हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|हरिगीता| अध्याय ८ हरिगीता अध्याय १ अध्याय २ अध्याय ३ अध्याय ४ अध्याय ५ अध्याय ६ अध्याय ७ अध्याय ८ अध्याय ९ अध्याय १० अध्याय ११ अध्याय १२ अध्याय १३ अध्याय १४ अध्याय १५ अध्याय १६ अध्याय १७ अध्याय १८ हरिगीता - अध्याय ८ गीता म्हणजे प्राचीन ऋषी मुनींनी रचलेली विश्व कल्याणकारी मार्गदर्शक तत्त्वे.Gita has the essence of Hinduism, Hindu philosophy and a guide.. Tags : gitaharigitaहरिगीताहिन्दी अध्याय ८ Translation - भाषांतर अर्जुन ने कहा - - हे कृष्ण! क्या वह ब्रह्म? क्या अध्यात्म है? क्या कर्म है? अधिभूत कहते हैं किसे? अधिदेव का क्या मर्म है ? ८ । १॥इस देह में अधियज्ञ कैसे और किसको मानते ? मरते समय कैसे जितेन्द्रिय जन तुम्हें पहिचानते ? ८ । २॥श्रीभगवान् ने कहा - - अक्षर परम वह ब्रह्म है, अध्यात्म जीव स्वभाव ही ।जो भूतभावोद्भव करे व्यापार कर्म कहा वही ॥३॥अधिभूत नश्वर भाव है, चेतन पुरुष अधिदैव ही ।अधियज्ञ मैं सब प्राणियों के देह बीच सदैव ही ॥४॥तन त्यागता जो अन्त में मेरा मनन करता हुआ ।मुझमें असंशय नर मिले वह ध्यान यों धरता हुआ ॥५॥अन्तिम समय तन त्यागता जिस भाव से जन व्याप्त हो ।उसमें रंगा रहकर सदा, उस भाव ही को प्राप्त हो ॥६॥इस हेतु मुझको नित निरन्तर ही समर कर युद्ध भी ।संशय नहीं, मुझमें मिले, मन बुद्धि मुझमें धर सभी ॥७॥अभ्यास- बल से युक्त योगी चित्त अपना साध के ।उत्तम पुरुष को प्राप्त होता है उसे आराध के ॥८॥सर्वज्ञ शास्ता सूक्ष्मतम आदित्य- सम तम से परे ।जो नित अचिन्त्य अनादि सर्वाधार का चिन्तन करे ॥९॥कर योग- बल से प्राण भृकुटी- मध्य अन्तिम काल में ।निश्चल हुआ वह भक्त मिलता दिव्य पुरुष विशाल में ॥१०॥अक्षर कहें वेदज्ञ, जिसमें राग तज यति जन जमें ।हों ब्रह्मचारी जिसलिये, वह पद सुनो संक्षेप में ॥११॥सब इन्द्रियों को साधकर निश्चल हृदय में मन धरे ।फिर प्राण मस्तक में जमा कर धारणा योगी करे ॥१२॥मेरा लगाता ध्यान कहता ॐ अक्षर ब्रह्म ही ।तन त्याग जाता जीव जो पाता परम गति है वही ॥१३॥भजता मुझे जो जन सदैव अनन्य मन से प्रीति से ।निज युक्त योगी वह मुझे पाता सरल- सी रीति से ॥१४॥पाए हुए हैं सिद्धि- उत्तम जो महात्मा- जन सभी ।पाकर मुझे दुख- धाम नश्वर- जन्म नहिं पाते कभी ॥१५॥विधिलोक तक जाकर पुनः जन जन्म पाते हैं यहीं ।पर पा गए अर्जुन! मुझे वे जन्म फिर पाते नहीं ॥१६॥दिन- रात ब्रह्मा की, सहस्रों युग बड़ी जो जानते ।वे ही पुरुष दिन- रैन की गति ठीक हैं पहिचानते ॥१७॥जब हो दिवस अव्यक्त से सब व्यक्त होते हैं तभी ।फिर रात्रि होते ही उसी अव्यक्त में लय हों सभी ॥१८॥होता विवश सब भूत- गण उत्पन्न बारम्बार है ।लय रात्रि में होता दिवस में जन्म लेता धार है ॥१९॥इससे परे फिर और ही अव्यक्त नित्य- पदार्थ है ।सब जीव विनशे भी नहीं वह नष्ट होता पार्थ है ॥२०॥कहते परम गति हैं जिसे अव्यक्त अक्षर नाम है ।पाकर जिसे लौटें न फिर मेरा वही पर धाम है ॥२१॥सब जीव जिसमें हैं सकल संसार जिससे व्याप्त है ।वह पर- पुरुष होता अनन्य सुभक्ति से ही प्राप्त है ॥२२॥वह काल सुन, तन त्याग जिसमें लौटते योगी नहीं ।वह भी कहूंगा काल जब मर लौट कर आते यहीं ॥२३॥दिन, अग्नि, ज्वाला, शुक्लपख, षट् उत्तरायण मास में ।तन त्याग जाते ब्रह्मवादी, ब्रह्म ही के पास में ॥२४॥निशि, धूम्र में मर कृष्णपख, षट् दक्षिणायन मास में ।नर चन्द्रलोक विशाल में बस फिर फँसे भव- त्रास में ॥२५॥ये शुक्ल, कृष्ण सदैव दो गति विश्व की ज्ञानी कहें ।दे मुक्ति पहली, दूसरी से लौट फिर जग में रहें ॥२६॥ये मार्ग दोनों जान, योगी मोह में पड़ता नहीं ।इस हेतु अर्जुन! योग- युत सब काल में हो सब कहीं ॥२७॥जो कुछ कहा है पुण्यफल, मख वेद से तप दान से ।सब छोड़ आदिस्थान ले, योगी पुरुष इस ज्ञान से ॥२८॥आठवां अध्याय समाप्त हुआ ॥८॥ N/A References : N/A Last Updated : January 22, 2014 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP