मन्त्रमहोदधि - सप्तदश तरङ्ग

`मन्त्रमहोदधि' इस ग्रंथमें अनेक मंत्रोंका समावेश है, जो आद्य माना जाता है।


अरित्र
शंकराचार्य आदि आचार्यो के द्वार अब तक अप्रकाशित अभीष्ट फलदायक कार्तवीय के मन्त्रों का आख्यान करत हूँ । जे कार्तवीर्यार्जुन भूमण्डल पर सुदर्शन चक्र के अवतार माने जाते हैं ॥१॥

अब कार्तवीर्यार्जुन मन्त्र का उद्धार कहते हैं - वहिन (र) एवं तार सहित रौद्री (फ) अर्थात् (फ्रो), इन्दु एवं शान्ति सहित लक्ष्मी (व) अर्थात् (व्रीं),धरा, (हल) इन्दु, (अनुस्वार) एवं शान्ति (ईकार) सहित वेधा (क) अर्थात् (क्लीं), अर्धीश (ऊकार), अग्नि (र) एवं बिन्दु (अनुस्वार) सहित निद्रा (भ) अर्थात् (भ्रूं), फिर क्रमशः पाश (आं), माया (ह्रीं), अंकुश (क्रों), पद्म (श्रीं), वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), फिर ‘कार्तवी; पद, वायवासन,(य्), अनन्ता (आ) से युक्त रेफ (र) अर्थात् (र्या), कर्ण (उ) सहित वहिन (र) और (ज्) अर्थात् (र्जु) सदीर्घ (आकार युक्त) मेष (न) अर्थात् )(ना), फिर पवन (य) इसमें हृदय (नमः) जोडने से १९ अक्षरों का कार्तवीर्यर्जुन मन्त्र निष्पन्न होता है । इस मन्त्र के प्रारम्भ में तार (ॐ) जोड देने पर यह २० अक्षरों का हो जाता है ॥२-४॥

विमर्श - ऊनविंशतिवर्णात्मक मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - (ॐ) फ्रों व्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट् कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ॥२-४॥

इस मन्त्र के दत्तात्रेय मुनि हैं, अनुष्टुप छन्द है, कार्तवीर्याजुन देवता हैं, ध्रुव (ॐ) बीज है तथा हृद (नमः) शक्ति है ॥५॥

बुद्धिमान पुरुष, शेष (आ) से युक्त प्रथम दो बीज आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः, शान्ति (ई) से युक्त चतुर्थ बीज भ्रूं जिसमें काम बीज (क्लीं) भी लगा हो, उससे शिर अर्थात् ईं क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा, इन्दु (अनुस्वार) वामकर्ण उकार के सहित अर्घीश माया (ह) अर्थात् हुं से शिखा पर न्यास करना चाहिए । वाक् सहित अंकुश्य (क्रैं) तथा पद्म (श्रैं) से कवच का, वर्म और अस्त्र (हुं फट्) से अस्त्र न्यास करना चाहिए । तदनन्तर शेष कार्तवीर्यार्जुनाय नमः - से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥६-८॥

विमर्श - न्यासविधि -  आं फ्रों व्रीं हृदयाय नमः,        ई क्लीं भ्रूं शिरसे स्वाहा,
हुं शिखायै वषट्    क्रैं श्रैं कवचाय हुम्,        हुँ फट्‍ अस्त्राय फट् ।

इस प्रकार पञ्चाङ्गन्यास कर कार्तवीर्यार्जुनाय नमः’ से सर्वाङ्गन्यास करना चाहिए ॥६-७॥

अब वर्णन्यास कहते हैं - मन्त्र के १० बीजाक्षरों को प्रणव से संपुटित कर यथाक्रम, जठर, नाभि, गुह्य, दाहिने पैर बाँये पैर, दोनो सक्थि दोनो ऊरु, दोनों जानु एवं दोनों जंघा पर तथा शेष ९ वर्णों में एक एक वर्णों का मस्तक, ललाट, भ्रूं कान, नेत्र, नासिका, मुख, गला, और दोनों कन्धों पर न्यास करना चाहिए ॥८-१०॥

तदनन्तर सभी अङ्गो पर मन्त्र के सभी वर्णों का व्यापक न्यास करने के बाद अपने सभी अभीष्टों की सिद्धि हेतु राज कार्तवीर्य का ध्यान करना चाहिए ॥११॥

विमर्श - न्यास विधि - ॐ फ्रों ॐ हृदये,        ॐ व्रीं ॐ जठरे,
ॐ क्लीं ॐ नाभौ        ॐ भ्रूं ॐ गुह्ये,        ॐ आम ॐ दक्षपादे,
ॐ ह्रीं ॐ वामपादे,        ॐ फ्रों ॐ सक्थ्नोः    ॐ श्रीं ॐ उर्वोः,
ॐ हुं ॐ जानुनोः        ॐ फट्‌ ॐ जंघयोः    ॐ कां मस्तके,
ॐ र्त्त ललाटें            ॐ वीं भ्रुवोः,        ॐ र्यां कर्णयोः
ॐ र्जुं नेत्रयोः            ॐ नां नासिकायाम्    ॐ यं मुखे,
ॐ नं गले,            ॐ मः स्कन्धे

इस प्रकार न्यास कर - ॐ फ्रों श्रीं क्लीं भ्रूं आं ह्रीं फ्रों श्रीं हुं फट्‍  कार्तवीर्यार्जुनाय नमः सर्वाङ्गे- से व्यापक न्यास करना चाहिए ॥८-११॥

