संस्कारप्रकरणम्‌ - श्लोक ६१ ते ७८

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


बालस्य बलहीनोऽपि शांत्पा जीवो बलप्रद : । यथोक्तवत्सरे कार्यमनुक्ते चोपनायनम्‌‍ ॥६१॥

अथ कालशुद्धि : । विप्रं वसंते क्षितिप निदाघे वैश्यं घनान्ते व्रतिनं विदघ्यात । माघादिशुक्लांतिकपचमासा : साधारणा वा सकलद्विजानाम्‌ ॥६२॥

अथ सर्वेषां ग्राह्यनक्षत्राणि । हस्तत्रये च श्रवणत्रये च धातृद्वये . त्र्युत्तरमैत्रभे च । पौष्णद्वये चादितिभद्वये च शस्तो द्विजानां खलु मौजिबंध : ॥६३॥

अथ वर्ज्यनक्षत्राणि । कृत्तिकाभरणीमूलज्येष्ठार्द्रासु विशाखयो : । पूर्वात्रये च सार्प्पर्क्षे न कुर्य्याच्चोपनायनम्‌ ॥६४॥

अथ यजुर्वेदातिरिक्तविपाणां पुनर्वसौ विशेष : । चन्द्रतारानुकूलेषु ग्रहांब्देषु शुभेष्वपि । पुनर्वसौ कृते विप्र : पुन ; संस्कारमर्हति ॥६५॥

अथ प्रतिवेदनक्षत्राणि पूर्वाहस्तत्रये सार्पश्रुतिमूलेषु बहूवृचाम्‌ । यजुषां पौष्णमैत्रार्कादित्यपुष्यमृदुध्रुवै : ॥६६॥

बालकका गुरु बलहीन भी हो तो शांति करके शुभ हो जाता है , इसवास्ते शांति करके यथोक्त वर्षमें यज्ञोपवीत करना चाहिये ॥६१॥

( कालशुद्धि ) ब्राह्मणोंको वसंत ऋतुमें अर्थात्‌ चैत्र , वैशाखमें , और क्षत्रियोंको ( ग्रीष्म ) ज्येष्ठ आषाढमें और वैश्योंको ( घनांत ) आश्विन कार्तिकमें यज्ञोपवीत लेना श्रेष्थ है , अथवा सम्पूर्णोंको माघ . फाल्गुन , चैत्र , वैशाख , ज्येष्ठमें लेलेना चाहिये ॥६२॥

( नक्षत्र ) ह . चि . स्वा . श्र . ध . श . रो . मृ . उत्तरा ३ अनु . रे . अश्वि . पुन . पुष्य . इन नक्षत्रोंमें सम्पूर्णोंको यज्ञोपवीत लेना श्रेष्ठ है ॥६३॥

( वर्जित नक्षत्र ) कृ . भ . मू . ज्ये . आ . वि . पू . ३ आश्ले . इन नक्षत्रोमें यज्ञोपवीत नही लेना चाहिये ॥६४॥

( यजुर्वेदातिरिक्त ब्राह्मणोंका पुनर्वसुमें विशेष ) और यदि चन्द्र , तारा , ग्रह वर्ष शुभ ही हो परन्तु पुनर्वसुमें यज्ञोपवीत लेलेवे तो यजुर्वेदी ब्राह्मणके विना फिर संस्कार करने योग्य होता है ॥६५॥

( जुदे जुदे वेदोंके नक्षत्र ) पूर्वा ३ ह . चि . स्वा . आश्ले . श्र . मू . यह नक्षत्र तो ऋग्वोदियोंके हैं , और रे . अनु . ह . पुन . पुष्य . मृ . चि . रो . उ . ३ यह यनुर्वेदियोंके हैं ॥६६॥

सामगानां हरीशार्कवसुपुष्योत्तराश्विभै : । धनिष्ठादितिमैत्राकेंष्विंदुपौष्णेष्वयवणाम्‌ ॥६७॥

अथ ग्राह्यास्तिथय : । शुक्लपक्षे द्वितीया च तृतीया पंचमी तथा । त्रयोदशी च दशमी सप्तमी व्रतबंधने ॥६८॥

श्रेष्ठा स्त्वेवादशी षष्ठी द्वादश्येतास्तु मध्यमा : । एकां चतुर्थी संत्यज्य कृष्णपक्षेऽपि मध्यमा : ॥६९॥

अथ वारा : । आचार्यकाव्यसौम्यानां वारा : शस्ता शशीनयो : ॥ वारौ तौ मध्यफलदौ निंदिताविवरौ व्रते ॥७०॥

अथ लग्ननि । लग्ने वृषे २ धनु : ९ सिंहे ५ कन्या ६ मिथुन ३ योरपि । व्रतबंध : शुभे योगे ब्रह्मक्षत्त्रविशां भवेत्‌ ॥७१॥

शाखाधिपतिवारश्व शाखाधिपबलं तथा । शाखाधिपतिलग्नं च दुर्लभं त्रितयं व्रते ॥७२॥

और श्र . आ . ह . ध . पु . उत्तरा ३ अश्वि . यह सामवेदियोंके हैं और ध . पुन . अनु . ह . मृ . रे . यह नक्षत्र अथर्ववेदियोंके यज्ञोपवीत लेनेके जानने ॥६७॥

