सूरदास की रचनाएं - भाग २

सूरदास का नाम कृष्ण-भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में अग्रणी है।
Surdas was a Hindu poet, sant and musician of India.


२६.

महाराज भवानी ब्रह्म भुवनकी रानी ॥ध्रु०॥

आगे शंकर तांडव करत है । भाव करत शुलपानी ॥ महा०॥१॥

सुरनर गंधर्वकी भिड भई है । आगे खडा दंडपानी ॥ महा०॥२॥

सुरदास प्रभु पल पल निरखत । भक्तवत्सल जगदानी ॥ महा०॥३॥

२७.

हरि जनकू हरिनाम बडो धन हरि जनकू हरिनाम ॥ ध्रु०॥

बिन रखवाले चोर नहि चोरत सुवत है सुख धाम ॥ ब०॥१॥

दिन दीन होते सवाई दोढी धरत नहीं कछु दाम ॥ ब०॥२॥

सुरदास दोढी धरत नहीं कछु दाम ॥ ब०॥३॥

प्रभु सेवा जाकी पारससुं कहां काम ॥ ब०॥४॥

२८.

ऐसे संतनकी सेवा । कर मन ऐसे संतनकी सेवा ॥ध्रु०॥

शील संतोख सदा उर जिनके । नाम रामको लेवा ॥ क०॥१॥

आन भरोसो हृदय नहि जिनके । भजन निरंजन देवा ॥ क०॥२॥

जीन मुक्त फिरे जगमाही । ज्यु नारद मुनी देवा ॥ क०॥३॥

जिनके चरन कमलकूं इच्छत । प्रयाग जमुना रेवा ॥ क०॥४॥

सूरदास कर उनकी संग । मिले निरंजन देवा ॥ क०॥५॥

२९.

जयजय नारायण ब्रह्मपरायण श्रीपती कमलाकांत ॥ध्रु०॥

नाम अनंत कहां लगी बरनुं शेष न पावे अंत ।

शिव सनकादिक आदि ब्रह्मादिक सूर मुनिध्यान धरत ॥ जयजय० ॥१॥

मच्छ कच्छ वराह नारसिंह प्रभु वामन रूप धरत ।

परशुराम श्रीरामचंद्र भये लीला कोटी करत ॥ जयजय० ॥२॥

जन्म लियो वसुदेव देवकी घर जशूमती गोद खेलत ।

पेस पाताल काली नागनाथ्यो फणपे नृत्य करत ॥ जयजय० ॥३॥

बलदेव होयके असुर संहारे कंसके केश ग्रहत ।

जगन्नाथ जगमग चिंतामणी बैठ रहे निश्चत ॥ जयजय० ॥४॥

कलियुगमें अवतार कलंकी चहुं दिशी चक्र फिरत ।

द्वादशस्कंध भागवत गीता गावे सूर अनंत ॥ जयजय० ॥५॥

३०.

जनम सब बातनमें बित गयोरे ॥ध्रु०॥

बार बरस गये लडकाई । बसे जोवन भयो ।

त्रिश बरस मायाके कारन देश बिदेश गयो ॥१॥

चालीस अंदर राजकुं पायो बढे लोभ नित नयो ।

सुख संपत मायाके कारण ऐसे चलत गयो ॥ जन० ॥२॥

सुकी त्वचा कमर भई ढिली, ए सब ठाठ भयो ।

बेटा बहुवर कह्यो न माने बुड ना शठजीहू भयो ॥ जन० ॥३॥

ना हरी भजना ना गुरु सेवा ना कछु दान दियो ।

सूरदास मिथ्या तन खोवत जब ये जमही आन मिल्यो ॥ जन०॥४॥

३१.