अब कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान कहते हैं -
उदीयमान सहस्त्रों सूर्य के समान कान्ति वाले, सभी राजाओं से वन्दित अपने ५०० हाथों में धनुष तथा ५०० हाथो में वाण धारण किए हुये सुवर्णमयी माला से विभूषित कण्ठ वाले, रथ पर बैठे हुये, साक्षात् सुदर्शनावतार कार्यवीर्य हमारी रक्षा करें ॥१२॥

इस मन्त्र का एक लाख जप करना चाहिए । तिलों से तथा चावल होम करे, तथा वैष्णव पीठ पर इनकी पूजा करे । वृत्ताकार कर्णिका, फिर वक्ष्यमाण दक्ष दल तथा उस पर बने भूपुर से युक्त वैष्णव यन्त्र पर वैष्णवी शक्तियों का पूजन कर उसी पर इनका पूजन करना चाहिए ॥१३-१४॥

विमर्श - कार्तवीर्य की पूजा षट्‌कोण युक्त यन्त्र में भी कही गई है । यथा - षट्‌कोणेषु षडङ्गानि... (१७. १६) तथ दशदल युक्त यन्त्र में भी यथा - दिक्पत्रें विलिखेत् (१७. २२) । इसी का निर्देश १७. १४ ‘वक्ष्यमाणे दशदले’ में ग्रन्थकार करते हैं ।

केसरों में पूर्व आदि ८ दिशाओं में एवं मध्य में वैष्णवी शक्तियोम की पूजा इस प्रकार करनी चाहिए-
ॐ विमलायै नमः, पूर्वे        ॐ उत्कर्षिण्यै नमः, आग्नेये
ॐ ज्ञानायै नमः, दक्षिणे,    ॐ क्रियायै नमः, नैऋत्ये,
ॐ भोगायै नमः, पश्चिमे    ॐ प्रहव्यै नमः, वायव्ये
ॐ सत्यायै नमः, उत्तरे,    ॐ ईशानायै नमः, ऐशान्ये
ॐ अनुग्रहायै नमः, मध्ये

इसके बाद वैष्णव आसन मन्त्र से आसन दे कर मूल मन्त्र से उस पर कार्तवीर्य की मूर्ति की कल्पना कर आवाहन से पुष्पाञ्जलि पर्यन्त विधिवत् उनकी पूजा कर उनकी अनुज्ञा ले आवरण पूजा प्रारम्भ करनी चाहिए ॥१३-१४॥

मध्य में आग्नेय, ईशान, नैऋत्ये, और वायव्यकोणों में हृदयादि चार अंगो की पुनः चारों दिशाओं में अस्त्र का पूजन करना चाहिए ॥१५॥

तदनन्तर ढाल और तलवार लिए हुये चन्द्रमा की आभा वाले षडङ्ग मूर्तियों का ध्यान करते हुये षट्‌कोणों में षडङ पूजा करनी चाहिए ।

इसके बाद पूर्वादि चारोम दिशाओं में तथा आग्नेयादि चारों कोणो में १. चोरमदविभञ्जन, २. मारीमदविभञ्जन, ३. अरिमदविभञ्जन, ४. दैत्यमदविभञ्जन, ५. दुःख नाशक, ६. दुष्टनाशक, ७. दुरितनाशक, एवं ८. रोगनाशक का पूजन करना चाहिए । पुनः पूर्व आदि ८ दिशाओं में श्वेतकान्ति वाली ८ शक्तियोम का पूजन करना चाहिए ॥१६-१८॥

१. क्षेमंकरी, २. वश्यकरी, ३. श्रीकरी, ४. यशस्करी ५. आयुष्करी, ६. प्रज्ञाकरी, ७. विद्याकारे, तथा ८. धनकरी ये ८ शक्तियाँ है । फिर आयुधों के साथ दश दिक्पालों का पूजन करना चाहिए । इस प्रकार की साधना से मन्त्र के सिद्ध जो जाने पर वह काम्य के योग्य हो जाता है ॥१९-२०॥

विमर्श - आवरण पूजा विधि - सर्वप्रथम कर्णिका के आग्नेयादि कोणों मे पञ्चाग पूजन यथा - आं फ्रों श्रीं हृदयाय नमः आग्नेये,
ई क्लीं भ्रूम शिरसे स्वाहा ऐशान्ये,        हु शिखायै  वषट्‍ नैऋत्ये,
क्रैं श्रैं कंवचाय हुम् वायव्ये,            हुं फट्‌ अस्त्राय सर्वदिक्षु ।

षडङ्गपूजा यथा -    ॐ फ्रां हृदयाय नमः,
ॐ फ्रीं शिरसे स्वाहा,            ॐ फ्रां शिखाये वषट् ॐ फ्रै कवचाय हुम्,
ॐ फ्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्,        ॐ फ्रः अस्त्राय फट्,

फिर अष्टदलों में पूर्वादि चारों दिशाओं में चोरविभञ्जन आदि का, तथा आग्नेयादि चारों कोणो में दुःखनाशक इत्यादि चार नाम मन्त्रों का इस प्रकर पूजन करना चाहिए - यथा -
ॐ चोरमदविभञ्जनाय नमः पूर्वे,        ॐ मारमदविभञ्जनाय नमः दक्षिणे,
ॐ अरिमदविभञ्जनाय नमः पश्चिमे,        ॐ दैत्यमदविभञ्जनाय नमः उत्तरे,
ॐ दुःखनाशाय नमः आग्नेये,            ॐ दुष्टनाशाय नमः नैऋत्ये,
ॐ दुरितनाशानाय वायव्ये,            ॐ रोगनाशाय नमः ऐशान्ये ।

तत्पश्चात्‍ पूर्वादि दिशाओं के दलोम अग्रभाग पर श्वेत आभा वाली क्षेमंकरी आदि ८ शक्तियोम का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ क्षेमंकर्यै नमः,        ॐ वश्यकर्यै नमः,        ॐ श्रीकर्यै नमः,
ॐ यशस्कर्यै नमः        ॐ आयुष्कर्यै नमः,        ॐ प्रज्ञाकर्यै नमः,
ॐ विद्याकर्यै नमः,        ॐ धनकर्यै नमः,        

तदनन्तर भूपुर में अपनी अपनी दिशाओं में इन्द्रादि दश दिक्पालों का इस प्रकार पूजन करना चाहिए । यथा -
ॐ लं इन्द्राय नमः पूर्वे,        ॐ रं अग्नये नमः आग्नेये,
ॐ मं यमाय नमः दक्षिणे        ॐ क्षं निऋतये नमः नैऋत्ये,
ॐ वं वरुणाय नमः पश्चिमें         ॐ यं वायवे नमः वायव्ये,
ॐ सं सोमाय नमः उत्तरे,        ॐ हं ईशानाय नमः ऐशान्ये,
ॐ आं ब्राह्यणे नमः पूर्वेअशानयोर्मध्ये, ॐ ह्रीं अनन्ताय नमः पश्चिमनैऋत्ययोर्मध्ये ।

फिर भूपुर के बाहर उनके वज्रादि आयुधोम की पूजा करनी चाहिए । यथा -
ॐ शूं शूलाय नमः,        ॐ पं पद्माय नमः,        ॐ चं चक्राय नमः, इत्यादि ।

इस प्रकार आवरण पूजा कर लेने के बाद धूप, दीप एवं नैवेद्यादि उपचारों से विधिवत् कार्तवीर्य का पूजन करना चाहिए ॥१५-२०॥

अब कार्तवीय की पूजा के लिए यन्त्र कहता हूँ । काम्यप्रयोगों में कार्तवीर्यस्य काम्यप्रयोगार्थ पूजनयन्त्रम्  कार्तवीर्यपूजन यन्त्रः -
वृत्ताकार कर्णिका में दशदल बनाकर कर्णिका में अपना बीज (फ्रों), कामबीज (क्लीं), श्रुतिबीज (ॐ) एवं वाग्बीज (ऐं) लिखे, फिरे प्रणव से ले कर वर्मबीज पर्यन्त मूल मन्त्र के १० बीजों को दश दलों पर लिखना चाहिए । शेष सह सहित १६ स्वरों को केशर में तथा शेष वर्णों से दशदल को वेष्टित करना चाहिए । भूपुर के कोणा में पञ्चभूत वर्णों को लिखना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन पूजा का यन्त्र कहा गया हैं ॥२१-२२॥
अब काम्य प्रयोग में अभिषेक विधि कहते है :-
शुद्ध भूमि में श्रद्धा सहित अष्टगन्ध से उक्त यन्त्र लिखकर उस पर कुभ की प्रतिष्ठा कर उसमें कार्तवीर्यार्जुन का आवाहन कर विधिवत् पूजन करना चाहिए ॥२३॥

फिर अपनी इन्द्रियों ओ वश में कर साधक कलश का स्पर्श कर उक्त मुख्य मन्त्र का एक हजार जप करे । तदनन्तर उस कलश के जल से अपने समस्त अभीष्टों की सिद्धि हेतु अपना तथा अपने प्रियजनों का अभिषेक करे ॥२३-२४॥

अब उस अभिषेक का फल कहते हैं - इस प्रकार अभिषेक से अभिषिक्त व्यक्ति पुत्र, यथ, आरोग्य आयु अपने आत्मीय जनों से प्रेम तथा उपद्रव्य होने पर उनके भय को दूर करने के लिए कार्तवीर्य के इस मन्त्र को संस्थापित करना चाहिए ॥२५-२६॥

विविध कामनाओं में होम द्रव्य इस प्रकार है - सरसों, लहसुन एवं कपास के होम से शत्रु का मारन होता है । धतूर के होम से शत्रु का स्तम्भन, नीम के होम से परस्पर विद्वेषण, कमल के होम से वशीकरण तथा बहेडा एवं खैर की समिधाओं के होम से शत्रु का उच्चाटन होता है । जौ के होम से लक्ष्मी प्राप्ति, तिल एवं घी के होम से पापक्षय तथा तिल तण्डुल सिध्दार्थ (श्वेत सर्षप) एवं लाजाओं के होम से राजा वश में हो जाता है ॥२७-२९॥

अपामार्ग, आक एवं दूर्वा का होम लक्ष्मीदायक तथा पाप नाशक होता है । प्रियंतु का होम स्त्रियों को वश में करता है । गुग्गुल का होम भूतों को शान्त करता है । पीपर, गूलर, पाकड, बरगद एवं बेल की समिधाओं से होम कर के साधक पुत्र, आयु, धन एवं सुख प्रप्त करता है ॥३०-३१॥

साँप की केंचुली, धतूरा, सिद्धार्थ (सफेद सरसों ) तथा लवण के होम से चोरों का नाश होता है । गोरोचन एवं गोबर के होम से स्तंभन होता है तथा शालि (धान) के होम से भूमि प्राप्त होती है ॥३२॥

मन्त्रज्ञ विद्वान् को कार्य की न्यूनाधिकता के अनुसार समस्त काम्य प्रयोगों में होम की संख्या १ हजार से १० हजार तक निश्चित कर लेनी चाहिए । कार्य बाहुल्य में अधिक तथा स्वल्पकार्य में स्वल्प होम करना चाहिए ॥३३॥

