शिवगीता - अध्याय ४

विविध गीतामे प्राचीन ऋषी मुनींद्वारा रचा हुवा विश्व कल्याणकारी मार्गदर्शक तत्त्वोंका संग्रह है।

Gita has the essence of Hinduism, Hindu philosophy and a guide to peaceful life and ever lasting world peace.


सूतजी बोले - अगस्त्यजी जब ऐसा कहकर आश्रम को चले गये तब रामगिरिके ऊपर गोदावरीके पवित्र आश्रममें रामचन्द्र ॥१॥

शिवलिंग का स्थापन कर अगस्त्यजीके उपदेशानुसार विरजादीक्षा ले सर्वाग में विभूति लगाय रुद्राक्ष के आभरण पहर ॥२॥

शिवलिंगको गोदावरीके पवित्र जलोंसे अभिषेकित कर वन के उत्पन्न हुए फुलों और फूलों से उनका पूजन कर ॥३॥

भस्म लगाये भस्मपरही शयन करते व्याघ्रचर्म के आसनपर बैठे रातदिन अनन्य बुद्धिकर शिवसहस्त्रनाम जपने लगे ॥४॥

एक महीने तक फलाहार, एक महीने तक पात्तों का भोजन, एक महीना जलपान और एक महीना पवन को आहार करे ॥५॥

शान्त अन्तःकरण, इन्द्रियोंको जीते, प्रसन्न मन, महेश्वर का ध्यान किये, ह्रदयकमलमें विराजमान, अर्द्धांग में पार्वतीको धारण किये ॥६॥

चार भुजा तीन नेत्र बिजली के समान पीली जटा धारे करोड़ो सूर्यके समान प्रकाशमान कोटि चन्द्रमाके समान शीतल ॥७॥

सम्पूर्ण गहने पहरे सर्पोका यज्ञोपवीत व्याघ्रचर्म ओढे भक्तों के अभयदाता वरदायक मुद्रा धारे ॥८॥

व्याघ्रचर्मका ही उत्तरीय (दुपट्टा) ओढे, देवता और असुरोंसे नमस्कार पाये, पंचमुख चन्द्रमा मस्तकपर धारे, त्रिशूल और डमरू लिये ॥९॥

नित्य अविनाशी शुद्ध अक्षय निर्विकार एकरूप, शिवजीका इस प्रकार नित्य ध्यान करते चार महीने बीत गये ॥१०॥

तब प्रलयकालिक समुद्रके समान भयंकर शब्द प्रगट हुआ, जिस प्रकारसे समुद्र मंथनके समय मंदराचलके बिलोनेसे ध्वनि उठी थी ॥११॥

त्रिपुरासुरके जलानेके समय शिवजीके बाणकि अग्निके समान भयंकर महाशब्द सुनकर रामचंद्र चकित हो जबतक गोदावरीके तटोंकी ओर दृष्टि करते है ॥१२॥

तबतक भयंकर महातेजःपुञ्जं विप्र रामचन्द्रके आगे उपस्थित हुआ, उसी तेजसे चकित हो रामचंद्रको दशोंदिशा न सूझी ॥१३॥

हे द्विजश्रेष्ठ! आँखे मिच जानेसे राजकुमार मोहको प्राप्त हो गये और विचार करके जाना कि यह दैत्योंकी माया है ॥१४॥

फिर वह महावीर उठकर और अपने बडे धनुष्यको चढाकर तथा दिव्य मन्त्रोंसे अभिमन्त्रितकर तीक्ष्ण बाणोंपर दृष्टि करने लगे ॥१५॥

आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, सोमास्त्र, मोहनास्त्र, सूर्यास्त्र, पर्वतास्त्र, सुदर्शनास्त्र, महाचक्र, कालचक्र, वैष्णवास्त्र ॥१६॥

रुद्रास्त्र, पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र, कुबेरास्त्र, वज्रास्त्र, वायवास्त्र और परशुरामास्त्र इत्यादि अनेक मन्त्रोंका रामने प्रयोग किया ॥१७॥

