पार्वती मंगल - भाग ४

पार्वती - मङ्गलमें प्रातःस्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजीने देवाधिदेव भगवान् शंकरके द्वारा जगदम्बा पार्वतीके कल्याणमय पाणिग्रहणका काव्यमय एवं रसमय चित्रण किया है ।


देव देखि भल समय मनोज बुलायउ ।

कहेउ करिअ सुर काजु साजु सजि आयउ ॥२५॥

बामदेउ सन कामु बाम होइ बरतेउ ।

जग जय मद निदरेसि फरु पायसि फर तेउ ॥२६॥

देवताओंने अनुकूल अवसर देखकर कामदेवको बुलाया और कहा कि ’आप देवताओंका काम कीजिये।’ यह सुनकर कामदेव साज सजाकर आया ॥२५॥

महादेवजीसे कामदेवने प्रतिकूल बर्ताव किया और जगत् को जीत लेकेने अभिमानसे चूर होकर शिवजीका निरादर किया - उसीका फल उसने पाया अर्थात् वह नष्ट हो गया ॥२६॥

रति पति हीन मलीन बिलोकि बिसूरति ।

नीलकंठ मृदु सील कृपामय मूरति ॥२७॥

आसुतोष परितोष कीन्ह बर दीन्हेउ ।

सिव उदास तजि बास अनत गम कीन्हेउ ॥२८॥

पतिहीना (विधवा) रतिको मलिन और शोकाकुल देखकर मृदुलस्वभाव, कृपामूर्ति आशुतोष भगवान् नीलकण्ठ (शिवजी) ने प्रसन्न होकर उसे यह वर दिया-

दोहा -

अब ते रति तव नाथ कर होइहि नाम अनंगु ।

बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु ॥

जब जदुबंस कृष्न अवतारा । होइहि हरन महा महि भारा ॥

कृष्न तनय होइहि पति तोरा । बचनु अन्यथा होइ न मोरा ॥

और फिर शिवजी उदासीन हो, उस स्थानको छोड़ अन्यत्र चले गये ॥२७-२८॥

उमा नेह बस बिकल देह सुधि बुधि गई ।

कलप बेलि बन बढ़त बिषम हिम जनु दई ॥२९॥

समाचार सब सखिन्ह जाइ घर घर कहे ।

सुनत मातु पितु परिजन दारुन दुख दहे ॥३०॥

पार्वतीजी प्रेमवश व्याकुल हो गयीं, उनके शरीरकी सुध- बुध (होश- हवास ) जाती रही, मानो वनमें बढ़ती हुई कल्पलताको विषम पालेने मार दियाहो ॥२९॥

फिर सखियोंने घर- घर जाकर सारे समाचर सुनाये और इस समाचारको सुनकर माता - पिता एवं घरके लोग दारुण दु:खमें जलने लगे ॥३०॥

जाइ देखि अति प्रम उमहि उर लावहिं ।

बिलपहिं बाम बिधातहि दोष लगावहिं ॥३१॥

जौ न होहिं मंगल मग सुर बिधि बाधक ।

तौ अभिमत फल पावहिं करि श्रमु साधक ॥३२॥

वहाँ जाकर पार्वतीको देख वे अत्यन्त प्रेमसे उन्हें हृदय लगाते हैं; विलाप करते हैं तथा वाम विधाताको दोष देते हैं ॥३१॥

वे कहते हैं कि यदि देवता और विधाता शुभ मार्गमें बाधक न हों तो साधक लोग परिश्रम करके मनोवाञ्छित फल पा सकते हैं ॥३२॥

साधक कलेस सुनाइ सब गौरिहि निहोरत धाम को ।

को सुनइ काहि सोहाय घर चित चहत चंद्र ललामको ॥

समुझाइ सबहि दृढ़ाइ मनु पितु मातु, आयसु पाइ कै ।

लागी करन पुनि अगमु तपु तुलासी कहै किमि गाइकै ॥४॥

सब लोग साधकोंको क्लेश सुनाकर पार्वतीजीका घर चलनेके लिये निहोरा करते हैं । पर ( उनकी बात ) कौन सुनता है और किसे घर सुहाता है ? मन तो चन्द्रभूषण श्रीमहादेवजीको चाहता है । फिर पार्वतीजी सबको समझाकर सबके मनको दृढ़कर और माता- पिताकी आज्ञा पा पुन: कठिन तपस्या करने लगीं ; उसे तुलसी गाकर कैसे कह सकता है ॥४॥

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Last Updated : January 22, 2014

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