( तिथि ) शुक्लपक्षमें २ । ३ । ५ । १३ । १० । ७ यह तिथि श्रेष्ठ हैं और ११।६।१२ यह मध्यम है और कृष्णपक्षमें चतुर्थीके विना पूर्वोक्त तिथि मध्यम जाननी ॥६८॥६९॥

और गुरु . शुक्र . बुध . यह वार श्रेष्ठ हैं तथा सोम सूर्य मध्यम हैं और मंगल शनिवार निषिद्ध हैं ॥७०॥

और वृष २ , धन ९ . सिंह ५ , कन्या ६ , मिथुन ३ यह लग्न संपूर्णके उपनयनमें श्रेष्ठ हैं ॥७१॥

परन्तु शाखाके पतिका वार और बल और लग्न यह तीनों दुर्लभ हैं यदि मिले तो बहुत श्रेष्ठ जानना ॥७२॥

अथ निषिद्धानि । कृष्णपक्षे शनौ रात्रौ प्रदोषे वा गलग्रहे । अन घ्यायेऽपराह्ने च न कुर्याद्वतबन्धनम्‌ ॥७३॥

विनर्तुना वसंतेन कृष्णपक्षे गलग्रहे । भ्रपराह्ने चोपनीत : पुन : संस्कारमर्हति । अथ गलग्रहा कृणपक्षे चतुर्थी च सप्तम्यादिदिनत्रयम्‌ । त्रयोदशीचतुष्कं च अष्टावेते गलग्रहा : ॥७४॥

अथात्र लग्नबलम्‌ । त्रिषष्ठाय ३ ॥ ११ गत : पापै : षडष्टांत्य ६ । ८ । १२ बिबर्जितै : । शुभौ : षष्ठाष्टलग्नांत्य ६ । ८ । १ । १२ वर्जितेन हिमांशुना ॥७५॥

लग्नस्थिते च रंध्रे च ८ पापे च मरणं बटो : । सौख्यं स्यात्त्रिषडायेषु ३।६।११ जडत्वमितरेषु च ॥७६॥

चंद्र : कूरास्तनौ नैष्ट : सर्वें रघ्रे व्यये कवि : । सितेंदुलग्नपा : षष्ठे मौंजीविद्यादिकर्मसु ॥७७॥

अथ कंद्रस्थानां सूर्यादीनां फलम्‌ । राजसेवा वैश्यव्रुत्ति : शस्त्रवृत्तिश्व पाठक : । प्राज्ञोऽर्यवान्‌ म्लेच्छसेवी केंद्रे सूर्यादिखेचरै : ॥७८॥

इत्युपनयनकाल : समाप्त : ॥

( निषिद्धकाल ) कृष्णपक्षमें , शनिवारमें , रात्रि , प्रदोषकाल , गलग्रह , अनध्याय तिथि और अपराह्नकालमें यज्ञोपवीत अशुभ है ॥७३॥

परंतु वसंत ऋतुक विना अन्य ऋतुओंमें कृष्णपक्ष , गलग्रह , अपराह्णमें यज्ञोपवीत लेलेवे तो फेर संस्कारसे शुद्ध होता है और वसंतमें दोष नहीं हिअ ( गलग्रह ) कृष्णपक्षमें चौथ ४ , सप्तमी ७ , अष्टमी ८ , नौमी ९ त्रयोदशी १३ , चतुर्दशी १४ , अमावास्या ३० , प्रतिपदा १ यह आठ ८ , तिथि गलग्रह संज्ञाकी कही हैं सो निषिद्ध जानना ॥७४॥

( यज्ञोपवीतमे लग्नबल ) तीसरे ३ , छठे ६ , ग्यारहवें ११ पापग्रह हों और छठे ६ , आठवें ८ , बारहवें १२ स्थानके विना शुभ ग्रह और चंद्रमा हो तो शुभ हैं ॥७५॥

यदि लग्नमें १ या आठवें ८ पापग्रह हो तो बटुकी मृत्यु हो तीसरे ३ , छठे ६ , ग्यारहवें ११ पापग्रह हों तो सुख हो तथा अन्य स्थानोंमें हो तो मूर्ख रहे ॥७६॥

और चन्द्रमा पापग्रह लग्नमें अशुभ है और आठवें ८ संपूर्ण ग्रह तथा बारहवें १२ छठे ६ शुक्र चन्द्रमा लग्नका स्वामी यज्ञोपवीत विद्यारंभ आदि कर्ममें अशुभ हैं ॥७७॥

और सूर्य केन्द्रमें १ । ४ । ७ । १० हो तो राजाके काम करनेवाला और चन्द्रमा हो तो वैश्योंकी वृत्ति तथा मंगल हो तो शस्त्रवृत्ति , बुध हो तो पढने पढानेकी वृत्ति , गुरु हो तो पंडित और शुक्र हो तो धनवान्‌ और शनि हो तो म्लेच्छोंका नौकर होवे ॥७८॥

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Last Updated : November 11, 2016

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