शिवगीता - अध्याय १

विविध गीतामे प्राचीन ऋषी मुनींद्वारा रचा हुवा विश्व कल्याणकारी मार्गदर्शक तत्त्वोंका संग्रह है।

Gita has the essence of Hinduism, Hindu philosophy and a guide to peaceful life and ever lasting world peace.


श्रीगणेशाय नमः ॥ श्रीसरस्वत्यै नमः ॥ श्रीगुरूभ्यो नमः ॥ श्रीसाम्बसदाशिवायनमः ॥ ॐ अस्य श्रीशिवगितामालामन्त्रस्य श्रीवेदव्यासरूप्यगस्त्यऋषिः ॥

जगतीच्छन्दः ॥ श्रीसदाशिवः परमात्मा देवता ॥ प्रणवे बीजम् ॥ सर्वव्यापक इति शक्तिः ॥ ह्री कीलकम् ॥ ब्रह्मात्मसाक्षात्कारार्थे जपे विनियोगः ॥ अथ न्यासः ॥

ॐ श्रीवेदव्यासरूप्यगस्त्यऋषिः शिरसि ॥ ॐ जगतीच्छन्द मुखे ॥ ॐ श्रीसदाशिवः परमात्मादेवता ह्रदये ॥ ॐ प्रणवे बीजं नाभौ ॥ ॐ सर्वव्यापक इति शक्तिः गुह्ये ॥

ॐ ह्री कीलकं पादयोः ॥ ॐ ह्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ॥ ॐ ह्री तर्जनीभ्यां नमः ॥ ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः ॥ ॐ ह्रीं अनामिकाभ्यां नमः ॥ ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥

ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्या नमः ॥ एवं ह्रदयादि ॥

दोहा-गौरि गिरीश गणेश रवि, शशि सहसानन राम । सबको वंदन करत हूं, सिद्ध होहि सब काम ॥१॥

सूतजी बोले हे शौनकादिको ! इसके उपरान्त अब मै शुद्ध और कैवल्यमुक्तिदायक संसारके दुःख छुड़ाने में औषधीरूप शिवगीतारत्‍नको शिवजीके अनुग्रहसे वर्णन करता हूँ ॥१॥

न कर्मो के अनुष्ठान न दान न तप से मनुष्य मुक्ति को प्राप्त होता है किन्तु ज्ञान से ही प्राप्त होता है ॥२॥

आगे शिवजी ने दण्डकवनमें रामचन्द्रको जो शिवगीता उपदेश की है वह गुप्तसे भी गुप्त है ॥३॥

जिसके श्रवण मात्र से ही मनुष्य मुक्ति को प्राप्त होता है जो पूर्वकाल में स्कन्दजीने सनत्कुमार से वर्णन की थी ॥४॥

वह मुनिश्रेष्ठ सनत्कुमार व्यासजीसे कहते हुए व्यासजीने कृपाकरके वह हमसे वर्णन की ॥५॥

और कहा भी था कि, यह तुम गीता किसी को नही देना, हे सूतपुत्र! ऐसा वचन पालन न करने से देव क्षुभित हो शाप देते है ॥६॥

हे ब्राह्मणो! तब मैने भगवान्‌ व्यासजी से पूछा हे भगवन्‌ ! सब देवता क्यो क्षोभ करते और शाप देते है ॥७॥

उनकी इसमें क्या हानि है, जो वे देवता क्रोध करते है । यह सुनकर व्यासजी मुझसे बोले हे वत्स! तू अपने प्रश्न का उत्तर सुन ॥८॥

जो ब्राह्मण नित्य अग्निहोत्र करते और गृहस्थाश्रममें रहते है वही सब फलों के देनेहार देवताओं को कामधेनु है ॥९॥

भक्ष्य, भोज्य, पान करने योग्य, जो कुछ पर्वोमे यज्ञ किया गया है, सो हविद्वारा अग्निमें आहुती दी गई है, वह सब स्वर्ग में मिलती है ॥१०॥

देवताओंको स्वर्गमें इष्टसिद्धि देनेवाला और कुछ नही है जैसे गृहस्थी पुरुषों को दुही गई गाय ले जाने से केवल दुःखही होता है ॥११॥

इसी प्रकार ज्ञानवान ब्राह्मण देवताओंको दुःखदाता ही है कारण कि, वह कर्म नही करता इस कारण इसके विषय भार्या पुत्रादि में प्रवेश करके देवता विघ्न करते है ॥१२॥

इससे किसी देहधारीकी शिवमें भक्ति नही होती इस कारण मूर्खोंको शिवका प्रसाद नही मिलता ॥१३॥

और जो यथाकथश्चित जानता भी है वह किसी कारण मध्यें ही खंडित हो जाता है और जो किसीको ज्ञान हुआ भी तो वह विश्वास नही भजता ॥१४॥

ऋषय ऊचुः ।

ऋषि बोले जब इस प्रकारसे देवता शरीरधारियों को विघ्न करते है तो फिर इसमें किसका पराक्रम है जो मुक्तिको प्राप्त होता है ॥१५॥

हे सूतपुत्र ! आप सत्य कहिये कि, उनका उपाय है या नही है ॥सूतजी बोले करोड जन्मके पुण्यसंचय होने से शिवमें भक्ति उत्पन्न होती है ॥१६॥

