विवाह होम

इस सृष्टि में उत्पन्न किसी वस्तु को, मनुष्य प्राणी भी, उत्तम स्थिती में लाने का वा करने का अर्थ ’संस्कार’ है।


विवाह होम

विवाहादि संस्कारो मे मुख्य होम होते है । मुख्य होम की आहुतियां से पूर्व और अन्त में सूत्रोक्त मन्त्रों से घृताहुति दे । विधि-

१. आघारावाज्यभागाहुती -

यज्ञकुण्ड में प्रथमतः उत्तर अंग में एक और दक्षिन अंग में एक इस प्रकार दो आहुतियां दे । इसकी आघारावाज्याहुति संज्ञा है । मध्यभाग में दो दे, उसकी आज्यभागाहुति संज्ञा है । पूर्व कहे अनुसार यज्ञाग्नि मे डाली गयी समिधाओं के प्रज्वलित होने पर उन प्रज्वलित समिधाओं पर सिद्ध घृतपात्र से स्रुवा भर घृत लेकर वह घृतपूर्ण स्रुवा अंगूठे, मध्यमा तथा अनामिका के अग्रभाग से उसके मध्य भाग कोपकड़ कर उसके घृत की-

ॐ अग्नये स्वाहा इदमग्नये इदन्नमम ॥

यह मन्त्र पढ़कर उत्तरांग मे आहुति दे । इसी प्रकार

ॐ सोमाय स्वाहा - इदं सोमाय, इदन्न मम ॥

यह मन्त्र बोलकर दक्षिणांग मे प्रज्वलित समिधा-काष्ठों पर दूसरी आहुतिदे । आगे -

ॐ प्रजापतये स्वाहा - इदं प्रजापतय, इदन्न मम ॥

ॐ इन्द्राय स्वाहा - इदमिन्द्राय, इदन्न मम ॥

इन प्रत्येक मन्त्र से एक-एक घृताहुति मध्यभाग में प्रज्वलित समिधाओं पर पुर्वोक्त रीति से दे ।

२. व्याह्रति आहुति -

ये चार आहुतियां है । ये पूर्वोक्त आघारावाज्याभागाहुति के पश्चात दे, तथा प्रधान होम के अन्त मे दे । सिद्ध घृतपात्र से पूर्वोक्त रीति से स्रुवा से घृत लेकर प्रज्वलित समिधा काष्ठों पर -

ॐ भूरग्नये स्वाहा -इदमग्नये, इदन्न मम ॥

ॐ भुवर्वायवे स्वाहा - इदं वायवे, इदन्न मम ॥

ॐ स्वरादित्याय स्वाहा - इदमित्याय, इदन्न मम ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः अग्निवाय्वादित्येभ्यः स्वाहा - इदमग्नि वाय्वादित्येभ्यः इदन्न मम ॥

उपर्युक्त प्रत्येक मन्त्र से एक-एक इस प्रकार चार आहुतिया दे ।

३. स्विष्टकृद्‌होमाहुति - यह आहुति एक ही है । मुख्य होम जैसा होगा उसके अनुसार घृत अथवा भात की सबसे अन्त में एक एक दे । इस आहुति का मन्त्र-

ॐ यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम् । अग्निष्टत्स्विष्टकृद विद्यात सर्वं स्विष्टं सुहुत करोतु मे । अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा - इदमग्नये स्विष्टकृते, इदन्न मम ।

४. चतस्त्र आज्याहुति - इन चार घृताहुतियों का होम, चौल, उपनयन, समावर्तन तथा विवाह इन संस्कारो मे मुख्य है । ये चार आहुतियां वेद मन्त्रों से दी जाती है । वे वेदमन्त्र-

ओं भुर्भूवः स्वः । अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः ।

आरे बाधस्व दुच्छुनां स्वाहा ॥ इदमग्नये पवमानाय - इदन्न मम ॥१॥

ओं भूर्भुवः स्वः । अग्निऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः ।

तमीमहे महागयं स्वाहा ॥ इदमग्नये पवमानाय - इदन्न मम ॥२॥

ओं भुर्भुवः स्वः । अग्ने पवंस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीयम् ।

दधद्रयि मयि पोषं स्वाहा ॥ इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम ॥३॥