परत्नु उस महातेजमें वे रामचन्द्रके अस्त्र और शस्त्र इस प्रकार लीन हो गये जैसे समुद्रमें पत्थर और ओले मग्न हो जाते है ॥१८॥

तब एक क्षणमात्रमें धनुष जलकर रामचन्द्रके हाथसे गिरा फिर तरकस अंगुलित्राण (जो अंगुलियोंमें पहनते है) गोधा जो प्रत्यञ्चाके आघातसे रक्षा करता है (यह चर्मके बने होते है) जलकर गिर पडे ॥१९॥

यह देखकर लक्ष्मण भयभीत और मूर्छित हो पृथ्वीमें गिरे और रामचन्द्र भी निस्तब्ध हो केवल घुटनेसे पृथ्वी में बैठ गये ॥२०॥

और आँखे मीचे भयभीत हो शंकरकी शरण को प्राप्त हुए और ऊँचे स्वरसे शिवसहस्त्रनामका जप करने लगे ॥२१॥

और शिवजीको पृथ्वीमें दण्डप्रणाम बारम्बार किया, फिरभी प्रथमकी समान दिङ्‌मण्डलको शब्दायमान करनेवाला शब्द हुआ ॥२२॥

उस घोर शब्दसे पृथ्वी चलायमान और पर्वत कंपित हुए तब फिर क्षणमात्रमें वह तेज चंद्रमाके समान शीतल हुआ ॥२३॥

जितनेमें रामचंद्र नेत्र खोलकर देखते है तब तक ही उन्होने संपूर्ण भूषण धारण किये वृषभ का दर्शन किया ॥२४॥

जिसका रंग अमृतके मंथनेसे उत्पन्न हुए मक्खनके पिंडकी नाई श्‍वेत है, जिसके श्रृंगाग्रमें सुवर्णमें बंधी मरकत मणि शोभित होती है ॥२५॥

नीलमणिके समान नेत्र ह्रस्वकण्ठसाम्रासे भूषित रत्नोंकी खोगीर से शोभित जो कि श्‍वेत चामरों से युक्त है ॥२६॥

घरघर शब्दवाली घंटिकाओंसे दशों दिशाओंको पूर्ण करते हुए वृषभपर चढे स्फटिक मणि के समान शुभ्रकांति महादेवजी ॥२७॥

जो कि, करोडों सुर्यकी समान प्रकाशमान, करोडों चन्द्रमाओंके समान शीतल, व्याघ्र चर्मका वस्त्रधारे, नागोंका यज्ञोपवीत पहरे ॥२८॥

सम्पूर्ण अलंकारोंसे युक्त, बिजलीकी समान पीली जटा धारे, नीलकण्ठ, व्याघ्रका चर्म ओढे, चन्द्रमा मस्तकपर विराजमान ॥२९॥

अनेक प्रकारके शस्त्रोंसे युक्त, दश बाहु, तीन नेत्र, युवावस्था पुरुषोंमें श्रेष्ठ, सच्चिदानन्दस्वरूप ॥३०॥

तथा निकट बैठी हुई पूर्ण चन्द्रमुखी, नीलकमल के समान अथवा मरकत मणिके समान सुन्दर शरीरवाली ॥३१॥

मोतियोंके आभरणोंसे युक्त, तारोंसे युक्त रात्रिकी, समान शोभित तथा विन्ध्यपर्वतकी समान ऊँचे स्तनभार से नम्र ॥३२॥

है वा नहीं ऐसे संदिग्ध मध्यभाग में सुन्दर है वस्त्र जिसका और दिव्य आभूषणोंसे युक्त कस्तूरी आदि दिव्य सुगन्ध लगाये ॥३३॥

दिव्य माला धारे, नील कमलके समान नेत्र, टेढे केशोंसे शोभित मुखमें ताम्बूल खाने से शोभित अधरोष्ठवाली ॥३४॥

