दोहे - २०१ से २५०

रहीम मध्यकालीन सामंतवादी कवि होऊन गेले. रहीम यांचे व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न होते. तसेच ते सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, कवि शिवाय विद्वानसुद्धां होते.


रहिमन रहिबो व भलो जौ लौं सील समूच ।
सील ढील जब देखिए, तुरन्त कीजिए कूच ॥२०२॥

रहिमन पैंडा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल ।
बिछलत पांव पिपीलिका, लोग लदावत बैल ॥२०३॥

रहिमन ब्याह बियाधि है, सकहु तो जाहु बचाय ।
पायन बेड़ी पड़त है, ढोल बजाय बजाय ॥२०४॥

रहिमन प्रिति सराहिए, मिले होत रंग दून ।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून ॥२०५॥

रहिमन तब लगि ठहरिए, दान मान, सम्मान ।
घटत मान देखिए जबहि, तुरतहिं करिय पयान ॥२०६॥

राम नाम जान्या नहीं, जान्या सदा उपाधि ।
कहि रहीम तिहि आपनो, जनम गंवायो बादि ॥२०७॥

रहिमन जगत बड़ाई की, कूकुर की पहिचानि ।
प्रीति कैर मुख चाटई, बैर करे नत हानि ॥२०८॥

सबै कहावै लसकरी सब लसकर कहं जाय ।
रहिमन सेल्ह जोई सहै, सो जागीरें खाय ॥२०९॥

रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की थाक ।
दांत दिखावत दीन है, चलत घिसावत नाक ॥२१०॥

रहिमन छोटे नरन सों, होत बड़ों नहिं काम ।
मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम ॥२११॥

रहिमन प्रीत न कीजिए, जस खीरा ने कीन ।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन ॥२१२॥

रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम ।
पावत मूरन परम गति, कामादिक कौ धाम ॥२१३॥

रहिमन मनहि लगई कै, देखि लेहु किन कोय ।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय ॥२१४॥

रहिमन असमय के परे, हित अनहित है जाय ।
बधिक बधै भृग बान सों, रुधिरै देत बताय ॥२१५॥

लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार ।
जो हानि मारै सीस में, ताही की तलवार ॥२१६॥

रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल ।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ॥२१७॥

रहिमन निज मन की विथा, मन ही राखो गोय ।
सुनि अठिलै है लोग सब, बांटि न लैहे कोय ॥२१८॥

रहिमन जाके बाप को, पानी पिअत न कोय ।
ताकी गैर अकास लौ, क्यों न कालिमा होय ॥२१९॥

रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग ।
करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग ॥२२०॥

रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत ।
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत ॥२२१॥

रहिमन विद्या बुद्धि नहीं, नहीं धरम जस दान ।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिन पूंछ विषान ॥२२२॥

रहिमन चुप ह्वै बैठिए, देखि दिनन को फेर ।
जब नीकै दिन आइहैं, बनत न लगिहैं बेर ॥२२३॥

रहिमन खोजे ऊख में, जहां रसनि की खानि ।
जहां गांठ तहं रस नहीं, यही प्रीति में हानि ॥२२४॥

रहिमन को कोउ का करै, ज्वारी चोर लबार ।
जो पत राखन हार, माखन चाखन हार ॥२२५॥

रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुं मांगन जांहि ।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ॥२२६॥

रहिमन कबहुं बड़ेन के, नाहिं गरब को लेस ।
भार धरे संसार को, तऊ कहावत सेस ॥२२७॥

रहिमन वहां न जाइए, जहां कपट को हेत ।
हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत ॥२२८॥

रहिमन रिस सहि तजत नहिं, बड़े प्रीति की पौरि ।
मूकन भारत आवई, नींद बिचारी दौरि ॥२२९॥

रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो न प्रीति ।
काटे चाटे स्वान के, दुहूं भांति विपरीति ॥२३०॥

रहिमन भेषज के किए, काल जीति जो जात ।
बड़े-बड़े समरथ भये, तौ न कोउ मरि जात ॥२३१॥

रहिमन जग जीवन बड़े, काहु न देखे नैन ।
जाय दसानन अछत ही, कपि लागे गथ लैन ॥२३२॥

रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून ।
पानी भए न ऊबरैं, मोती मानुष चून ॥२३३॥

रहिमन बहु भेषज करत, ब्याधि न छांड़त साज ।
खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ ॥२३४॥

रहिमन तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि ।
पर बस परे, परोस बस, परे मामिला जानि ॥२३५॥

पांच रूप पांडव भए, रथ बाहक नलराज ।
दुरदिन परे रहीम कहि, बड़े किए घटि काज ॥२३६॥

समय परे ओछे वचन, सबके सहै रहीम ।
सभा दुसासन पट गहै, गदा लिए रहे भीम ॥२३७॥

रहिमन जा डर निसि पैर, ता दिन डर सब कोय ।
पल पल करके लागते, देखु कहां धौ होय ॥२३८॥

रहिमन रहिला की भले, जो परसै चितलाय ।
परसत मन मैला करे सो मैदा जरि जाय ॥२३९॥

रहिमन यह तन सूप है, लीजै जगत पछोर ।
हलुकन को उड़ि जान है, गुरुए राखि बटोर ॥२४०॥

रहिमन गली है साकरी, दूजो ना ठहराहिं ।
आपु अहै तो हरि नहिं, हरि तो आपुन नाहिं ॥२४१॥

स्वारथ रचत रहीम सब, औगुनहूं जग मांहि ।
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ पथ कूबर छांहि ॥२४२॥

संपति भरम गंवाइ कै, हाथ रहत कछु नाहिं ।
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहुं मांहि ॥२४३॥

सर सूखै पंछी उड़ै, औरे सरन समाहिं ।
दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम कहं जाहिं ॥२४४॥

स्वासह तुरिय जो उच्चरै, तिय है निश्चल चित्त ।
पूत परा घर जानिए, रहिमन तीन पवित्त ॥२४५॥

साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान ।
रहिमन सांचे सूर को, बैरी करे बखान ॥२४६॥

संतत संपति जानि कै, सबको सब कुछ देत ।
दीन बन्धु बिन दीन की, को रहीम सुधि लेत ॥२४७॥

ससि की शीतल चांदनी, सुन्दर सबहिं सुहाय ।
लगे चोर चित में लटी, घटि रहीम मन आय ॥२४८॥

सीत हरत तम हरत नित, भुवन भरत नहि चूक ।
रहिमन तेहि रवि को कहा, जो घटि लखै उलूक ॥२४९॥

ससि सुकेस साहस सलिल, मान सनेह रहीम ।
बढ़त बड़त बढ़ि जात है, घटत घटत घटि सीम ॥२५०॥

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Last Updated : November 07, 2011

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