दोहे - ४५१ से ४८२

रहीम मध्यकालीन सामंतवादी कवि होऊन गेले. रहीम यांचे व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न होते. तसेच ते सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, कवि शिवाय विद्वानसुद्धां होते.


मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान ।
हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन ॥४५१॥

जक न परत बिन हेरे, सखिन सरोस ।
हरि न मिलत बसि नेरे, यह अफसोस ॥४५२॥

चतुर मया करि मिलिहौं, तुरतहिं आय ।
बिन देखे निस बासर, तरफत जाय ॥४५३॥

तुम सब भाँतिन चतुरे, यह कल बात ।
होरि के त्यौहारन, पीहर जात ॥४५४॥

और कहा हरि कहिये, चनि यह नेह ।
देखन ही को निसदिन, तरफत देह ॥४५५॥

जब तें बिछुरे मोहन, भूख न प्यास ।
बेरि बेरि बढ़ि आवत, बड़े उसास ॥४५६॥

अन्तरग्त हिय बेधत, छेदत प्रान ।
विष सम परम सबन तें, लोचन बान ॥४५७॥

गली अँधेदी मिल कै, रहि चुपचाप ।
बरजोरी मनमोहन, करत मिलाप ॥४५८॥

सास ननद गुरु पुरजन, रहे रिसाय ।
मोहन हू अस निसरे, हे सखि हाय ॥४५९॥

उन बिन कौन निबाहै, हित की लाज ।
ऊधो तुमहू कहियो, धनि बृजराज ॥४६०॥

जिहिके लिये जगत में, बजै निसान ।
तिहिं-ते करे अबोलन, कौन सयान ॥४६१॥

रे मन भज निस वासर, श्री बलवीर ।
जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर ॥४६२॥

विरहिन को सब भाखत, अब जनि रोय ।
पीर पराई जानै, तब कहु कोय ॥४६३॥

सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर ।
बौरी बाँझ न जानै, ब्यावर पीर ॥४६४॥

लखि मोहन की बंसी, बंसी जान ।
लागत मधुर प्रथम पै, बेधत प्रान ॥४६५॥

तै चंचल चित हरि कौ, लियौ चुराइ ।
याहीं तें दुचती सी, परत लखाई ॥४६६॥

मी गुजरद है दिलरा, बे दिलदार ।
इक इक साअत हमचूँ, साल हजार ॥४६७॥

नव नागर पद परसी, फूलत जौन ।
मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन ॥४६८॥

समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति ।
सुनहू श्याम की सजनी, का परतीति ॥४६९॥

नृप जोगी सब जानत, होत बयार ।
संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार ॥४७०॥

मोहन जीवन प्यारे, कस हित कीन ।
दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन ॥४७१॥

भजि मन राम सियापति, रघुकुल ईस ।
दीनबन्धु दुख टारन, कौसलधीस ॥४७२॥

गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार ।
बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार ॥४७३॥

दिलबर जद बर जिगरम, तीर निगाह ।
तपीदा जाँ भी आयद, हरदम आह ॥४७४॥

लोग लुगाई हिलमिल, खेतल फाग ।
परयौ उड़ावन मौकौं, सब दिन काग ॥४७५॥

मो जिय कोरी सिगरी, ननद जिठानि ।
भई स्याम सों तब तें, तनक पिछानि ॥४७६॥

होत विकल अनलेखै, सुधर कहाय ।
को सुख पावत सजनी, नेह लगाय ॥४७७॥

अहो सुधाधर प्यारे, नेह निचोर ।
देखन ही कों तरसे, नैन चकोर ॥४७८॥

आँखिन देखत सबही, कहत सुधारि ।
पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि ॥४७९॥

पथिक आय पनघटवा, कहता पियाव ।
पैया परों ननदिया, फेरि कहाव ॥४८०॥

या झर में घर घर में, मदन हिलोर ।
पिय नहिं अपने कर में, करमैं खोर ॥४८१॥

बालम अस मन मिलयउँ, जस पय पानि ।
हंसनि भइल सवतिया, लई बिलगानि ॥४८२॥

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Last Updated : November 07, 2011

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