शिवजीके आलिंगनसे उत्पन्न हुए रोमांच शरीरवाली सच्चिदानन्द रूप त्रिलोकीकी माता ॥३५॥

सब सुन्दर पदार्थोंके सारकी मूर्तिमान पात्र पार्वतीको रामचन्द्रने देखा । इसी प्रकार अपने २ वाहनपर चढे आयुध हाथमें लिये ॥३६॥

बृहद्रथन्तरादि सामगायन करते अपनी २ स्त्रियोंसे युक्त इन्द्रादि दिक्पालोंसे सेवित ॥३७॥

और सबसे आगे गरुडपर चढे, शंख, चक्र, गदा और पद्म धारे, नील मेघके समान शरीरधारी, बिजलीके समान कान्तिमान, लक्ष्मीसे युक्त ॥३८॥

एकाग्र चित्तसे रुद्राध्यायका पाठ करते हुए जनार्दन और पीछे हंसपर चढे हुए चतुर्मुख ब्रह्माजी ॥३९॥

चारो मुखों से ऋक यजुः साम और अथर्व इन चारो वेद तथा रुद्रसूक्तका जप करते बड़ी दाढी और जटा धारण किये सरस्वती सहित महेश्वरकी स्तुति करते ॥४०॥

इसी प्रकार अथर्वशीर्ष के मंत्रो से स्तुति करते हुए मुनिमन्डल और गंगादि नदियोंसे युक्त नीलवर्ण सागर ॥४१॥

श्वेताश्वतर के मंत्रोसे शिवजीको स्तुति करते कैलास पर्वतके समान अनन्तादि महानाग ॥४२॥

रत्नोंसे विभूषित कैवल्य उपनिषद् पाठ करनेहारे स्तुति कर रहे है और सुवर्णकी छड़ी हाथमें लिये नंदीके आगे स्थित हुए ॥४३॥

दक्षिणकी ओर पर्वतके समान मुषकपर चढे गणेशजी और उत्तरकी ओर मयूर पर चढ़े कार्तिकेय ॥४४॥

महाकाल और चण्डेश्वर पार्षदगण सेनानायक भयंकर मूर्ति धारे इधर उधर स्थित दावाग्नि की समान दीप्तिमान दुर स्थित कालाग्नि रुद्र ॥४५॥

तीन चरण है जिसके और कुटिल मूर्तिवाले प्रमथ गण तथा उनके अग्रभागमें नृत्य करनेवाले भृंगिरिटि ऐसे अनेक मूर्तिवाले करोडों प्रमथगण ॥४६॥

और अनेक प्रकारके वाहनोंपर स्थित चारो ओर मातृमण्डल और पञ्चाक्षरी विद्या जपनेमें तत्पर सिद्ध विद्याधरादिक ॥४७॥

और दिव्य रुद्रके गीत गाते हुए किन्नरोंके समूह और (त्र्यम्बक यजामहे) इस मंत्र को जपनेहारे ब्राह्मणोंके समूह ॥४८॥

आकाशमें वीणा बजाकर गाते और नाचते हुए नारद और नाट्यकी विधिसे नृत्य करते हुए रम्भादिक अप्सराओंके झुण्ड ॥४९॥

और गानेमें तत्पर चित्ररथदि गन्धर्वोके समूह तथा शिवजीके कानोमें कुण्डलताको प्राप्त हुए कम्बल और अश्‍वतर नाग ॥५०॥

तथा गीत गानेमें तत्पर कम्बल और अश्वतरनागोंसे शोभित सब देवसभाको देखकर रामचन्द्र कृतार्थ हुए ॥५१॥

और हर्षसे गद्‌गदकण्ठ हो शिवजी की स्तुति और दिव्य सहस्त्रनामके उच्चारणसे बारंबार प्रणाम करने लगे ॥५२॥

इति श्रीपद्मपुराणान्तर्गतशिवगीतायां भाषाटीकायां शिवप्रादुर्भावो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥

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Last Updated : October 15, 2010

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