एक बड़े ढेरमेम स्थित उस असूर राजकुमारको अग्नि प्रज्वलित करके जलाने लगे ॥४६॥

प्रह्लादजी बोले -

हे तात ! पवनसे प्रेरित हुआ भी यह अग्नि मुझे नहीं जलाता । मुझको तो सभी दिशाएँ ऐसी शीतल प्रतीत होती हैं मानो मेरे चारों ओर कमल बिछे हुए हों ॥४७॥

श्रीपराशरजी बोले -

तदनन्तर, शुक्रजीके पुत्र बडे़ वाग्मी महात्मा ( षंडामर्क आदि ) पुरोहितगण सामनीतिसे दैत्यराजकी बड़ाई करते हुए बोले ॥४८॥

पुरोहित बोले -

हे राजन् ! अपने इस बालक पुत्रके प्रति अपना क्रोध शान्त कीजिये;' आपको तो देवताओंपर ही क्रोध करना चाहिये, क्योंकि उसकी सफलता तो वहीं है ॥४९॥

हे राजन् ! हम आपके इस बालकको ऐसी शिक्षा देंगे जिससे यह विपक्षके नाशका कारण होकर आपके प्रति अति विनीत हो जायगा ॥५०॥

हे दैत्यराज ! बाल्यावस्था तो सब प्रकारको दोषोंका आश्रय होती ही है, इसलिये आपको इस बालकपर अत्यन्त क्रोधका प्रयोग नहीं करना चाहिये ॥५१॥

यदि हमारे कहनेसे भी यह विष्णुका पक्ष नहीं छोड़ेगा तो हम इसको नष्ट करनेके लिये किसी प्रकार न टलनेवाली कृत्या उप्तन्न करेंगे ॥५२॥

श्रीपराशरजीने कहा -

पुरोहितोंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर दैत्यराजने दैत्योंद्वारा प्रह्लादको अग्निसमूहसे बाहर निकलवाया ॥५३॥

फिर प्रह्लादजी गुरुजीके यहाँ रहते हुए उनके पढ़ा चुकनेपर अन्य दानवकुमारोंको बार-बार उपदेश देने लगे ॥५४॥

प्रह्लादजी बोले -

हे दैत्यकुलोप्तन्न असुर बालको । सुनो, मैं तुम्हें परमार्थका उपदेश करता हूँ, तुम इसे अन्यथा न समझना, क्योंकि मेरे ऐसा कहनेसें किसी प्रकरका लोभादि कारण नहीं है ॥५५॥

सभी जीव जन्म बाल्यावस्था और फिर यौवन प्राप्त करते हैं, तप्तश्चात दिन दिन वृद्धावस्थाकि प्राप्ती भी अनिवार्य ही है ॥५६॥

और हे दैत्यराजकुमरो ! फिर यह जीव मृत्युके मुखमें चला जाता है, यह हम और तुम सभी प्रत्यक्ष देखते हैं ॥५७॥

मरनेपर पुनर्जन्म होता है, यह नियम भी कभी नहीं टलता । इस विषयमें ( श्रुतिस्मृतिरूप ) आगम भी प्रमाण है कि बिना उपादानके कोई वस्तु उप्तन्न नहीं होती * ॥५८॥

पुनर्जन्म प्राप्त करानेवाली गर्भवास आदि जितनी अवस्थाएँ हैं उन सबको दुःखरूप ही जानो ॥५९॥

मनुष्य मूर्खतावश क्षुधा, तृष्णा और शीतादिकी शान्तिको सुख मानते हैं, परन्तु वास्तवमें तो वे दुःखमात्र ही हैं ॥६०॥

जिनका शरीर ( वातादि दोषसे ( अत्यन्त शिथिल हो जाता है उन्हें जिस प्रकर व्यायाम सुखप्रद प्रतीत होता है उसी प्रकार जिनकी दृष्टि भ्रान्तिज्ञानसे ढँकी हुई है उन्हें दूःख ही सुखरुप जान पड़ता है ॥६१॥

अहो ! कहाँ तो कफ आदि महाघृणित पदार्थोका समूहरूप शरीर और कहाँ कान्ति, शोभा, सौन्दर्य एवं रमणीयता आदि दिव्य गुण ? ( तथापि मनुष्य इस घृणित शरीरमें कान्ति आदिका आरोप कर सुख मानने लगता है ) ॥६२॥

यदि किसी मूढ पुरुषकी मांस, रुधिर, पीब, विष्ठा, मूत्र, स्नायु, मज्जा और अस्थियोंके समूहरूप इस शरीरमें प्रीति हो सकती है तो उसे नरक भी प्रिय लग सकता है ॥६३॥

अग्नि, जल और भात शीत, तृषा और क्षुधाके कारण ही सुखकारी होते हैं और इनके प्रतियोगी जल आदि भी अपनेसे भिन्न अग्नि आदिके कारण ही सुखके हेतु होते हैं ॥६४॥

हे दैत्यकुमारो ! विषयोंका जितना-जितना संग्रह किया जाता है उतना - उतना ही वे मनुष्यके चित्तमें दुःख बढा़ते हैं ॥६५॥

जीव अपने मनको प्रिय लगनेवाले जितने ही सम्बन्धोंको बढ़ाता जाता है उतने ही उसके हृदयमें शोकरूपी शल्य ( काँटे ) स्थिर होते जाते हैं ॥६६॥

घरमें जो कुछ धन-धान्यादि होते हैं मनुष्यके जहाँ-तहाँ ( परदेशमें ) रहनेपर भी वे पदार्थ उसके चित्तमें बने रहते है, और उनके नाश और दाह आदिकी सामग्री भी उसीमें मौजूद रहती है । ( अर्थात घरमें स्थित पदार्थाकि सुरक्षित रहनेपर भी मनःस्थिति पदार्थोंके नाश आदिकी भावनासे पदार्थ नाशका दुःख प्राप्त हो जाता है ) ॥६७॥

इस प्रकार जीते-जी तो यहाँ महान् दुःख होता ही है, मरनेपर भी यम यातनाओंका और गर्भप्रवेशका उग्र कष्ट भोगना पड़ता है ॥६८॥

यदि तुम्हें गर्भवासमें लेशमात्र भी सुखका अनुमान होता हो तो कहो ! सारा संसार इसी प्रकार अत्यन्त दुःखमय है ॥६९॥

इसलिये दुःखोंके परम आश्रय इस संसारसमुद्रमें एकमात्र विष्णुभगवान् ही आप लोगोंकी परमगति हैं - यह मैं सर्वथा सत्य कहता हूँ ॥७०॥

ऐसा मत समहो कि हम तो अभी बालक हैं, क्योकीं जरा, यौवन और जन्म आदि अवस्थाएँ तो देहके ही धर्म हैं, शरीरका अधिष्ठाता आत्मा तो नित्य है, उसमें यह कोई धर्म नहीं है ॥७१॥

जो मनुष्य ऐसी दुराशाओंसे विक्षित्पाचित्त रहता है कि 'अभी मैं बालक हूँ इसलिये इच्छानुसार खेल-कूद लूँ, युवावस्था प्राप्त होनेपर कल्याण-साधनका यत्न करुँगा ।' ( फिर युवा होनेपर कहता है कि ) ' अभी तो मैं युवा हूँ, बुढा़पेमें आत्मकल्यण कर लूँगा ।' और ( वृद्ध होनेपर सोचता है कि ) 'अब मैं बूढा़आ हो गया, अब तो मेरी इन्द्रियाँ अपने कर्मोंमें प्रवृत्त ही नहीं होतीं, शरीरके शिथिल हो जानेपर अब मैं क्या कर सकता हूँ ? सामर्थ्य रहते तो मैंने कुछ किया ही नहीं ।' वह अपने कल्याणपथपर कभी अग्रसर नहीं होता; केवल भोग - तृष्णामें ही व्याकुल रहता है ॥७२-७४॥

मूर्खलोग अपनी बाल्यावस्थामें खेल-कूदमें लगें रहते हैं, युवावस्थामें विषयोमें फँस जाते हैं और बुढा़पा आनेपर उसे असमर्थताके कारण व्यर्थ ही काटते हैं ॥७५॥

इसलिये विवेकी पुरुषको चाहिये कि देहकी बाल्य, यौवन और वृद्ध आदि अवस्थाओंकी अपेक्षा न करके बाल्यावस्थामें ही अपने कल्याणका यत्न करे ॥७६॥

