हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|दासबोध हिन्दी अनुवाद|मंत्रों का| समास छठवां शुद्धज्ञाननिरूपणनाम मंत्रों का समास पहला गुरुनिश्चयनाम समास दूसरा गुरुलक्षणनाम समास तीसरा शिष्यलक्षणनाम समास चौथा उपदेशनाम समास पांचवां बहुधाज्ञाननाम समास छठवां शुद्धज्ञाननिरूपणनाम समास सातवा बद्धलक्षणनाम समास आठवां मुमुक्षुलक्षणनाम समास नववां साधकलक्षण निरूपणनाम समास दसवां सिद्धलक्षणनाम समास छठवां शुद्धज्ञाननिरूपणनाम ‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन समर्थ रामदास लिखीत दासबोध में है । Tags : dasbodhramdasदासबोधरामदास समास छठवां शुद्धज्ञाननिरूपणनाम Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ सुनो ज्ञान के लक्षण । ज्ञान याने आत्मज्ञान । देखें स्वयं को स्वयं । इसका नाम ज्ञान ॥१॥मुख्य देव को जानें । सत्यस्वरूप पहचानें । नित्यानित्य विचार करें । इसका नाम ज्ञान ॥२॥ जहां दृश्य प्रकृति हटे । पंचभूत समाप्त होते । समूल द्वैत छूटे। इसका नाम ज्ञान ॥३॥ मनबुद्धिअगोचर । न समझे तर्क का विचार । उल्लेख परा से भी पर । इसका नाम ज्ञान ॥४॥ जहां नहीं दृश्यभान । जहां ज्ञातृत्व ही अज्ञान । विमल शुद्ध स्वरूपज्ञान । कहते इसे ॥५॥ सर्वसाक्षिणी अवस्था तुर्या । उसे ज्ञान ऐसे कहा जाता। मगर वह जानो व्यर्थ का । पदार्थ ज्ञान ॥६॥ दृश्य पदार्थ पहचानिये । उसे पदार्थज्ञान बोलिये । शुद्ध स्वरूप को जानिये । इसका नाम स्वरूपज्ञान ॥७॥ जहां सर्व ही नहीं शाश्वत । वहां कैसा सर्व साक्षित्व । इस कारण तुर्या का ज्ञान शुद्ध । मानें ही नहीं ॥८॥ज्ञान याने अद्वैत । तुर्या प्रत्यक्ष द्वैत । इस कारण शुद्ध ज्ञान वह नित्य । अलग ही होता ॥९॥ सुनो शुद्ध ज्ञान के लक्षण । शुद्ध स्वरूप ही स्वयं । इसका नाम शुद्ध स्वरूपज्ञान । जानें श्रोताओं ॥१०॥ महावाक्य उपदेश भला । परंतु उसका जप नहीं कहा । केवल विचार ही उसका । करना चाहिये साधक ने ॥११॥महावाक्य उपदेशसार । परंतु लेना चाहिये विचार । उसके जप से अंधकार । न मिटे भ्रांति का ॥१२॥ देखें अगर अर्थ महावाक्य का । स्वयं वस्तु ही तत्त्वतः । उसका जप करे तो वृथा । थकान ही होती ॥१३॥ महावाक्य का विवरण । यह मुख्यज्ञान का लक्षण । शुद्ध लक्ष्यांश से स्वयं । वस्तु ही है ॥१४॥ स्वयं को स्वयं का लाभ । यह ज्ञान परम दुर्लभ । जो आदि अंत में स्वयंभ । स्वरूप ही स्वयं ॥१५॥ जहां से यह सर्व ही प्रकटे । और सकल ही जहां मिटे । वह ज्ञान होते ही टूटे । बंधन भ्रांति का ॥१६॥ मत और मतांतर । जहां होते निर्विकार । अति सूक्ष्म विचार । से देखा तो है ऐक्य ॥१७॥ जो इस चराचर का मूल । शुद्ध स्वरूप निर्मल । इसका नाम ज्ञान केवल । वेदांतमत से ॥१८॥ खोजनेपर अपना मूल स्थान । सहज ही उडे अज्ञान । इसका नाम कहिये ब्रह्मज्ञान । मोक्षदायक ॥१९॥ जब अपने को पहचाना जाता । शरीर में दृढ होती सर्वज्ञता । वहां एकदेशी वार्ता । निःशेष उड़े ॥२०॥ मैं कौन ऐसा हेत । धरकर देखें देहातीत । अवलोकन करने पर नेमस्त । स्वरूप ही होता ॥२१॥ अस्तु पहले एक से एक बढ़कर । जिन्होंने ज्ञान से भवपार । पार कर लिये वे साचार । सुनो अब ॥२२॥ व्यास वसिष्ठ महामुनि । शुक नारद समाधानी । जनकादिक महाज्ञानी । इसी ज्ञान से ॥२३॥ वामदेवादिक योगेश्वर । वाल्मिक अत्रि ऋषीश्वर । शोनकादि अध्यात्मसार । वेदांतमत से ॥२४॥ सनकादिक मुख्यतः । मीन गोरक्षमुनि आदिनाथ । और वचनों से करे कथित । तो अगाध है ॥२५॥ सिद्ध मुनि महानुभाव । सकलों का जो अंतर्भाव । जिस सुख से महादेव । डोलते सदा ॥२६॥ जो वेदशास्त्रों का सार । सिद्धांतधादांतविचार । जिसकी प्राप्ति भाग्यानुसार । भाविकों हो होती ॥२७॥ साधु संत और सज्जन । भूत भविष्य वर्तमान । सभी का गुह्यज्ञान । सो कहता हूं अब ॥२८॥ तीर्थ व्रत तप दान से । जो न मिले धूम्रपान से । पंचाग्नि गोरांजन से । जो प्राप्त होता नहीं ॥२९॥ सकल साधनों का फल । ज्ञान का शिखर ही केवल । जिससे संशय का मूल । निःशेष टूटे ॥३०॥ छपन्न भाषा उतने ग्रंथ । आदि से लेकर वेदांत । इन सभी का गहनार्थ । एक ही है ॥३१॥ जो ना जान सके पुराण भी । जहां थक गये वेदवाणी । वही अब क्षण इसी । बोधू गुरुकृपा से ॥३२॥ नहीं देखा संस्कृत में । प्रविष्ट नहीं मराठी ग्रंथ में । बसे कृपामूर्ति हृदय में । सद्गुरु स्वामी ॥३३॥ अब ना लगे संस्कृत । अथवा ग्रंथ प्राकृत । मेरे स्वामी कृपासहित । हृदय में बसे ॥३४॥ न करते हुये वेदाभ्यास । अथवा श्रवण सायास । प्रयत्न बिन सौरस । सद्गुरुकृपा ॥३५॥ ग्रंथ हो मात्र महाराष्ट्र । उससे संस्कृत श्रेष्ठ । उस संस्कृत में स्पष्ट । श्रेष्ठ सो वेदांत ॥३६॥ उस वेदांत से परे कुछ भी । सर्वथा श्रेष्ठ नहीं । जहां वेदगर्भ सर्व ही । प्रकट हुआ ॥३७॥ अस्तु ऐसा जो वेदांत । उस वेदांत का भी मथितार्थ । अति गहन जो परमार्थ । सो सुनो अब तुम ॥३८॥ अरे गहन से भी गहन । सो तू जान सद्गुरुवचन । सद्गुरुवचन से समाधान । होता निश्चित ॥३९॥सद्गुरुवचन वही वेदांत । सद्गुरुवचन वही सिद्धांत । सद्गुरुवचन वही धादांत । सप्रचित अब ॥४०॥ जो अत्यंत गहन । मेरे स्वामी के वचन । जिनसे मुझे समाधान । अत्यंत हुआ ॥४१॥ वह जो रहस्य मेरे जीव के । मैं कहना चाहूं तुझसे । अगर अवधान दोगे मुझे । तो अभी इसी क्षण ॥४२॥शिष्य म्लान वदन से बोले । सुदृढ चरण पकड़ लिये । तब फिर बोलना आरंभ किये । गुरूदेव ने ॥४३॥ अहं ब्रह्मास्मि महावाक्य । इसका अर्थ अतर्क्य । वह भी कहता हूं ऐक्य । गुरुशिष्य का जहां ॥४४॥ सुन रे शिष्य यहां का मर्म । स्वयं तू ही है ब्रह्म । इस संबंध में संदेह भ्रम । धरो ही नहीं ॥४५॥ नवविधा प्रकार से भजन । उसमें मुख्य वह आत्मनिवेदन । उसे समग्र प्रकार से कथन । करता हूं अब ॥४६॥निर्मित पंचभूत जो ये । कल्पांत में होंगे नष्ट यथान्वय । प्रकृति पुरुष जो ये । वह भी ब्रह्म होते ॥४७॥ दृश्य पदार्थ के अंततः । हम भी न बचते तत्त्वतः । ऐक्य रूप में एकता । मूलतः ही है ॥४८॥ नहीं सृष्टि की वार्ता । वहां मूलतः ही एकता । पिंड ब्रह्मांड जब देखा जाता । दिखता कहां ॥४९॥ ज्ञान वन्हि प्रकट होता । उससे दृश्य कूडा नष्ट होता । तदाकार होते ही मूल टूटता । भिन्नत्व का ॥