ज्येष्ठ कृष्णपक्ष व्रत - वटसावित्रीव्रत

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।


वटसावित्रीव्रत -

यह व्रत स्कन्द और भविष्योत्तरके अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमाको और निर्णयामृतादिके अनुसार अमावस्याको किया जाता है । इस देशमें प्रायः अमावस्याको ही होता है । संसारकी सभी स्त्रियोंमें ऐसी कोई शायद ही हुई होगी, जो सावित्रीके समान अपने अखण्ड पातिव्रत्य और दृढ़ प्रतिज्ञाके प्रभावसे यमद्वारपर गये हुए पतिको सदेह लौटा लायी हो। अतः विधवा, सधवा, बालिका, वृद्धा, सपुत्रा, अपुत्रा सभी स्त्रियोंको सावित्रीका व्रत अवश्य करना चाहिये । विधि यह है कि ज्येष्ठकृष्णा त्रयोदशीको प्रातःस्त्रानादिके पश्चात् ' मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थं ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थं सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये । यह संकल्प करके तीन दिन उपवास करे । यदि सामर्थ्य न हो तो त्रयोदशीको रात्रिभोजन, चतुर्दशीको अयाचित और अमावस्याको उपवास करके शुक्ल प्रतिपदाको समाप्त करे । अमावस्याको वटके समीप बैठकर बाँसके एक पात्रमें सप्तधान्य भरकर उसे दो वस्त्रोंसे ढक दे और दूसरे पात्रमें सुवर्णके ब्रह्मसावित्री तथा सत्यसावित्रीकी मूर्ति स्थापित करके गन्धाक्षतादिसे पूजन करे । तत्पश्चात् वटके सूत लपेटकर उसका यथाविधि पूजन करके परिक्रम करे । फिर ' अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते । पुत्रान् पौत्रांश्र्च सौख्यं च गृहाणार्घ्य नमोऽस्तु ते ॥' इस श्लोकसे सावित्रीको अर्घ्य दे और ' वट सिञ्चामि ते मूलं सलिलैरमृतोपमैः । यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले । तथा पुत्रैश्व्च पौत्रैश्र्च सम्पत्रं कुरु मां सदा ॥ ' इस श्लोकसे वटवृक्षकी प्रार्थना करे । देशभेद और मतान्तरके अनुरोधसे इसकी व्रताविधिमें कोई - कोई उपचार भिन्न प्रकारसे भी होते हैं । यहाँ उन सबका समावेश नहीं किया है । सावित्रीकी संक्षिप्त कथा इस प्रकार है - यहं मद्रदेशके राजा अश्वपतिकी पुत्री थी । द्युमत्सेनके पुत्र सत्यवानमे इसका विवाह हुआ था । विवाहके पहले नारदजीने कहा था कि सत्यवान सिर्फ सालभर जीयेगा । किंतु दृढव्रता सावित्रीने अपने मनसे अङ्गीकार किये हुए पतिका परिवर्तन नहीं किया और एक वर्षतक पातिव्रत्यधर्ममें पूर्णतया तत्पर रहकर किया और एक वर्षतक पातिव्रतत्यधर्ममें पूर्णतया तत्पर रहकर अंधे सास - ससुरकी और अल्पायु पतिकी प्रेमके साथ सेवा की । अन्तमें वर्षसमाप्तिके दिन ( ज्ये० शु० १५ को ) सत्यवान् और सावित्री समिधा लानेको वनमें गये । वहाँ एक विषधर सर्पने सत्यवानको डस लिया । वह बेहोश होकर गिर गया । उसी अवस्थामें यमराज आये और सत्यवानके सूक्ष्मशरीरको ले जाने लगे । किंतु फिर उन्होंने सती सावित्रीकी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर सत्यवानको सजीव कर दिया और सावित्रीको सौ पुत्र होने तथा राज्यच्युत अंधे सास - ससुरको राज्यसहित दृष्टि प्राप्त होनेका वर दिया ।

१. नारी वा विधवा वापि पुत्रीपुत्रविवर्जिता ।

सभर्तूका सपुत्रा वा कुर्याद् व्रतमिदं शुभम् ॥ ( स्कान्दे धर्मवचनम् )

२. यह विधि जयसिंहकल्पद्रुममें लिखित व्रतपद्धतिके अनुसार है ।

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Last Updated : January 17, 2009

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