विमर्श - सभी कहे गय काम्य प्रयोगों में होम की संख्या एक हजार से दश हजार तक कही गई है, विद्वान् जैसा कार्य देखे वैसा होम करे ॥३३॥

अब सिद्धियों को देने वाले कार्तवीर्यार्जुन के मन्त्रों के भेद कहे जाते हैं -
अपने बीजाक्षर (फ्रों) से युक्त कार्तवीर्यार्जुन का चतुर्थ्यन्त, उसके बाद नमः लगाने से १० अक्षर का प्रथम मन्त्र बनता है । अन्य मन्त्र भी कोई ९ अक्षर के तथा कोई ११ अक्षर के कहे गये हैं ॥३४-३५॥

उक्त मन्त्र के प्रारम्भ में दो बीज (फ्रों व्रीं) लगाने से यह द्वितीय मन्त्र बन जाता है । स्वबीज (फ्रों) तथा कामबीज (क्लीं) सहित यह तृतीय मन्त्र स्वबीज एवं वाग्बीज (ऐं) सहित नवम मन्त्र और आदि में वर्म (हुं) तथा अन्त में अस्त्र (फट्) सहित दशम मन्त्र बन जाता है ॥३४-३७॥

विमर्श - कार्तवीर्यार्जुन के दश मन्त्र - १, फ्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः २. फ्रों व्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ३. फ्रों क्लीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ४. फ्रों भ्रूं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः ५. फ्रों आं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ६. फ्रों ह्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ७. फ्रों क्रों कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ८. फ्रों श्रीं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, ९. फ्रों ऐं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः, १०. हुं कार्तवीर्यार्जुनाय नमः फट् ॥३४-३७॥

द्वितीय मन्त्र से लेकर नौवें मन्त्र तक बीजों का व्युत्क्रम से कथ है और दसवें मन्त्र में वर्म (हुं) और अस्त्र (फट्) के मध्य नौ वर्ण रख्खे गए हैं ॥३८॥

इन मन्त्रों मे से जो भी सिद्धादि शोधन की रिति से अपने अनुकूल मालूम पडे उसी मन्त्र की साधना करनी चाहिए ॥३९॥

इन मन्त्रों में प्रथम दशाक्षर का विराट्‌ छन्द है तथा अन्यों का त्रिष्टुप छन्द है ॥३९॥

विमर्श - दशाक्षर मन्त्र का विनियोग- अस्य श्रीकार्तवीर्यार्युनमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिविराट्‌छन्दः कार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धये जपे विनियोगः ।

अन्य मन्त्रों क विनियोग - अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेऋषि स्त्रिष्टुप छन्दः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

पूर्वोक्त १० मन्त्रों के प्रारम्भ में प्रणव लगा देने से प्रथम दशाक्षर मन्त्र एकादश अक्षरों का तथा अन्य ९ द्वादशाक्षर बन जाते है । इस प्रकार कार्तवीर्य मन्त्र के २० प्रकार के भेद बनते है । इनकी साधना पूर्वोक्त मन्त्रों के समान है । उक्त द्वितीय दश संख्यक मन्त्रों में पहले त्रिष्टुप तथा अन्यों का जगती छन्द है । इन मन्त्रों की साधना में षड्‌ दीर्घ सहित स्वबीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४०-४१॥

विनियोग - अस्य श्रीएकादशाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दः कार्तवीर्यार्जुनों देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थं जपे विनियोगः ।

अन्य नवके - अस्य श्रीद्वादशाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिर्जगतीच्छदः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास - फ्रां हृदयाय नमः,    फ्रीं शिरसे स्वाहा,        फ्रूम शिखायै वषट्,
फ्रैं कवचाय हुम्,        फ्र्ॐ नेत्रत्रयाय वौषट्,        फ्रः अस्त्राय फट् ॥४१॥

तार (ॐ), हृत् (नमः), फिर ‘कार्तवीर्यार्जुनाय’ पद, वर्म (हुं), अ (फट्), तथा अन्त में ठद्वय (स्वाहा) लगाने से १४ अक्षर का मन्त्र बनता है इसकी साधना पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥४२॥

विमर्श - चतुर्दशार्ण मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ नमः कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१४) ॥४२॥

मन्त्र के क्रमशः १, २, ७, २, एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४३॥

विमर्श - पञ्चाङ्गन्यास - ॐ हृदयाय नमः, नमः शिरसे स्वाहा,
कार्तवीर्यार्जुनाय शिखायै वषट्,        हुं फट् कवचाय हुम्,        स्वाहा अस्त्राय फट ॥४३॥

तार (ॐ), हृत् (नमः), तदनन्तर चतुर्थ्यन्त भगवत् (भगवते), एवं कार्तवीर्यार्जुन (कार्तवीर्यार्जुनाय), फिर वर्म (हुं), अस्त्र (फट्) उसमें अग्निप्रिया (स्वाहा) जोडने से १८ अक्षर का अन्य मात्र बनता है ॥४३-४४॥

विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ नमो भगवते कार्तवीर्यार्जुनाय हुं फट् स्वाहा (१८) ॥४४॥
इस मन्त्र के क्रमशः ३, ४, ७, २ एवं २ वर्णों से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए ॥४४॥

पञ्चाङ्गन्यास - ॐ हृदयाय नमः, भगवते शिरसे स्वाहा, कार्तवीर्यार्जुनाय शिखायै वषट्, हुं फट कवचाय हुम्, स्वाहा अस्त्राय फट् ॥४४॥

नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय, फिर सर्वदुष्टान्तकाय, फिर ‘तपोबल पराक्रम परिपालिलसप्त’ के बाद, ‘द्वीपाय सर्वराजन्य चूडामण्ये सर्वशक्तिमते’, फिर ‘सहस्त्रबाहवे’, फिर वर्म (हुं), फिर अस्त्र (फट्), लगाने से ६३ अक्षरों का मन्त्र बनता हैं , जो स्मरण मात्र से सारे विध्नों को दूर कर देता है ॥४५-४७॥

विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - नमो भगवते श्रीकार्तवीर्यार्जुनाय सर्वदुष्टान्तकाय तपोबलपराक्रमपरिपालितसप्तद्वीपाय सर्वराजन्यचूडाणये सर्वशक्तिमते सहस्त्रबाहवे हुं फट् (६३) ॥४५-४७॥

१. राजन्यचक्रवर्ती, २. वीर, ३. शूर, ४. महिष्मपति, ५. रेवाम्बुपरितृप्त एवं, ६. कारागेहप्रबाधितदशास्य - इन ६ पदों के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाकर षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥४८-४९॥

विमर्श - षडङ्गन्यास का स्वरुप - राजन्यचक्रवर्तिने हृदयाय नमः, वीराय शिरसे स्वाहा, शूराय शिखायै वषट्, महिष्मतीपतये कवचाय हुम्, रेवाम्बुपरितृप्ताय नेत्रत्रयाय वौषट्, कारागेहप्रबाधितशास्याय अस्त्राय फट्‌ ॥४८-४९॥

नर्मदा नदी में जलक्रीडा करते समय युवतियों के द्वारा अभिषिच्यमान तथा नर्मदा की जलधारा को अवरुद्ध करने वाले नृपश्रेष्ठ कार्तवीर्यार्जुन का ध्यान करना चाहिए ॥५०॥

इस प्रकार ध्यान कर उक्त मन्त्र का १० हजार जप करना चाहिए तथा हवन पूजन आदि समस्त कृत्य पूर्वोक्त कथित मन्त्र की विधि से करना चाहिए । इस मन्त्र साधना के सभी कृत्य पूर्वोक्त मन्त्र के समान कहे गये हैं ॥५१॥

अब कार्तवीर्यार्जुन के अनुष्टुप मन्त्र का उद्धार कहता हूँ -
‘कार्तवीर्यार्जुनो’ पद के बाद, नाम राजा कहकर ‘बाहुसहस्त्र’ तथा ‘वान्’ कहना चाहिए । फिर ‘तस्य सं’ ‘स्मरणादेव’ तथा ‘हृतं नष्टं च’ कहकर ‘लभ्यते’ बोलना चाहिए । यह ३२ अक्षर का मन्त्र है ।
इस अनुष्टुप् के १-१ पाद से, तथा सम्पूर्ण मन्त्र से पञ्चाङ्गन्यास करना चाहिए । इसका ध्यान एवं पूजन आदि पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ॥५२-५३॥

विमर्श - मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है -
कार्तवीर्याजुनी नाम राजा बाहुसहस्त्रावान् ।
तस्य संस्मरणादेव हृतं नष्टं च लभ्यते ॥

विनियोग - अस्य श्रीकार्तवीर्यार्जुनमन्त्रस्य दत्तात्रेयऋषिरनुष्टुप्छन्दः श्रीकार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

पञ्चाङ्गन्यास - कार्तवीर्यार्जुनो नाम हृदयाय नमः, राजा बाहुसहस्त्रवान् शिरसे स्वाहा, तस्य संस्मरणणादेव शिखायै वषट्, हृतं नष्टं च लभ्यते कवचाय हुम्, कार्तवीर्यार्जुनी० अस्त्राय फट् ॥५२-५३॥

‘कार्तवीर्याय’ पद दे बाद ‘विद्महे’, फिर ‘महावीर्याय’ के बाद ‘धीमहि’ पद कहना चाहिए । फिर ‘तन्नोऽर्जुनः प्रचोदयात्’ बोलना चाहिए । यह कार्तवीर्यार्जुन का गायत्री मन्त्र है । कार्तवीर्य के प्रयोगों को प्रारम्भ करते समय इसका जप करना चाहिए ॥५४-५६॥

रात्रि में इस अनुष्टुप् मन्त्र का जप करने से चोरों का समुदाय घर से दूर भाग जाता हैं । इस मन्त्र से तर्पण करने पर अथवा इसका उच्चारण करने से भी चोर भाग जाते हैं ॥५६-५७॥

अब दीपप्रियः आर्तवीर्यः’ इस विधि के अनुसार कार्तवीर्य को प्रसन्न करने वैशाख, श्रावण, मार्गशीर्ष, कार्तिक, आश्विन, पौष, माघ एवं फाल्गुन में दीपदान करना प्रशस्त माना गया है ॥५७-५८॥

चौथ, नवमी तथा चतुर्दशी - इन (रिक्ता) तिथियों को छोडकर, दिनों में मङ्गल एवं शनिवार छोडकर, हस्त, उत्तरात्रय, आश्विनी, आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, स्वाती, विशाखा एवं रोहिणी नक्षत्र में कार्तवीर्य के लिए दीपदान का आरम्भ प्रशस्त कहा गया है ॥५९-६०॥

वैघृति, व्यतिपात, धृति, वृद्धि, सुकर्मा, प्रीति, हर्षण, सौभाग्य, शोभन एवं आयुष्मान् योग में तथा विष्टि (भद्रा) को छोडकर अन्य करणों में दीपारम्भ करना चाहिए । उक्त योगों में पूर्वाहण के समय दीपारम्भ करना प्रशस्त है ॥६०-६२॥