मैंने तुम लोगोंसे जो कुछ कहा है उसे यदि तुम मिथ्या नहीं समझते तो मेरी प्रसन्नताके लिये ही बन्धनको छुटानेवाले श्रीविष्णुभगवान्‌का स्मरण करो ॥७७॥

उनका स्मरण करनेमें परिश्रम भी क्या है ? और स्मरणमात्रसे ही वे अति शुभ फल देते हैं तथा रात-दिन उन्हींका स्मरण करनेवालोंका पाप भी नष्ट हो ताता है ॥७८॥

उन सर्वभूतस्थ प्रभुमें तुम्हारी बुद्धि अहर्निश लगी रहे और उनमें निरन्तर तुम्हारा प्रेम बढे़ इस प्रकार तुम्हारे समस्त क्लेश दूर हो जायँगे ॥७९॥

जब कि यह सभी संसार तापत्र्फ़यसे दग्ध ह रहा है तो इन बेचारे शोचनीय जीवोंसे कौन बुद्धिमान द्वेष करेगा ? ॥८०॥

यदि ( ऐसा दिखायी दे कि ) ' और जीव तो आनन्दमें हैं, मैं ही परम शक्तिहीन हूँ तब भी प्रसन्न ही होना चाहिये, क्योंकि द्वेषका फल तो दुःखरूप ही है ॥८१॥

यदि कोई प्राणी वैरभावसे द्वेष भी करें तो विचारवानोंके लिये तो वे 'अहो ! ये महामोहसे व्याप्त है !' इस प्रकार अत्यन्त शोचनीय ही है ॥८२॥

हे दैत्यगण ! ये मैंने भिन्न-भिन्न दृष्टिवालोंके विकल्प ( भिन्न -भिन्न उपाय ) कहे । अब उनका समन्वयपूर्वक संक्षिप्त विचार सुनो ॥८३॥

यह सम्पूर्ण जगत् सर्वभुतमय भगवान् विष्णुको विस्तार है, अतः विचक्षण पुरुषोंको इस आत्माके समान अभेदरूपसे देखना चाहिये ॥८४॥

इसलिये दैत्यभावको छोड़कर हम और तुम ऐसा यत्न करे जिससे शान्ति लाभ कर सकें ॥८५॥

जो ( परम शान्ति ) अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, मेघ, वरुण, सिद्ध, राक्षस, यक्ष, दैत्यराज , सर्प, किन्नर, मनुष्य, पशु और अपने दोषोंसे तथा ज्वर, नेत्ररोग, अतिसार, प्लीहा ( तिल्ली ) और गुल्म आदि रोगोंसे एवं द्वेष, ईर्ष्या, मत्सर, राग, लोभ और किसी अन्य भावसे भी कभी क्षीण नहीं होती, और जो सर्वदा अत्यन्त निर्मल है उसे मनुष्य अमलस्वरूप श्रीकेशवमें मनोनिवेश करनेसे प्राप्त कर लेता है ॥८६-८९॥

है दैत्यो ! मैं आग्रहपूर्वक कहता हूँ, तुम इस असार संसारके विषयोंके कभी सन्तुष्ट मत होना । तुम सर्वत्र समदृष्टि करो, क्योंकि समता ही श्रीअच्युतकी ( वास्तविक ) आराधना है ॥९०॥

उन अच्युतके प्रसन्न होनेपर फिर संसारमें दुर्लभ ही क्या है ? तुम धर्म, अर्थ और कामकी इच्छा कभी न करना; वे तो अत्यन्त तुच्छ हैं । उसे ब्रह्मरूप महावृक्षका आश्रय लेनेपर तो तुम निःसन्देह ( मोक्षरूप ) महाफल प्राप्त कर लोगे ॥९१॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशें सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥

* यह पुनर्जन्म होनेमें युक्ति है क्योंकि जबतक पूर्व जन्मके किये हुए, शुभाशुभ कर्मरूप कारणका होना न माना जाय तबतक वर्तमान जन्म भी सिद्ध नहीं हो सकता । इसी प्रकार, जब इस जन्ममे शुभाशुभका आरम्भ हुआ है तो इसका कार्यरूप पुनजन्म भी अवश्य होगा ।

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Last Updated : April 26, 2009

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