पञ्चदश पटल - ब्रह्मज्ञानीलक्षण

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


ब्रह्मज्ञानी के लक्षण --- मणि तथा मिट्टी के ढेले में , धर्म में , अधर्म में . जय में तथा परायज में जो समान भाव रखता है अथवा जो सबका त्याग कर देता है वह साधक ’ ब्रह्माज्ञानी ’ है । धार्मिक के लक्षण --- सदैव ईश्वर की चिन्ता करने वाला , गुरु की आज्ञा का नियमपूर्वक पालन करने वाला , उत्तम शीलवान् ‍ तथा दीनों की भलाई करने वाला ’ धार्मिक ’ कहा जाता है ॥५० - ५१॥

योगी के लक्षण --- कालवेत्ता , विधानवेत्त , अष्टाङ्र योग युक्त शरीर वाला और पर्वत की कन्दरा में मौन होकर निवास करने वाला ’ भक्त ’ योगी कहा जाता है । ब्रह्मज्ञानी , अवधूत वेष में रहने वाला , पुण्यात्मा , सुकृती , शुचि , कामना से रहित धर्मात्मा ’ योगी ’ कहा

जाता है ॥५२ - ५३॥

वाग्वादिनि भगवती का सत्कृपापात्र , षट्‍चक्रों का भेदन करने वाला , ऊध्वरिता , तथा स्त्री का साथ न करने वाला ’ योगी ’ कहा जाता है । यजुर्वेद में सबके आगे रहने वाला , यजुर्वेद के पत्र पर रहने वाले वर्णों को धारण करने वाला , वर्णमाला का अपने चित्त में जप करने वाला ऐसा भावुक साधक तथा योगिराट् ‍ कहा जाता है ॥५४ - ५५॥

द्वादश मासों तथा द्वादश राशियों , तिथि , वार तथा नक्षत्रों से युक्त आज्ञाचक्राम्बुज की पूजा करनी चाहिए । दिशा काल देश विषयक प्रश्न के लिए वायवी शक्ति से निर्णय करना , चाहिए । बाल , वृद्ध , अस्तादि दण्ड , पल तथा निःश्वास की संख्या से व्याप्त , परम , पवित्र , आज्ञाचक्रसार की पूजा करनी चाहिए । हे प्रभो ! चक्र में निर्णय सदैव सुखदायी होता है उसमें सज्जन पुरुषों की कुछ भी हानि नहीं होती ॥५६ - ५८॥

खलों को चक्र विपरीत फल देते हैं । निन्दकों को तो पद पद पर विपरीत फल होता है । पापियों के लिए चक्र का फलाफल दुःख ही उत्पन्न करने वाला होता है । चक्र से पापी पञ्चत्व ( मृत्यु ) प्राप्त करता है । किन्तु ज्ञानी परम पद प्राप्त करता है । जो श्वास एवं काल का जानकार है वही ’ ज्ञानी ’ कहा जाता है ॥५९ - ६०॥

जिसे श्वास एवं काल का ज्ञान नहीं है वह ’ पापी ’ कहा जाता है । यजुर्वेद सत्त्व गुण वाला है । इसलिए सत्त्व का अधिष्ठान होने से वह सर्वदा विशुद्ध है । गुरु के आज्ञानुसार चलने से साधक अधोधिष्ठान वाली , ऊपर तथा नीचे के क्रम के योग से संञ्चालन कर कुण्डलिनी महाशक्ति को प्राप्त कर लेता है ॥६१ - ६२॥

यजुर्वेद महापात्र रुप सत्त्व के अधिष्ठान की सेवा से तथा ललाट में रहने वाली अमृत धारा से कुण्डलिनी शक्ति चैतन्य

होती है ॥६३॥

( भ्रुमध्य में रहने वाले ) द्विदल चक्र का अच्छी तरह ज्ञान कर साधक को दिन रात उसमें ( ध्यान रुप ) होम करते रहना चाहिए । मन्त्रज्ञ साधक को कुण्डलिनी के अधो मुखाग्रभाग में शुद्ध घृत से होम करना चाहिए ॥६४॥

प्रचण्ड रशिम से युक्त मनोहरा अङ्क वाले साधक इन्द्रियों को रोकने वाले शुद्ध योग से युक्त , चार दल वाले ’ आज्ञा कमल ’ नामक श्रेष्ठ चक्र का पूजन करते हैं जिसके मध्य में सेकड़ो करोड़ से युक्त तेजोमण्डल विराजमान है ॥६५॥

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Last Updated : July 29, 2011

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