कार्तिक शुक्ल सप्तमी को निशीथ काल में इसका प्रारम्भ शुभ है । यदि उस दिन रविवार एवं श्रवण नक्षत्र हो तो ऐसा बहुत दुर्लभ है । आवश्यक कार्यो में महीने का विचार नहीं करना चाहिए ॥६२-६३॥

साधक दीपदान से प्रथम दिन उपवास कर ब्रह्यचर्य का पालन करते हुये पृथ्वी पर शयन करे । फिर दूसरे दिन प्रातः काल स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होकर गोबर और शुद्ध जल से हुई भूमि में प्राणायाम कर, दीपदान का संकल्प एवं पूर्वोक्त न्यासोम को करे ॥६४-६५॥

फिर पृथ्वी पर लाल चन्दन मिश्रित चावलों से षट्‍कोण का निर्माण करे । पुनः उसके भीतर काम बीज (क्लीं) लिख कर षट्‌कोणों में मन्त्रराज के कामबीज को छोडकर शेष बीजो को (ॐ फ्रों व्रीं भ्रूं आं ह्रीं) लिखना चाहिए । सृणि (क्रों) पद्म (श्रीं) वर्म (हुं) तथा अस्त्र (फट्) इन चारों बीजों को पूर्वादि चारों दिशाओं में लिखना चाहिए । फिर ९ वर्णों (कार्तवीर्यार्जुनाय नमः) से उन षड्‌कोणों को परिवेष्टित कर देना चाहिए । तदनन्तर उसके बाहर एक त्रिकोण निर्माण करना चाहिए ॥६५-६७॥

अब दीपस्थापन एवं पूजन का प्रकार कहते हैं -
इस प्रकार से लिखित मन्त्र पर दीप पात्र को स्थापित करना चाहिए । वह पात्र सोने, चाँदी या ताँबे का होना चाहिए । उसके अभाव में काँसे का अथवा उसके भी अभाव में मिट्टी का या लोहे का होना चाहिए । किन्तु लोहे का और मिट्टी का पात्र कनिष्ठ (अधम) माना गया है ॥६८-६९॥

शान्ति के और पौष्टिक कार्यो के लिए मूँगे के आटे का तथा किसी को मिलाने के लिए गेहूँ के आँटे का दीप-पात्र बनाकर जलाना चाहिए ॥६९॥

ध्यान रहे कि दीपक का निचला भाग (मूल) एवं ऊपरी भाग आकृति में समान रुप का रहे । पात्र का परिमाण १२, १०, ८, ६, ५, या ४ अंगुल का होना चाहिए ॥७०॥

सौ पल के भार से बने पात्र में एक हजार पल घी, ५०० पल के भार से बन पात्र में १० हजार पल घी, ६० पल के भार से बनाये गये पात्र में ७५ पल घी, १२५ पल भार से बनाये गये पात्र में ३ हजार पल घी, ११५ पल भार से बनाये गये दीप-पात्र में २ हजार पल घी, ३० पल भार से बनाये गये पात्र में ५० पल घी तथा ५२ पल भार से से बनाये गये पात्र में १०० पल घी डालना चाहिए । इस प्रकार जितना घी जलाना हो अनुसार पात्र के भार की कल्पना कर लेनी चाहिए ॥७१-७३॥

नित्यदीप में ३ पल के भार का पात्र तथा १ पल घी का मान बताया गया है । इस प्रकार दीप-पात्र संस्थापित कर सूत की बनी बत्तियाँ डालनी चाहिए । १. ३, ५, ७, १५ या एक हजार सूतों की बनी बत्तियाँ डालिनी चाहिए । ऐसे सामान्य नियमानुसार विषम सूतों की बनी बत्तियाँ होनी चाहिए ॥७४-७५॥

दीप-पात्र में शुद्ध-वस्त्र से छना हुआ गो घृत डालना चाहिए । कार्य के लाघव एवं गुरुत्व के अनुसार १० पल से लेकर १००० पल परिमाण पर्यन्त घी की मात्रा होनी चाहिए ॥७६॥

सुवर्ण आदि निर्मित्त पात्र के अग्रभाग में पतली तथा पीछे के भाग में मोटी १६, ८ या ४ अंगुल की एक मनोहर शलाका बनाकार उक्त दीप पात्र के, भीतर दाहिनी ओर से शलाका का अग्रभाग कर डालना चाहिए । पुनः दीप पात्र से दक्षिण दिशा में ४ अंगुल जगह छोडकर भूमि में अधोमुख एक छुरी या चाकू गाडना चाहिए । फिर गणपति का स्मरण करते हुये दीप की जलाना चाहिए ॥७७-७९॥

दीपक से पूर्व दिशा में सर्वतोभद्र मण्डल या चावलों से बने अष्टदल पर मिट्टी का घडा विधिवत् स्थापित करना चाहिए । उस घट पर कार्तवीर्य का आवाहन कर साधक को पूर्वोक्त विधि से उनका पूजन करना चाहिए । इतना कर लेने के बाद हाथ में जल और अक्षत लेकर दीप का संकल्प करना चाहिए ॥८०-८१॥

अब १५२ अक्षरों का दीपसंकल्प मन्त्र कहते हैं - यह (द्वि २ इषु ५ भूमि १ अंकाना वामतो गतिः) एक सौ बावन अक्षरों का माला मन्त्र है ।