५०॥ जब मिथ्यत्व से वृत्ति पलटे । तब दृश्य रहकर भी सिमटे । सहज ही इस प्रकार से । हुआ आत्मनिवेदन ॥५१॥अस्तु गुरुस्थान में अनन्यता । फिर तुझे कैसी रे चिंता । अभक्त सी भिन्नता । रहें ही नहीं ॥५२॥ अब इसी दृढीकरण । के लिये करें सद्गुरुभजन । सद्गुरुभजन से समाधान । निश्चित है ॥५३॥ रे शिष्य इसीका नाम आत्मज्ञान । इससे मिलता समाधान । भव भय का बंधन । समूल मिथ्या ॥५४॥ देह मैं लगता जिसे । आत्महत्यारा जान उसे । आना जाना देहाभिमान से । भोगते ही रहता ॥५५॥ अस्तु चारों देहों से अलग । जन्मकर्म से विलग । सकल व्यापक यह जग । में सबाह्य तू ॥५६॥ किसी को भी नहीं बंधन । भ्रांति से भूले जन । दृढ धरा देहाभिमान । इस कारण ॥५७॥ रे शिष्य एकांत में बैठें । स्वरूप में विश्रांति पायें । इन्हीं गुणों से दृढ होये । परमार्थ ये ॥५८॥ अखंड हो श्रवण मनन । तो ही प्राप्त होता समाधान । पूर्ण होते ही ब्रह्मज्ञान । वैराग्य आता शरीर में ॥५९॥ रे शिष्य मुक्त होकर अनर्गल । दोगे इंद्रियों को ढील । उससे तेरी तलमल । जायेगी नहीं ॥६०॥ विषयों में वैराग्य उपजा । उसे ही पूर्ण ज्ञान हुआ । मणि त्यागते ही मिला । राज्य जैसे ॥६१॥ मणि था सिंग का । धरकर लोभ उसका । मूर्खता से राज्य का । परित्याग किया ॥६२॥ सुनो रे शिष्य हो सावधान । अब करूं भविष्य कथन । जिस पुरुष का जो ध्यान । होता उसे वही प्राप्त ॥६३॥ इस कारण जो अविद्या । त्यागकर धरें सुविद्या । इन्ही गुणो से जगत्वंद्या । पाओगे शीघ्र ॥६४॥ सन्निपात के दुःख से । भयानक दिखे दृष्टि से । औषध लेते ही सुख से । आनंद पाते ॥६५॥ वैसे अज्ञानसन्निपात से । मिथ्या दिखता दृष्टि से । ज्ञानऔषध लेने से । नष्ट होते जड़ से ॥६६॥ मिथ्या स्वप्न में जो चिल्लाया । उसे जागृति में लाया । उससे पूर्व दशा पाया । जो निर्भय स्थिति ॥६७॥ मिथ्या ही मगर सत्य लगता । इस कारण दुःख होता । मिथ्या और निरसन होता । यह तो होये ना ॥६८॥ जाग्रत के लिये मिथ्या हुआ । मगर निद्रित को घेर लिया। जो जाग गया । उसे भय ही नहीं ॥६९॥मगर अविद्या निद्रा आती भरकर जैसे । सर्वांग भरता उन्माद से । पूर्ण जागृति श्रवणद्वार से । मनन से प्राप्त करें ॥७०॥ जागृति की पहचान । सुनो उसके लक्षण । जो विषयों से विरक्त पूर्ण । अभ्यंतर से ॥७१॥ जो विरक्त ना हो पायें । उसे साधक ऐसे जानिये । वह साधन अपनाये । बडप्पन त्यागकर ॥७२॥ साधन न भाये जिसे । वह बद्ध हुआ सिद्धत्व से । मुमुक्षु भला उससे । ज्ञानाधिकारी ॥७३॥ तब शिष्य ने किया प्रश्न । कैसे बद्धमुमुक्षु के लक्षण । साधकसिद्ध की पहचान । कैसे करें ॥७४॥ श्रोताओं को इसका उत्तर । दिया अगले समास में तत्पर । कथा को श्रोताओं सावध होकर । अवधान दीजिये ॥७५॥इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे शुद्धज्ञाननिरूपणनाम समास छठवां ॥६॥ N/A References : N/A Last Updated : February 13, 2025 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. 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