नानामुहूर्त्तप्रकरणम्‌ - श्लोक १३ ते ३७

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ खट्‌वाचक्रम्‌ ॥ सूर्य्यक्षात्तु चतुष्कं च ४ देयं धिष्ण्यं तु मस्तके । कोणयोरष्टनक्षत्रं ८ शाखाय़ामष्ट ८ संख्यकम्‌ ॥१३॥

खट्‌वामध्ये त्रिकं ३ चैव बेद ४ संख्या च पादयो : । इस्थं खटूवाफलं चके ज्ञेयं तत्र शुभाशुभम्‌ ॥१४॥

मस्तके च शुभं ज्ञेयं कोणयोरष्ट मृत्युदम्‌ । शाखाष्ट ८ र्क्षं शुभं प्रोक्तं त्रिकं मध्ये सुखप्रदम्‌ ॥१५॥

पादेषु वेद ४ नक्षत्र हानिमृत्युभयप्रदम्‌ । सूर्य्यभाद्दिनभं गण्यं खट्टवाचके सुशोभने ॥१६॥

अथ नवीनपात्रे भोजनमुहूर्त्त : । रोहिणीयुगले २ हस्तत्रितये३रेवतीद्वये २ । श्रवणत्रितये३पुष्ये पुनर्वस्वनुराधयो : ॥१७॥

त्र्युत्तरे बुधशुक्रेज्यवारे चामृतयोगके । सुवर्णरौप्यपात्रेषु भोजनादि शुभप्रदम्‌ ॥१८॥

( खाटचक्र ) सूर्यके नक्षत्रसे ४ नक्षत्र खाटके मस्तकके हैं , ८ नक्षत्र कोणके हैं , ८ नक्षत्र शाखाके हैं , ३ मध्यके हैं , ४ पगोंके हैं , इस प्रकार नक्षत्र देखके फल जानना चाहिये ॥१३॥१४॥

मस्तकके ४ नक्षत्र शुभ हैं , कोणके ८ मृत्युकारक हैं , शाखाके ८ शुभ हैं , मध्यके ३ सुख देते हैं , पगोंके ४ हानि , मृत्यु , भय करते हैं इस तरह मूर्यके नक्षत्रसे दिननक्षत्रतक गिनना ॥१५॥१६॥

( नवीन भोजन पात्रमु० ) रो . मृ . ह . चि . स्वा . रे . अ . श्र . ध . श . पु . पु . अनु . उ . ३ इन नक्षत्रोंमें बुध . शुक्र . गुरु वारोंमें , अमृतयोगमें सुवर्ण , चांदी , कांसी , पीतल आदिकी थालीमें भोजन करना शुभ है ॥१७॥१८॥

अथ नवीनपात्रचक्रंम्‌ । सूर्यभाच्चंद्रपर्यंतं गणनीयं सुदा बुधै : । दिक्षु द्वयं द्वयं न्यस्य मध्ये चैकादशं न्यसेत्‌ ॥१९॥

बर्तुलाकारचक्रस्य भोक्तृपात्रस्य निर्णय : ॥ बंधनं सौख्यहानी च लाभं सौख्यं मृतिस्तथा ॥२०॥

पुत्रमायु : शोकवृद्धी पूर्वादिक्रमतो भबेत्‌ । रिंक्तानष्टेंदुषष्ठीश्व विष्णो : सुप्तं विवर्जयेत्‌ ॥२१॥

अथ नित्यक्षौरमुहूर्त्त : पुनर्वसुद्वयं २ क्षौरे श्रतित्रयं करत्रयम्‌ । रेवतीद्वितयं ज्येष्ठा मृगशीर्षं च गृहाते ॥२२॥

क्षौरे प्राणहरा त्याज्या मघा मैत्रं च रोहिणी । उत्तरा कृत्तिका वारा भानुभौमशनैश्वरा : ॥२३॥

रिक्ता हेयाऽष्टमी ८ षष्ठी ६ क्षौरे चंद्रक्षयो निशा । संध्याविष्टचंतंगडांता भोजनांताश्व गोगृहम्‌ ॥२४॥

( नवीनपात्रचक्र ) सूर्यके नक्षत्रसे दिनके नक्षत्रतक गिने और दो २ दो २ नक्षत्र पात्रके पूर्व आदि आठों दिशाओंमें स्थापन करे और बीचमें ११ नक्षत्र धरके फिर फल देखे ॥१०॥२०॥

पूर्व आदि दिशाओंके नक्षत्रोंका तथा बीचके नक्षत्रोंका क्रमसे बन्धन १ , सौख्य २ , हानि ३ , लाभ ४ , सुख ५ , मृत्यु , ६ , पुत्र ७ , आयुर्वृद्धि ८ , शोकवृद्धि ९ इस तरह फल जानना , और रिक्ता ४ । ९ । १४ क्षीण चन्द्रमा , छठ ६ विष्णुका शयनमास वर्जना चाहिये ॥२१॥

( नित्यक्षौर हजामत मु० ) पु . पु . श्र . ध . श . ह . चि . स्वा रे . अ . ज्ये . मृ . यह नक्षत्र और करानेमें श्रेष्ठ हैं ॥२२॥

परन्तु मघा , अनु . रो . उ . ३ कृ . और रवि , मंगल , शनिवार और रिक्ता ४।९।१४ , अष्टमी ८ , छठ ६ , अमावस्या , रात्रि , संध्याकाल . भद्रा , गंडांत भोजनोत्तर , गौका घर यह हजामत करानेमें प्राणोंको हरनेवाले हैं ॥२३॥२४॥

अथ वारेषु विशेष : । मासं १ हरेत्क्षौरमिहायुषोऽर्क : शनैश्वर : पंच ५ कुजस्तथाऽष्टौ ८ । आचार्यभृग्विंदुबुधा : क्रमेण दद्युर्दशैकादश पंच सप्त ॥२५॥

अथ क्षौरे निषिद्धकालापवाद : । नृपाज्ञया ब्राह्मणसंमते च विवाहकाले मृतसूतके च । बद्धस्य मोक्षे क्रतुदीक्षणासु सर्वेषु शस्तं क्षुरकर्म भेषु ॥२६॥

अथ क्षौरे निषिद्धकाल : ॥ भुक्तोऽश्र्यक्तो व्रती यात्रारणोद्योगी कृताह्निक : । उत्कटाभरणो रात्रौ सन्ध्ययोरुभयोरपि ॥२७॥

आद्धाहे च व्यतीपते व्रतेऽहन्यपराह्नके । शुभेप्सुर्नवमे चाह्नि क्षुरकर्म न कारयेत्‌ ॥२८॥

अथ राज्ञां श्मश्रुकर्म । महीभृतां पंचमपंचमेऽह्नि क्षौरं च कार्य्यं हितमुक्तभेषु । न लश्र्यते चेच्च तदुक्तधिष्ण्यं तद्भोदये वा निखिंल विधेयम्‌ ॥२९॥

राज्यकार्ये नियुक्तानां नराणां भूपसेविनाम्‌ । श्गश्रुलोमनखच्छेदे नास्ति कालविशोधनम्‌ ॥३०॥

( वारोंमें विशेष ) और रविवारको करानेसे मास १ की आयु क्षय होती है और शनि ५ मासकी , मंगल ८ मासकी आयु हरता है और गुरु शुक्र , चंद्रमा , बुधवारको क्षौर करानेने क्रमसे १०।११।५।७ मासकी आयुवृद्धि होती है ॥२५॥

( क्षौरमें निषिद्धकालापवाद ) राजाकी आज्ञामें , ब्राह्मणके कहनेसे , या विवाहमें , या मृत्युमें , बंदीके छूटनेमें , यज्ञकी दीक्षामें क्षौर सदैव ही शुभ है ॥२६॥

( क्षौरमें निषेधकालं ) भोजनके और तैलाभ्यंगके अनन्तर और व्रत ( उपवास ), यात्रा जानेवाला , नित्यकर्मके बाद , उत्तम आभूषण सहित तथा रात्रि , संध्याकालमें , श्राद्धके दिन , व्यतीपात , व्रतके दिन , तीसरे पहर और नौवें दिन शुभ चाहे तो क्षौर नहीं कराना चाहिये ॥२७॥२८॥

( राजाओंका श्मश्रुकर्म ) राजालोगोंको पांचवें ५ दिन पूर्व कहे हुए नक्षत्रोंमें कराना योग्य है यदि ग्राह्य नक्षत्रादि नहीं मिलें तो उनकी दुघडियोंमें कराना श्रेष्ठ है ॥२९॥

परंतु राजाके नौकरोंको अर्थात मंत्री मुसद्दी आदिकोंको क्षौर करानेमें शुभ दिनकी कोई जरूरत नहीं है ॥३०॥

अथ नखदंतकृत्यम्‌ । येषु येषु प्रशंसंति क्षुरकर्म महर्षय : । तेषु तेषु प्रशंसंति नखदन्तविलेखनम्‌ ॥३१॥

अथ सर्वविद्यारं भहुहूर्त्त : । हस्तादित्रितये ३ तथा निऋतिभे पूर्वोंत्यभेष्वश्विनीमित्रक्षें च मृगादिपंचप्तु शुभ : प्रारंभ आद्य : स्मृत : । विद्यानां हरिभात्त्रये रविकवीज्यानां दिनेषु श्रियेऽनध्यायाख्यतदाद्यवर्ज्जिततिथौ केन्द्रस्थितै : सद्‌ग्रहै : ॥३२॥

विद्यारम्भे गुरु : श्रेष्ठो मध्यमौ भृगुभास्करौ । मरणं शनिभौमाश्र्यामविद्या बुधसोमयो : ॥३३॥

अथ राजदर्शनम्‌ । चित्रामृगानुराधासु स्वात्यां च श्रवणद्वये २। हस्ते पुष्ये च रोहिण्यामश्चिन्याममुत्तरात्रये ॥३४॥

लग्ने स्थिरे राजयोगे लग्नें च बलसंयुते । शुभे योगे शुभे चन्द्रे राज्ञां दर्शनमुत्तमम्‌ ॥३५॥

अथ राजसेवामुहूर्त्त : ॥ हस्तद्वयेऽनुराधायां रेवतीयुगले मृगे । पुष्ये बुधे गुरौ शुक्रे सत्तिथौ रविवासरे ॥ योनिराशिपयोमैंत्र्यां स्वामी सेव्योऽनुजीविभि : ॥३६॥

अथ दासीदाससंग्रहे विशेष : । पूर्वोक्ते च तिथौ वारे योनिराशीशयो : शुभे । उत्तरासु च रोहिण्यां दासदास्यादिसंग्रह : ॥३७॥

( नखदन्तकृत्यमु० ) जिन नक्षत्र वारोंमें क्षौर कराना लिखा है उन्ही नक्षत्र वार आदिमें नख , दंत आदिका कार्य करना शुभ है ॥३१॥

( विद्यारंभमु० ) ह . चि . खा . मू . पू . ३ रे . अ . अनु . मृ . आ . पु . पु . आश्ले . इन नक्षत्रोंमें और रवि , गुरु , शुक्र वारोंमें तथा अनध्याय और अनध्यायके पूर्व तिथियोंके विना अन्यतिथियोंमें और केंद्र १।४।७।१० स्थानमें शुभ ग्रह होनेसे प्रथम विद्याका प्रारंभ करना श्रेष्ठ है ॥३२॥

परंतु विद्यारंभमें गुरुवार श्रेष्ठ है और शुक्र , रवि मध्यम हैं तथा शनि , मंगल मृत्युकारक हैं , बुध , तोमको विद्या नहीं आती है ॥३३॥

( राजदर्शनमु . ) चि . मृ . अनु . स्वा . श्र . ध . ह . पु . रो . अ . उ . इन नक्षत्रोंमें तथा स्थिर लग्न राजयोगमें और शुभयोग शुभचंद्रमामें राजासे मिलना शुभ है ॥३४॥३५॥

( राजसेवामु . ) ह . चि . अनु . रे . अ . मृ . पुष्य इन नक्षत्रोंमें , बुध , गुरु , शुक्र वारोंमें , श्रेष्ठ तिथियोंमें और योनि , राशिके स्वामीकी मित्रता होनेसे राजाके या मालिकके नौकर रहना श्रेष्ठ हैं . ( दास दासी रखनेमें विशेष ) इनही नक्षत्रादिकोंमें तथा उत्तरा ३ रो . में दास दासी रखना श्रेष्ठ है ॥३६॥३७॥

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Last Updated : November 11, 2016

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