औं भूर्भुव स्वः । प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभुव ।

यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम् पतयो रयीणां स्वाहा ॥

इदं प्रजापतये - इदं न मम ॥४॥

५. प्राजापत्यहुति -

यह एकमात्र आहुति केवल मन मे बोली जाती है । यह होमानुसार घृत अथवा स्थालीपाक - पक्व भाव की दी जाती है । यह नित्य सर्वत्र मंगल होम में प्रयुक्त होती है । इसका कब-कब कैसे-कैसे उपयोग करना चाहिये आगे संस्कारो में यथास्नान यह बात स्पष्ट कर दी गयी है । इस आहुति का मन्त्र-

ॐ प्रजापतये स्वाहा - इसं प्रजापतये इदन्न मम ॥

६. अष्टाज्याहुतिः -

ये आठ घृताहुतियां नित्य सर्वत होम मे दी जाती है । ये कब-कब तथा कहां-कहां देनी चाहिये, इसका स्पष्टोकरण आगे संस्कारों मे उस-उस होम के प्रसंग में किया गया है । इस आहुति के मन्त्र-

ओं त्वं नो अग्ने वरुणस्य विद्वान देवस्य हेळोऽव यासिसीष्ठाः ।

यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषांसि प्र मुमुग्ध्यस्मत्‌ स्वाहा ॥

इदमग्नीवरुणाभ्याम् - इद न मम ॥१॥

ओं स त्वं नो अग्नेऽत्वमो भवोति नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ ।

अव यक्ष्व नो वरुणं रराणो वीहि मृळीकं सुहवो न एधि स्वाहा ॥

इदमग्नीवरूणाभ्याम - इदं न मम ॥२॥

ओम इमं मे वरुण श्रुधी हवमद्या च मूळय ।

त्वामवस्युरा चके स्वाहा ॥ इदं वरूणाय- इदं न मम ॥३॥

ओं तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः ।

अहेळमानो वरुणेह बोध्युरुशस मा न आयुः प्र मोषीः स्वाहा ॥

इदं वरुणाय - इदं न मम ॥४॥

ओं ये ते शतं वरुण ये सहस्त्र यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः ।

तेभिर्नो अद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा ॥

इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवै विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुदभ्यः स्वर्केभ्यः इदं न मम ॥५॥

ओम अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमित्त्वमयासि । अया नो यज्ञं वहास्यया नो धेहि भेषज स्वाहा ॥

इदमग्नये अयसे - इदं न मम ॥६॥

ओम् उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय ।

अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा ॥

इदं वरुणायाऽऽदित्यायादितये च-इद न मम ॥७॥

ओं भवतं नः समनसौ सचेतसावरेपसौ । मा यज्ञ हि सिष्ट मा यज्ञपति जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः स्वाहा ॥

इदं जातवेदोभ्याम् - इदं न मम ॥८॥

४.

मन्त्र पठन

विवाहादि संस्कारो में ईश्वरोपासना सम्बन्धी तथा यजमान (संस्कारकर्ता ) की प्रतिज्ञा से सम्बन्धित वेदमन्त्र तथा सूत्रमत्रं वस्तुतः संस्कारकर्ता (यजमान) को ही बोलने चाहिये । फिर भी वे मन्त्र यथोचित रीति से शुद्ध तथा क्रम से बोलने में उसकी ओर से असावधानी प्रमाद अथवा आलस्य न हो, अतः पुरोहित को भी यजमान के साथ मन्त्र बोलना चाहिये । यदि कोई यजमान जड़, मतिमन्द, अपढ़. शुद्ध अक्षर उच्चारण करने में असमर्थ हो, तो ईश्वरोपासना तथा आहुति के सभी मन्त्र पुरोहित बोले । प्रतिज्ञा के मन्त्र यजमान से ही पढ़वाने चाहिये । उत्तम भोजन, उत्तम वस्त्रालंकार, रंग मंडप इत्यादि शोभा सम्बन्धी बातो की तैयारी की ओर यजमान पहले ही जितना ध्यान देता है, उससे भी अधिक उसे मन्त्र पठन की तैयारी की ओर विशेष ध्यान देना चाहिये

N/A

References : N/A
Last Updated : May 24, 2018

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP