पृथु

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


न कामये नाथ तदप्यहं क्वचिन्न यत्र युष्मच्चरणाम्बुजासवः ।

महत्तमान्तर्हदयान्मुखच्युतो विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वरः ॥

( श्रीमद्भा० ४।२०।२४ )

भगवानसे वरदान माँगते हुए पृथुने कहा - ' नाथ ! जहाँ आपके चरणकमलोंका मधु मकरन्द नहीं है, ऐसा कोई पद, कोई भोग - कुछ भी मैं कभी नहीं चाहता । महापुरुषोंके हदयमें ही आपके चरणोंका वह अमृत रहता है । उन भगवद्भक्तोके हदयसे उनकी वाणीद्वारा आपके लीलागुणवर्णन रुपमें वह निकलता है । उसे पान करनेके लिये मेरे एक सहस्त्र कान हो जायँ - मैं हजार कानोंकी शक्तिसे आपके दिव्य गुण एवं चरित सुनता रहूँ, यही आप मुझे वरदान दें ।'

राजर्षि अङ्गकी पत्नी सुनीथाका पुत्र वेन अपने मातामह कालके स्वभावपर चला । वह अत्यन्त उग्र और अधार्मिक था । लोगोंको कष्ट देने, मारनेमें ही उसे आनन्द आता था । राजा होनेपर उसने सब प्रकार धर्मका विरोध करना प्रारम्भ कर दिया । जब ऋषियोंके बहुत समझानेपर भी वह अपनी धर्म - विरोधी, ईश्वर - विरोधी नीतिको छोड़नेके लिये तैयार न हुआ, तब ऋषियोंने हुंकार करके अपने तपके तेजसे उसे मार डाला । अपने पुत्रका शरीर सुनीथाने कुछ दिन सुरक्षित रक्खा । राजासे रहित राज्यमें चोर, डाकू, लुटेरे बढ़ गये । वे दीन, हीन, असहाय प्रजाको कष्ट देने लगे । यह देखकर ऋषियोंने वेनका शरीर लेकर उसका मन्थन किया । पहले तो एक नाटे कदके काले पुरुषकी उससे उत्पत्ति हुई, जो ' निषाद ' कहलाया । उसके पश्चात् शरीरके दहिने भागसे आजानुबाहु, कमललोचन एक पुरुष और वाम भागसे एक सुन्दरी स्त्री उत्पन्न हुई । ये पुरुष ही भगवानके अवतार आदिराज महाराज पृथु थे और स्त्री भगवती लक्ष्मीके अंशसे उत्पन्न उनकी पत्नी अर्चि थीं । ऋषियोंने पृथुके दाहिने हाथमें चक्र तथा चरणोंमें कमलका चिह्न देखकर समझ लिया कि ये भगवानके अंशावतार हैं । विधिपूर्वक उनका अभिषेक हुआ । भविष्यज्ञाता ऋषयोंकी प्रेरणासे वन्दियोंने महाराज पृथुके आगामी पराक्रमोंका वर्णन करके उनकी स्तुति की ।

जब अधर्म बढ़ता है, तब पृथ्वीपर अन्न, जल, फल, मूल - सबका ह्लास होने लगता है । दुर्भिक्ष, महामारी आदि उपद्रव अधर्मसे ही होते हैं । इसमें प्रधान कारण होता है - राजा । राजा वेनके पापाचारसे पृथ्वीपर अन्न नष्ट हो गया था । अकाल पड़नेसे प्रजा व्याकुल हो रही थी । भूखे - प्यासे लोग राजाके पास पुकार करते आये । पृथुने विचार करके देखा तो जान पड़ा कि पृथ्वीने ही बीजोंको ग्रस लिया । बोये बीज उगे ही नहीं । अतः पृथ्वीको क्रोध करते देख भूमिकी अधिष्ठातृ - देवी गौका रुप धारण करके भागीं; किन्तु जहाँ जहाँ वे गयीं, पृथु उनके पीछे दौड़ते ही गये । अन्तमें पृथ्वीने उनकी स्तुतिकी । भूमिने कहा - ' मैने पापियोंके द्वारा दुरुपयोगमें आते देख बीजोंको अपनेमें रोक लिया; किन्तु अधिक समय होनेसे वे मुझमें जीर्ण हो गये - पच गये । अब तो कोई उपाय करना चाहिये ।' पृथ्वीके बतानेसे पृथुने उसका दोहन करके उससे ओषधि - बीज - अन्नादिका उत्पादन किया । पृथ्वीके ऊँचे - नीचे भागोंको भी उन्होंने समान किया, जिससे कृषि हो सके । महाराज पृथुने ही नगर एवं ग्राम बसाये ।

आदिराज महाराज पृथु परम भागवत थे । उन्हें सांसारिक विषय - भोगोंकी तनिक भी इच्छा नहीं थी । भगवानको प्रसन्न करनेके लिये वे बड़े - बड़े यज्ञ करते थे । जब वे निन्यानबे अश्वमेध यज्ञ कर चुके और सौवाँ करने लगे, तब इन्द्रने उसमें बाधा दी । इन्द्र शतक्रतु कहलाते हैं । दूसरा कोई सौ अश्वमेध करके शतक्रतु हो जाय, यह उन्हे सहन नहीं होता । पाखण्डसे अनेक प्रकारके वेष बनाकर वे यज्ञके घोड़ेको चुरा लेते । महर्षि अत्रिके आदेशसे पृथुपुत्र विजिताश्च बार - बार उनसे घोड़ा छीन लाते थे । जब कई बार इन्द्रने यह उत्पात किया तब स्वयं पृथु उन्हें दण्ड देनेको उद्यत हुए । ऋषियोंने कहा - ' महाराज ! यज्ञमें दीक्षित व्यक्ति किसीको दण्ड न दे, ऐसी मर्यादा है । हम आपके द्वेषी इन्द्रको अग्निमें आहुति डालकर भस्म कर देंगे ।' जब ऋषिगण आहुति डालने लगे, तब ब्रह्माजीने प्रकट होकर उन्हें रोका । उन्होंने पृथुसे कहा - ' राजन् ! आपको सौ यज्ञ करके इन्द्र तो होना नहीं है । आप तो भगवानके भक्त हैं । आपको तो मोक्ष प्राप्त करना है । अतः इस यज्ञको अब बंद कर दें । देवराज इन्द्रपर आपको क्रोध नहीं करना चाहिये ।'

ब्रह्माजीकी आज्ञा मानकर पृथुने यज्ञकी वहीं पूर्णाहुति कर दी । उनकी इस नम्रता, सहनशीलता और निष्कामभावसे प्रसन्न होकर भगवान् प्रकट हो गये । इन्द्र भी भगवानके साथ वहाँ आये । देवराजने लज्जित होकर पृथुके रे पकड़ लिये । पृथुने उन्हें क्षमा कर दिया । उठाकर हदयसे लगा लिया । भगवानका दर्शन करके पृथुका शरीर पुलकित हो गया । उनके नेत्रोंसे अश्रुप्रवाह चलने लगा । भगवानने उनने वरदान माँगनेको कहा, तब पृथु हाथ जोड़कर बोले - ' नाथ ! संसारके सभी विषयभोग तो नरकमें पड़े रहनेवाले जीवोंको भी मिलते हैं । मैं आपसे उन नारकीय भोगोंकी याचना कैसे कर सकता हूँ । आपके चरणकमलोंको छोड़कर मुझे कुछ नहीं चाहिये । प्रभो ! मेरे कान आपकी कथा ही सुनते रहें । आपके जनोंके मुखसे निकले कथामृतको वे सहस्त्र कानोंके समान शक्तिशाली होकर सुनें - बस, यही वरदान मुझे चाहिये ।'

' राजन् ! तुम्हारी बुद्धि मुझमें लगी रहे !' इस प्रकार वरदान देकर, पृथुसे पूजित होकर भगवान् अपने धामको चले गये ।