प्रणव (ॐ), पाश (आं), माया (ह्रीं), शिखा (वषट्), इसके बाद ‘कार्त्त’ इसके बाद ‘वीर्यार्जुनाय’ के बाद ‘माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे’ इन वर्णों के बाद ‘सहस्त्र’ पद बोलना चाहिए । फिर ‘क्रतुदीक्षितहस्त दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय’, फिर वाम कर्ण (ऊ), इन्दु(अनुस्वार) सहित नभ (ह) एवं अग्नि (र्) अर्थात् (हूँ) पाश आं, फिर ‘इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टानाशय नाशय’, फिर २ बार ‘पातय’ और २ बार ‘घातय’ (पातय पातय घातय घातय), ‘शत्रून जहि जहि’, फिर माया (ह्रीं) तार (ॐ) स्वबीज (फ्रो), आत्मभू (क्लीं) और फिर वाहिनजाया (स्वाहा), फिर ‘अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकं वर प्रदानाय’, फिर वामनेत्रे (ई), चन्द्र (अनुस्वार) सहित २ बार आकाश (ह) अर्थात् (हीं हीं), शिवा (ह्रीं), वेदादि (ॐ), काम (क्लीं) चामुण्डा (व्रीं), ‘स्वाहा’ फिर सानुस्वर तवर्ग एवं पवर्ग (तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं), फिर प्रणव (ॐ) तथा अग्निप्रिया स्वाहा लगाने से १५२ अक्षरों का दीपदान मन्त्र बन जाता है ॥८२-८९॥

विमर्श - दीप संकल्प के मन्त्र का स्वरुप इस प्रकार है - ॐ आं ह्रीं वषट्‍ कार्तवीर्यार्जुनाय माहिष्मतीनाथाय सहस्त्रबाहवे, सहस्त्रक्रतुदीक्षितहस्ताय दत्तात्रेयप्रियाय आत्रेयानुसूयागर्भरत्नाय ह्रूं आं इमं दीपं गृहाण अमुकं रक्ष रक्ष दुष्टान्नाशय नाशय पातय पातय घातय घातय शत्रून जहि जहि ह्रीं ॐ फ्रों क्लीं स्वाहा अनेन दीपवर्येण पश्चिमाभिमुखेन अमुकं रक्ष अमुकवरप्रदानाय हीं हीं ह्रीं ॐ क्लीं व्रीं स्वाहा तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं ॐ स्वाहा (१५२) ॥८२-८९॥

इस मालामन्त्र के दत्तात्रेय ऋषि, अमित छन्द तथा कार्तवीर्यार्जुन देवता हैं । षड्‌दीर्घसहित चामुण्डा बीज से षडङ्गन्यास करना चाहिए ॥८९-९०॥

विमर्श विनियोग - अस्य श्रीकार्तवीर्यमालमन्त्रस्य दत्तात्रेऋषिरमितच्छन्दः कार्तवीर्याजुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास - ॐ व्रां हृदयाय नमः, व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं शिखायै वषट्,
व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्‍ व्रः अस्त्राय फट् ॥८९-९०॥

दीप संकल्प के पहले कार्तवीर्य का ध्यान करे । फिर हाथ में जल ले कर उक्त संकल्प मन्त्र का उच्चारण कर जल नीचे भूमि पर गिरा देना चाहिए  । इसके बाद वक्ष्यमाण नवाक्षर मन्त्र का एक हजार जप करना चाहिए ॥९१॥

नवाक्षर मन्त्र का उद्धार - तार (ॐ), बिन्दु (अनुस्वार) सहित अनन्त (आ) (अर्थात् आं), माया (ह्रीं), वामनेत्र सहित स्वबीज (फ्रीं), फिर शान्ति (ई) और चन्द्र (अनुस्वार) सहित कूर्म (व) और अग्नि (र) अर्थात् (व्रीं), फिर वहिननारी (स्वाहा), अंकुश (क्रों) तथा अन्त में ध्रुव (ॐ) लगाने से नवाक्षर मन्त्र बनता है । यथा - ॐ आं ह्रीं फ्रीं स्वाहा क्रों ॐ ॥९२॥

इस मन्त्र के पूर्वोक्त दत्तानेत्र ऋषि हैं । अनुष्टुप्‍ छन्द है तथा इसके देवता और न्यास पूर्वोक्त मन्त्र के समान है ।(द्र० १७. ८९-९०) इस मन्त्र का एक हजार ज्प कर कवच का पाठ करना चाहिए । (यह कवच डामर तन्त्र में हुं के साथ कहा गया है ) ॥९३॥
विमर्श - विनियोग- अस्य नवाक्षरकार्तवीर्यमन्त्रस्य दत्तानेत्रऋषिः अनुष्टुप्‌छन्दः कार्तवीर्यार्जुनी देवतात्मनोऽभीष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास - व्रां हृदयाय नमः व्रीं शिरसे स्वाहा, व्रूं शिखायै वषट्,
व्रैं कवचाय हुम्, व्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् व्रः अस्त्राय फट् ॥९३॥

इस प्रकर दीपदान करने वाला व्यक्ति अपना सारा अभीष्ट पूर्ण कर लेता है । दीप प्रज्वलित करते समय अमाङ्गलिक शब्दों का उच्चारण वर्जित है ॥९४॥
अब दीपदान के समय शुभाशुभ शकुन का निर्देश करते हैं -
दीप प्रज्वलित करते समय ब्राह्मण का दर्शन शुभावह है । शूद्रों का दर्शन मध्यम फलदायक तथा म्लेच्छ दर्शन बन्धदायक माना गया है । चूहा और बिल्ली का दर्शन अशुभ तथा गौ एवं अश्व का दर्शन शुभकारक है ॥८४-८६॥