उस भक्ति के होनेसे इष्टपूर्तादि कर्मोंकी कामना छोड़कर मनुष्य शिवजीमे अर्पण बुद्धिसे यथाविधि कर्म करता है ॥१७॥

उन शिवजीकी कृपा से जब यह प्राणी दृढ भक्तिमान होता है, तब विघ्न छोड़कर भयभीत हो देवता चले जाते है ॥१८॥

उस भक्तिके करनेसे शिवजीके चरित्र श्रवण करनेकी अभिलाषा उत्पन्न होती है, सुननेसे ज्ञान और ज्ञानसे मुक्ति हो जाती है ॥१९॥

बहुत कहनेसे क्या है, जिसकी शिवजी में दृढ भक्ति है वह करोड़ो पापोसे ग्रसा हो तो भी मुक्त हो जाता है ॥२०॥

अनादरसे, मूर्खतासे, परिहाससे, कपटतासे भी जो मनुष्य शिवभक्तिमें तत्पर है वह अन्त्यज (चांडाल) भी मुक्त हो जाता है ॥२१॥

इस प्रकारसे भक्ति सदा सबके करने योग्य है, इस भक्ति के होतेभी जो मनुष्य संसार से न छूटै ॥२२॥

उस संसारबंधनसे न छूटनेवाले की समान दूसरा कोई भी मूर्ख नही और कुछ शिवजी भक्तिसे ही प्रसन्न नही होते जो नियमसे केवल भक्ति या द्रोहही करते है ॥२३॥

उनपरभी प्रसन्न हो शिव मनवांछित फलप्रदान करते है बडे मोलकी वस्तु कुछ लेकर वा अल्प मोलकी वस्तु अथवा केवल जलही लेकर ॥२४॥

जो नियमसे शिवार्पण करते है, शिवजी प्रसन्न हो उसे त्रैलोक्य देते है, और जो यह न हो सके तो नियम से नमस्कार वा प्रदक्षिणाः ॥२५॥

जो नित्यप्रति शिवजी की करता है, उसके ऊपर भी शिवजी प्रसन्न होते है, और जो प्रदक्षिणा में असमर्थ हो केवल मन में ही शिवजी का ध्यान करै ॥२६॥

चलते बैठते में जो उनका स्मरण करे उसकी भी अभीष्ट पदार्थ प्रदान करते है, चन्दन बेलकाष्ठ तथा वनमें उत्पन्न हुए ॥२७॥

फल जिसके अधिक प्रीति करनेवाले है उस शिवजी की सेवा करनेमें त्रिलोकी में कौन वस्तु दुर्लभ है ? ॥२८॥

वनके उत्पन्न हुए फल मूलादिमें शिवजीकी जैसी प्रीति है वैसी ग्राम नगरके उत्पन्न हुए उत्तम उत्तम फल मूलोंमें नही ॥२९॥

जो ऐसे देवताको छोड़कर अन्य देवताका भजन सेवन करता है, वह मानो गंगा का त्याग करके मृगतृष्णाकी इच्छा करता है ३०॥

परन्तु जिनको करोड़ो जन्मों के पाप चिपट रहे है, उनका चित्त अज्ञान अंधकार से आच्छादित हो रहा है, उनको शिवजी की भक्ति प्रकाशित नही होती ॥३१॥

काल देश स्थल का कुछ नियम नही है जहाँ इसका चित्त रमें वही ध्यान करे ॥३२॥

शिवरूपसे अपने आत्मामें ध्यान करनेसे शिवकी ही मुक्ति को प्राप्त हो जाती है, जिसकी आयु बहुत थोड़ी लक्ष्मी से भी हीन हो और शिवजीकी एक अंशरूपि सार्वभौमपदयुक्त ॥३३॥

'मैं राजा हूं' ऐसे अभिमान से कहनेवाले को वंशसहित संहार करते है । जो सम्पूर्ण लोकका कर्ता तथा अक्षय ऐश्वर्यवान पुरुषभी ॥३४॥

अभिमारहित हो जो 'शिवः शिवोहं' इस प्रकार से कथन करता है उसको शिव आत्मस्वरूपके तादात्म्यभोगी अर्थात् शिवरूपही कर देते है ॥३५॥

हे ऋषियो! जिस व्रतके करने से प्राणीके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यह चारों पदार्थो हस्तगत होते है मै वह पाशुपत व्रत तुमसे वर्णन करता हूँ ॥३६॥

विरजानामक दीक्षाको करके विभूति और रुद्राक्षको धारण कर वेदसारनामक शिवसहस्त्रनामको जप करते हुए ॥३७॥

इस मानव शरीरको त्यागकर शैवशरीर को प्राप्त होने पर लोकको कल्याण करनेहारे शंकर प्रसन्न होकर ॥३८॥

तुमको दर्शन देकर कैवल्य मुक्ति देंगे जब रामचन्द्र दण्डकारण्यमें वास करते थे, तब अगस्त्यजीने उन्हे वह उपदेश दिया था ॥३९॥

इति श्रीपद्मपुराणे उपरिभागे शिवगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे शिवराघवसंवादे शिवभक्त्युत्कर्षनिरूपणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥

वह मैं सब तुमासे कहता हूँ, तुम भक्तियुक्त हो श्रवण करो ॥४०॥

इति श्रीपद्मपुराणे उपरिभागे शिवगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे अगस्त्यराघवसंवादोपक्रमे भाषाटीकायां प्रथमोऽध्यायः ॥१॥

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Last Updated : October 15, 2010

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