देखो ऐसो हरी सुभाव देखो ऐसो हरी सुभाव बिनु गंभीर उदार उदधि प्रभु जानी शिरोमणी राव ॥ध्रु०॥

बदन प्रसन्न कमलपद सुनमुख देखत है जैसे | बिमुख भयेकी कृपावा मुखकी फिरी चितवो तो तैसे ॥दे०॥१॥

सरसो इतनी सेवाको फल मानत मेरु समान । मानत सबकुच सिंधु अपराधहि बुंद आपने जान ॥दे०॥२॥

भक्तबिरह कातर करुणामय डोलत पाछे लाग । सूरदास ऐसे प्रभुको दये पाछे पिटी अभाग ॥दे०॥३॥

३२.

सब दिन गये विषयके हेत सब दिन गये ॥

गंगा जल छांड कूप जल पिवत हरि तजी पूजत प्रेत ॥ध्रु०॥

जानि बुजी अपनो तन खोयो केस भये सब स्वेत ।

श्रवण न सुनत नैनत देखत थके चरनके चेत ॥ सब०॥१॥

रुधे द्वार शब्द छष्ण नहि आवत । चंद्र ग्रहे जेसे केत ।

सूरदास कछु ग्रंथ नहि लागत । अबे कृष्ण नामको लेत ॥ सब०॥२॥

३३.

मन तोये भुले भक्ति बिसारी मन तो ये भुले भक्ति बिसारी ।

शिरपर काल सदासर सांधत देखत बाजीहारी ॥ध्रु०॥

कौन जमनातें सकृत कीनो मनुख देहधरी ।

तामे नीच करम रंग रच्यो दुष्ट बासना धरी ॥ मन० ॥१॥

बालपनें खेलनमें खोयो जीवन गयो संग नारी ।

वृद्ध भयो जब आलस आयो सर्वस्व हार्यो जुवारी ॥ मन०॥२॥

अजहुं जरा रोग नहीं व्यापी तहांलो भजलो मुरारी ।

कहे सूर तूं चेत सबेरो अंतकाल भय भारी ॥ मन०॥३॥

३४.

बेर बेर नही आवे अवसर बेर बेर नही आवे ।

जो जान तो करले भलाई जन्मोजन्म सुख पावे ॥ बरे०॥१॥

धन जोबत अंजलीको पाणी बखणतां बेर नहीं लागे ।

तन छुटे धन कोन कामको काहेकूं करनी कहावे ॥ बेर बेर०॥२॥

ज्याको मन बडो कृष्ण स्नेहकुं झूठ कबहूं नही आवे ।

सूरदासकी येही बिनती हरखी निरखी गुन गावे ॥ बेर बेर०॥३॥

३५.

केत्ते गये जखमार भजनबिना केत्ते गये० ॥ध्रु०॥

प्रभाते उठी नावत धोवत पालत है आचार ॥ भज०॥१॥

दया धर्मको नाम न जाण्यो ऐसो प्रेत चंडाल ॥ भज०॥२॥

आप डुबे औरनकूं डुबाये चले लोभकी लार ॥ भज०॥३॥

माला छापा तिलक बनायो ठग खायो संसार ॥ भज०॥४॥

सूरदास भगवंत भजन बिना पडे नर्कके द्वार ॥ भज०॥५॥

३६.

क्यौरे निंदभर सोया मुसाफर क्यौरे निंदभर सोया ॥ध्रु०॥

मनुजा देहि देवनकु दुर्लभ जन्म अकारन खोया ॥ मुसा०॥१॥

घर दारा जोबन सुत तेरा वामें मन तेरा मोह्या ॥ मुसा०॥२॥

सूरदास प्रभु चलेही पंथकु पिछे नैनूं भरभर रोया ॥ मुसा०॥३॥

३७.

जय जय श्री बालमुकुंदा । मैं हूं चरण चरण रजबंदा ॥ध्रु०॥

देवकीके घर जन्म लियो जद । छुट परे सब बंदा ॥ च०॥१॥

मथुरा त्यजे हरि गोकुल आये । नाम धरे जदुनंदा ॥ च०॥२॥

जमुनातीरपर कूद परोहै । फनपर नृत्यकरंदा जमुनातीरपर कूद परोहै ।

फरपर नृत्यकरंदा ॥ च०॥३॥

सूरदास प्रभु तुमारे दरशनकु । तुमही आनंदकंदा ॥ च०॥४॥

३८.