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गङ्गा - यमुनाके मध्य प्रयागराजमें पृथुने अपनी राजधानी बना ली थी । संसारमें सदा अनासक्त रहते हुए वे प्रजाका पालन करते थे । सम्पत्ति भगवानके पूजनके लिये ही है - यह पृथुका दृढ़ निश्चय था । वे अनेक प्रकारके सत्र, पूजनमहोत्सव करते ही रहते थे । एक बार एक बड़े यज्ञमें सब देवता, ब्रह्मर्षि, राजर्षि एवं प्रजाजन उपस्थित थे । उसमें पृथुने सबके सम्मुख प्रजाको उपदेश देते हुए कहा - ' सभ्यो ! जो राजा प्रजासे कर लेता है और प्रजाको दण्ड देता है, किन्तु प्रजाको धर्मकी शिक्षा देकर धर्मपथमें नहीं लगाता, वह प्रजाके समस्त पापका भागी होता है और अपने ऐश्वर्यको खो देता है । अतः आप सब लोग अपने समस्त लौकिक एवं पारलौकिक कर्म भगवानकी सेवाके लिये ही भगवत्सेवा - बुद्धिसे करें, यही आपका मुझपर बहुत अनुग्रह होता ।' भगवानकी महिमा बताकर पृथुने भगवद्भजनके द्वारा क्लेशोंसे निवृत्ति, मोक्षकी प्राप्ति बतलायी । ब्राह्मणोंका सम्मान करनेका आदेश दिया । धर्मकी शिक्षा दी । महाराजका उपदेश सुनकर सब लोग उनकी प्रशंसा करने लगे ।

लोग परम पराक्रमी महाराजकी स्तुति कर ही रहे थे कि वहाँ लोगोंने आकाशसे सूर्यके समान तेजस्वी चार सिद्धोंको उतरते देखा । राजाने बड़े हर्षसे उन सनकादि कुमारोंको प्रणाम करके उच्चासनपर बैठाकर उनका पूजन किया और फिर उनसे पूछा - ' इस संसारमें प्राणीका कल्याण कैसे हो ?' सनकादि कुमारोंने राजाको भगवान् मधुसूदनकी पराभक्तिका उपदेश किया । भगवद्भक्तका स्वरुप, भक्तिके श्रवणकीर्तनादि अङ्ग, भगवानकी महिमा आदि बतायी । महाराजाने उस उपदेशसे अपनेको कृतकृत्य माना । चारों कुमार अधिकारी राजाको उपदेश करके ब्रह्मलोक गये ।

बहुत दिनों तक पृथुने प्रजापालन किया । अन्तमें पुत्रको राज्य देकर वे पत्नीके साथ तपोवन चले गये । वहाँ वानप्रस्थाश्रमके कठोर नियमोंका पालन करते हुए सनका दिकुमारोंने जिस भक्तियोगका उपदेश किया था, उसके द्वारा भगवानमें चित्तको लगाकर स्थिर हो गये । इस प्रकार भगवानमें चित्त लगाकर एक दिन आसनपर वे बैठे और योगधारणाके द्वारा देहका त्याग कर दिया । उनकी सुकुमारी पत्नी अर्चि सदा अपने पतिकी सेवा करिती थीं । वे साम्राज्ञी वनमें समिधा, फूल, फल, कुश, जल लाकर पतिके पूजनभजनमें निरन्तर योग देती रहती थीं । जब उन्होंने पतिपूजनके समय देखा कि पतिदेवके देहमें उष्णता नहीं है, तब उन्हें पता लगा कि उनके पति परमधाम चले गये । उन्हें शोक हुआ । अबतक इस कठिन तपमें भी पतिसेवामें लगकर अपने कष्टका कभी स्मरणतक उन्हें नहीं हुआ था ।

उन्होंने पतिदेहको स्नान कराया, लकड़ियाँ चुनकर चिता बनायी और उसमें अग्नि लगाकर वे पृथुके शरीरके साथ चितामें बैठ गयीं । जैसे पृथु आदि राजा थे, वैसे ही उनकी पत्नी पतिके साथ सहानुगमन करनेवाली पहिली सती थीं । देवाङ्गनाओंकी पुष्पवर्षा और स्तुति होती रही । वे सती अपने पतिके लोक - परम धामको प्राप्त हो गयीं ।

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Last Updated : April 28, 2009

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