दीप ज्वाला ठीक सीधी हो तो सिद्धि और टेढी मेढी हो तो विनाश करने वाली मानी गई है । दीप ज्वाला से चट चट का शब्द भय कारक होता है । ज्योतिपुञ्ज उज्ज्वल हो तो कर्ता को सुख प्राप्त होता है । यदि काला हो तो शत्रुभयदायक तथा वमन कर रहा हो तो पशुओं का नाश करता है । दीपदान करन के बाद यदि संयोगवशात् पात्र भग्न हो जावे तो यजमान १५ दिन के भीतर यमलोक का अतिथि बन जाता है ॥९६-९८॥

अब दीपदान के शुभाशुभ कर्तव्य कहते हैं - दीप में दूसरी बत्ती डालने से कार्य सिद्ध में विलम्ब है, उस दीपक से अन्य दीपक जलाने वाला व्यक्ति अन्धा हो जाता है । अशुद्ध अशुचि अवस्था में दीप का स्पर्श करने से आधि व्याधि उत्पन्न होती है । दीपक के नाश होने पर चोरों से भय तथा कुत्ते, बिल्ली एवं चूहि आदि जन्तुओं के स्पर्श से राजभय उपस्थित होता है ॥९९-१००॥

यात्रा करत समय ८ पल की मात्रा वाला दीपदान समस्त अभीष्टों को पूर्ण करता है । इसलिए सभी प्रकार के प्रयत्नों से सावधानी पूर्वक दीप की रक्षा करनी चाहिए जिससे विघ्न न हो ॥१०१॥

दीप की समाप्ति पर्यन्त कर्ता ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये भूमि पर शयन करे तथा स्त्री, शूद्र और पतितो से संभाषण भी न करे ॥१०२॥

प्रत्येक दीपदान के समय से ले कर समाप्ति पर्यन्त प्रतिदिन नवाक्षर मन्त्र (द्र० १७. ९२) का १ हजार जप तथा स्तोत्र का पाठ विशेष रुप से रात्रि के समय करना चाहिए ॥१०३॥

निशीथ काल में एक पैर से खडा हो कर दीप के संमुख जो व्यक्ति इस मन्त्रराज का १ हजार जप करता है वह शीघ्र ही अपना समस्त अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥१०४॥

इस प्रयोग को उत्तम दिन में समाप्त कर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद कुम्भ के जल से मूलमन्त्र द्वारा कर्ता का अभिषेक करना चाहिए ॥१०५॥

कर्ता साधक अपने गुरु को संतोषदायक एवं पर्याप्त दक्षिणा दे कर उन्हें संतुष्ट करे । गुरु के प्रसन्न हो जाने पर कृतवीर्य पुत्र कार्तवीर्यार्जुन साधक के सभी अभीष्टों को पूर्ण करते हैं ॥१०६॥

यह प्रयोग गुरु की आज्ञा ले कर स्वयं करना चाहिए अथवा गुरु को रत्नादि दान दे कर उन्हीं से कार्तवीर्याजुन को दीपदान कराना चाहिए । गुरु की आज्ञा लिए बिना जो व्यक्ति अपनी इष्टसिद्धि के लिए इस प्रयोग का अनुष्ठान करता है उसे कार्यसिद्धि की बात तो दूर रही, प्रत्युत वह पदे पदे हानि उठाता है ॥१०७-१०८॥

कृतघ्न आदि दुर्जनों को इस दीपदान की विधि नहीं बतानी चाहिए । क्योंकि यह मन्त्र दुष्टों को बताये जाने पर बतलाने वाले को दुःख देता है । दीप जलाने के लिए गौ का घृत उत्तम कहा गया है, भैंस का घी मध्यम तथा तिल का तेल भी मध्यम कहा गया है । बकरी आदि का घी अधम कहा गया है । मुख का रोग होने पर सुगन्धित तेलों से दीप दान करना चाहिए । शत्रुनाश के लिए श्वेत सर्वप के तेल का दीप दान करना चाहिए । यदि एक हजार पल वाले दीओ दान करने से भी कार्य सिद्धि न हो तो विधि पूर्वक तीन दीपों का दान करना चाहिए । ऐसा करने से कठिन से भी कठिन कार्य सिद्ध हो जाता है ॥१०९-११२॥

जिस किसी भी प्रकार से जो व्यक्ति अपने घर में कार्तवीर्य के लिए दीपदान करता है, उसके समस्त विघ्न और समस्त शत्रु अपने आप नष्ट हो जाते हैं । वह सदैव विजय प्राप्त करता है तथा पुत्र, पौत्र, धन और यश प्राप्त करता है । पात्र, घृत, आदि नियम किए बिना ही जो व्यक्ति किसी प्रकार से प्रतिदिन घर में कार्तवीर्यार्जुन की प्रसन्नता के लिए दीपदान करता है वह अपना सारा अभीष्ट प्राप्त कर लेता है ॥११३-११५॥

तत्तदेवताओं की प्रसन्नता के लिए क्रियमाण कर्तव्य का निर्देश करते हुये ग्रन्थकार कहते हैं -
कार्तवीर्यार्जुन को दीप अत्यन्त प्रिय है, सूर्य को नमस्कार प्रिय है, महाविष्णु को स्तुति प्रिय है, गणेश को तर्पण, भगवती जगदम्बा को अर्चना तथा शिव को अभिषेक प्रिय है । इसलिए इन देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनका प्रिय संपादन करना चाहिए ॥११६-११७॥

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Last Updated : May 07, 2012

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