निरधनको धनि राम । हमारो०॥ध्रु०॥

खान न खर्चत चोर न लूटत । साथे आवत काम ॥ह०॥१॥

दिन दिन होत सवाई दीढी । खरचत को नहीं दाम ॥ह०॥२॥

सूरदास प्रभु मुखमों आवत । और रसको नही काम हमारो०॥३॥

३९.

अद्‌भुत एक अनुपम बाग ॥ध्रु०॥

जुगल कमलपर गजवर क्रीडत तापर सिंह करत अनुराग ॥१॥

हरिपर सरवर गिरीवर गिरपर फुले कुंज पराग ॥२॥

रुचित कपोर बसत ताउपर अमृत फल ढाल ॥३॥

फलवर पुहूप पुहुपपर पलव तापर सुक पिक मृगमद काग ॥४॥

खंजन धनुक चंद्रमा राजत ताउपर एक मनीधर नाग ॥५॥

अंग अंग प्रती वोरे वोरे छबि उपमा ताको करत न त्याग ॥६॥

सूरदास प्रभु पिवहूं सुधारस मानो अधरनिके बड भाग ॥७॥

४०.

तबमें जानकीनाथ कहो ॥ध्रु०॥

सागर बांधु सेना उतारो । सोनेकी लंका जलाहो ॥१॥

तेतीस कोटकी बंद छुडावूं बिभिसन छत्तर धरावूं ॥२॥

सूरदास प्रभु लंका जिती । सो सीता घर ले आवो ।

तबमें जानकीनाथ०॥३॥

४१.

कमलापती भगवान । मारो साईं कम०॥ध्रु०॥

राम लछमन भरत शत्रुघन । चवरी डुलावे हनुमान ॥१॥

मोर मुगुट पितांबर सोभे । कुंडल झलकत कान ॥२॥

सूरदास प्रभु तुमारे मिलनकुं । दासाकुं वांको ध्यान ।

मारू सांई कमलापती० ॥३॥

४२.

उधो मनकी मनमें रही ॥ध्रु०॥

गोकुलते जब मथुरा पधारे । कुंजन आग देही ॥१॥

पतित अक्रूर कहासे आये । दुखमें दाग देही ॥२॥

तन तालाभरना रही उधो । जल बल भस्म भई ॥३॥

हमरी आख्या भर भर आवे । उलटी गंगा बही ॥४॥

सूरदास प्रभु तुमारे मिलन । जो कछु भई सो भई ॥५॥

४३.

नारी दूरत बयाना रतनारे ॥ध्रु०॥

जानु बंधु बसुमन बिसाल पर सुंदर शाम सीली मुख तारे ।

रहीजु अलक कुटील कुंडलपर मोतन चितवन चिते बिसारे ।

सिथील मोंह धनु गये मदन गुण रहे कोकनद बान बिखारे ।

मुदेही आवत है ये लोचन पलक आतुर उधर तन उधारे ।

सूरदास प्रभु सोई धो कहो आतुर ऐसोको बनिता जासो रति रहनारे ॥१॥

४४.

अति सूख सुरत किये ललना संग जात समद मन्मथ सर जोरे ।

राती उनीदे अलसात मरालगती गोकुल चपल रहतकछु थोरे ।

मनहू कमलके को सते प्रीतम ढुंडन रहत छपी रीपु दल दोरे ।

सजल कोप प्रीतमै सुशोभियत संगम छबि तोरपर ढोरे ।

मनु भारते भवरमीन शिशु जात तरल चितवन चित चोरे ।

वरनीत जाय कहालो वरनी प्रेम जलद बेलावल ओरे ।

सूरदास सो कोन प्रिया जिनी हरीके सकल अंग बल तोरे ॥१॥

४५.

रैन जागी पिया संग रंग मीनी ॥ध्रु०॥

प्रफुल्लित मुख कंज नेन खजरीटमान मेन मिथुरी । रहे चुरन कच बदन ओप किनी ॥१॥

आतुर आलस जंभात पूलकीत अतिपान खाद मद । माते तन मुधीन रही सीथल भई बेनी ॥२॥

मांगते टरी मुक्तता हल अलक संग अरुची रही ऊरग । नसत फनी मानो कुंचकी तजी दिनी ॥३॥

बिकसत ज्यौं चंपकली भोर भये भवन चली लटपटात । प्रेम घटी गजगती गती लिन्हा ॥४॥

आरतीको करत नाश गिरिधर सुठी सुखकी रासी सूरदास । स्वामीनी गुन गने न जात चिन्ही ॥५॥

४६.

खेलिया आंगनमें छगन मगन किजिये कलेवा । छीके ते सारी दधी उपर तें कढी धरी पहीर ।

लेवूं झगुली फेंटा बाँधी लेऊं मेवा ॥१॥

गवालनके संग खेलन जाऊं खेलनके मीस भूषण ल्याऊं । कौन परी प्यारे ललन नीसदीनकी ठेवा ॥२॥

सूरदास मदनमोहन घरही खेलो प्यारे । ललन भंवरा चक डोर दे हो हंस चकोर परेवा ॥३॥

४७.

काना कुबजा संग रिझोरे । काना मोरे करि कामारिया ॥ध्रु०॥

मैं जमुना जल भरन जात रामा । मेरे सिरपर घागरियां ॥ का०॥१॥

मैं जी पेहरी चटक चुनरिया । नाक नथनियां बसरिया ॥ का०॥२॥

ब्रिंदाबनमें जो कुंज गलिनमो । घेरलियो सब ग्वालनिया ॥ का०॥३॥

जमुनाके निरातीर धेनु चरावे । नाव नथनीके बेसरियां ॥ का०॥४॥

सूरदास प्रभु तुमरे दरसनकु । चरन कमल चित्त धरिया ॥ का०॥५॥

४८.

कोण गती ब्रिजनाथ । अब मोरी कोण गती ब्रिजनाथ ॥ध्रु०॥

भजनबिमुख अरु स्मरत नही । फिरत विषया साथ ॥१॥

हूं पतीत अपराधी पूरन । आचरु कर्म विकार ॥२॥

काम क्रोध अरु लाभ । चित्रवत नाथ तुमही ॥३॥

विकार अब चरण सरण लपटाणो । राखीलो महाराज ॥४॥

सूरदास प्रभु पतीतपावन । सरनको ब्रीद संभार ॥५॥

४९.

चोरी मोरी गेंदया मैं कैशी जाऊं पाणीया ॥ध्रु०॥

ठाडे केसनजी जमुनाके थाडे । गवाल बाल सब संग लियो ।

न्यारे न्यारे खेल खेलके । बनसी बजाये पटमोहे ॥ चो०॥१॥

सब गवालनके मनको लुभावे । मुरली खूब ताल सुनावे ।

गोपि घरका धंदा छोडके । श्यामसे लिपट जावे ॥ चो०॥२॥

सूरदास प्रभू तुमरे चरणपर । प्रेम नेमसे भजत है ।

दया करके देना दर्शन । अनाथ नाथ तुमारा है ॥ चो०॥३॥

५०.

खेलने न जाऊं मैया ग्वालिनी खिजावे मोहे ।

पीत बसन गुंज माला लेती है छुडायके ॥ध्रु०॥

कोई तेरा नाम लेके लागी गारी मोकु देण ।

मैं भी वाकूं गारी देके आयहुं पलायके ॥ खे०॥१॥

कोई मेरा मुख चुंबे भवन बुलाय केरी ।

कांचली उतार लेती देती है नचायके ॥ खे०॥२॥

सूरदास तो तलात नमयासु कहत बात हांसे ।

उठ मैया लेती कंठ लगायके । खेलनेन जाऊं ॥ खे०॥३॥

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Last Updated : September 20, 2011

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