पार्वती मंगल - भाग ८

पार्वती - मङ्गलमें प्रातःस्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजीने देवाधिदेव भगवान् शंकरके द्वारा जगदम्बा पार्वतीके कल्याणमय पाणिग्रहणका काव्यमय एवं रसमय चित्रण किया है ।


तुमहिं सहित असवार बसहँ जब होइहहिं ।

निरखित नगर नर नारि बिहँसि मुख गोइहहिं ॥५७॥

बटु करि कोटि कुतरक जथा रुचि बोलइ ।

अचल सुता मनु अचल बयारि कि डोलइ ॥५८॥

’जब तुम्हारे साथ शिवजी बैलपर सवार होंगे, तब नगरके स्त्री-पुरुष देखकर हँसते हुए अपने मुख छिपा लेंगे’ ॥५७॥

इसी प्रकार अनेकों कुतर्क करके ब्रह्मचारी इच्छा नुसार बोल रहा था ; परंतु पर्वतकी पुत्रीका मन डिगा नहीं , भला कहीं हवासे पर्वत डोल सकता है ? ॥५८॥

साँच सनेह साँच रुचि जो हठि फेरइ ।

सावन सरिस सिंधु रुख सूप सो घेरइ ॥५९॥

मनि बिनु फनि जल हीन मीन तनु त्यागइ ।

सो कि दोष गुन गनइ जो जेहि अनुरागइ ॥६०॥

जो सत्य स्नेह और सच्ची रुचिको फेरना चाहता है , वह (तो) मानो सावनके महीने (वर्षा ऋतु) में नदीके प्रवाहको समुद्रकी ओर सूपसे घुमानेकी चेष्टा करता है ॥५९॥

मणिके बिना सर्प और जलके बिन मछली शरीर त्याग देती है, ऐसे ही जो जिसके साथ प्रेम करता है, वह क्या उसके दोष- गुणका विचार करता है ? ॥६०॥

करन कटुक चटु बचन बिसिष सम हिय हए ।

चढ़ि भृकुटि अधर फरकत भए ॥६१॥

बोली फिर लखि सखिहि काँपु तन थर थर ।

आलि बिदा करु बटुहि बेगि बड़ बरबर ॥६२॥

ब्रह्मचारीके कर्णकटु चाटु वचनोंने पार्वतीजीके हॄदयमें तीरके समान आघात किया ? उनकी आँखें लाल हो गयीं, भृकुटियाँ तन गयीं और होठ फड़कने लगे ॥६१॥

उनका शरीर थर -थर काँपने लगा । फिर उन्होंने सखीकी ओर देखकर कहा-’अरी आली ! इस ब्रह्मचरीको शीघ्र बिदा करो, यह (तो) बड़ा ही अशिष्ट है’ ॥६२॥

कहुँ तिय होहिं सयानि सुनहिं सिख राउरि ।

बौरेहि कैं अनुराग भइउँ बड़ि बाउरि ॥६३॥

दोष निधान इसानु सत्य सबु भाषेउ ।

मेटि को सकइ सो आँकु जो बिधि लिखि राखेउ ॥६४॥

(फिर ब्रह्मचारीको सम्बोधित करके कहने लगीं -) कहीं कोई चतुर स्त्रियाँ होंगी, वे आपकी शिक्षा सुनेंगी, मैं तो बावलेके प्रेममें ही अत्यन्त बावली हो गयी हूँ’ ॥६३॥

आपने जो कह कि महादेवजी दोषनिधान हैं, सो सब सत्य ही कहा है ; परंतु विधाताने जो अङक लिख रखे हैं, उन्हें कौन मिटा सकता है ?॥६४॥

को करि बादु बिबादु बिषादु बढ़ावइ ।

मीठ काहि कबि कहहिं जाहि जोइ भावइ ॥६५॥

भइ बड़ि बार आलि कहुँ काज सिधारहिं ।

बकि जनि उठहिं बहोरि कुजुगुति सवाँरहिं ॥६६॥

’वाद-विवाद करके कौन दु:ख बढ़ाये ? कवि किसको मीठा कहते हैं ? जिसको जो अच्छा लगता है’ । (भाव यह कि जिसको जो अच्छा लगे , उसके लिये वही मीठा है ।) (फिर सखीसे बोली -) हे सखी ! इनसे कहो बहुत देर हो गयी है, अब अपने कामके लिये कहीं जायँ । देखो ,किसी कुयुक्तिको रचकर फिर कुछ न बक उठें ॥६५-६६॥

जनि कहहिं छु बिपरीत जानत प्रीति रीति न बात की ।

सिव साधु निंदकु मंद अति जोउ सुनै सोउ बड़ पातकी ॥

सुनि बचन सोधि सनेहु तुलसी साँच अबिचल पावनो ।

भए प्रगट करुनासिंधु संकरु भाल चंद सुहावनो ॥८॥

’ये प्रीतिकी तो क्या, बात करनेकी रीति भी नहीं जानते; अतएव कोई विपरीत बात (फिर) न कहें । शिवजी और साधुओकीं निन्दा करनेवाले अत्यन्त मन्द अर्थात् नीच होते हैं ; उस निन्दाको जो कोई सुनता है, वह भी बड़ा पापी होता है ।’ गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि इस वचनको सुन उनका सत्य, दृढ़ और पवित्र प्रेम जानकर करुणासिन्धु श्रीमहादेव जी प्रकट हो गये ; उनके ललाटमें चन्द्रमा शोभायमान हो रहा था ॥८॥

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Last Updated : January 22, 2014

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