अरण्यकाण्ड - दोहा १ से १०

गोस्वामी तुलसीदासजीने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह ।

ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥१॥

चौपाला

प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा । चला भाजि बायस भय पावा ॥

धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं । राम बिमुख राखा तेहि नाहीं ॥

भा निरास उपजी मन त्रासा । जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥

ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका । फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥

काहूँ बैठन कहा न ओही । राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥

मातु मृत्यु पितु समन समाना । सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥

मित्र करइ सत रिपु कै करनी । ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥

सब जगु ताहि अनलहु ते ताता । जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥

नारद देखा बिकल जयंता । लागि दया कोमल चित संता ॥

पठवा तुरत राम पहिं ताही । कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥

आतुर सभय गहेसि पद जाई । त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥

अतुलित बल अतुलित प्रभुताई । मैं मतिमंद जानि नहिं पाई ॥

निज कृत कर्म जनित फल पायउँ । अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ ॥

सुनि कृपाल अति आरत बानी । एकनयन करि तजा भवानी ॥

सोरठा

कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित ।

प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥२ ॥

चौपाला

रघुपति चित्रकूट बसि नाना । चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥

बहुरि राम अस मन अनुमाना । होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥

सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई । सीता सहित चले द्वौ भाई ॥

अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ । सुनत महामुनि हरषित भयऊ ॥

पुलकित गात अत्रि उठि धाए । देखि रामु आतुर चलि आए ॥

करत दंडवत मुनि उर लाए । प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥

देखि राम छबि नयन जुड़ाने । सादर निज आश्रम तब आने ॥

करि पूजा कहि बचन सुहाए । दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥

सोरठा

प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि ।

मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥३॥

छंद

नमामि भक्त वत्सलं । कृपालु शील कोमलं ॥

भजामि ते पदांबुजं । अकामिनां स्वधामदं ॥१॥

निकाम श्याम सुंदरं । भवाम्बुनाथ मंदरं ॥

प्रफुल्ल कंज लोचनं । मदादि दोष मोचनं ॥२॥

प्रलंब बाहु विक्रमं । प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥

निषंग चाप सायकं । धरं त्रिलोक नायकं ॥३॥

दिनेश वंश मंडनं । महेश चाप खंडनं ॥

मुनींद्र संत रंजनं । सुरारि वृंद भंजनं ॥४॥

मनोज वैरि वंदितं । अजादि देव सेवितं ॥

विशुद्ध बोध विग्रहं । समस्त दूषणापहं ॥५॥

नमामि इंदिरा पतिं । सुखाकरं सतां गतिं ॥

भजे सशक्ति सानुजं । शची पतिं प्रियानुजं ॥६॥

त्वदंघ्रि मूल ये नराः । भजंति हीन मत्सरा ॥

पतंति नो भवार्णवे । वितर्क वीचि संकुले ॥७॥

विविक्त वासिनः सदा । भजंति मुक्तये मुदा ॥

निरस्य इंद्रियादिकं । प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥८॥

तमेकमभ्दुतं प्रभुं । निरीहमीश्वरं विभुं ॥

जगद्गुरुं च शाश्वतं । तुरीयमेव केवलं ॥९॥

भजामि भाव वल्लभं । कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥

स्वभक्त कल्प पादपं । समं सुसेव्यमन्वहं ॥१०॥

अनूप रूप भूपतिं । नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥

प्रसीद मे नमामि ते । पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥११॥

पठंति ये स्तवं इदं । नरादरेण ते पदं ॥

व्रजंति नात्र संशयं । त्वदीय भक्ति संयुता ॥१२॥

दोहा

बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि ।

चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥४॥

चौपाला

अनुसुइया के पद गहि सीता । मिली बहोरि सुसील बिनीता ॥

रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई । आसिष देइ निकट बैठाई ॥

दिब्य बसन भूषन पहिराए । जे नित नूतन अमल सुहाए ॥

कह रिषिबधू सरस मृदु बानी । नारिधर्म कछु ब्याज बखानी ॥

मातु पिता भ्राता हितकारी । मितप्रद सब सुनु राजकुमारी ॥

अमित दानि भर्ता बयदेही । अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥

धीरज धर्म मित्र अरु नारी । आपद काल परिखिअहिं चारी ॥

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना । अधं बधिर क्रोधी अति दीना ॥

ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना । नारि पाव जमपुर दुख नाना ॥

एकइ धर्म एक ब्रत नेमा । कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥

जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं । बेद पुरान संत सब कहहिं ॥

उत्तम के अस बस मन माहीं । सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥

मध्यम परपति देखइ कैसें । भ्राता पिता पुत्र निज जैंसें ॥

धर्म बिचारि समुझि कुल रहई । सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ॥

बिनु अवसर भय तें रह जोई । जानेहु अधम नारि जग सोई ॥

पति बंचक परपति रति करई । रौरव नरक कल्प सत परई ॥

छन सुख लागि जनम सत कोटि । दुख न समुझ तेहि सम को खोटी ॥

बिनु श्रम नारि परम गति लहई । पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई ॥

पति प्रतिकुल जनम जहँ जाई । बिधवा होई पाई तरुनाई ॥

सोरठा

सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ ।

जसु गावत श्रुति चारि अजहु तुलसिका हरिहि प्रिय ॥५क॥

सनु सीता तव नाम सुमिर नारि पतिब्रत करहि ।

तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित ॥५ख ॥

चौपाला

सुनि जानकीं परम सुखु पावा । सादर तासु चरन सिरु नावा ॥

तब मुनि सन कह कृपानिधाना । आयसु होइ जाउँ बन आना ॥

संतत मो पर कृपा करेहू । सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ॥

धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी । सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी ॥

जासु कृपा अज सिव सनकादी । चहत सकल परमारथ बादी ॥

ते तुम्ह राम अकाम पिआरे । दीन बंधु मृदु बचन उचारे ॥

अब जानी मैं श्री चतुराई । भजी तुम्हहि सब देव बिहाई ॥

जेहि समान अतिसय नहिं कोई । ता कर सील कस न अस होई ॥

केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी । कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी ॥

अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा । लोचन जल बह पुलक सरीरा ॥

छंद

तन पुलक निर्भर प्रेम पुरन नयन मुख पंकज दिए ।

मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए ॥

जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई ।

रधुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई ॥

दोहा

कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल ।

सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल ॥६ -क॥

सोरठा

कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप ।

परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥६ -ख॥

चौपाला

मुनि पद कमल नाइ करि सीसा । चले बनहि सुर नर मुनि ईसा ॥

आगे राम अनुज पुनि पाछें । मुनि बर बेष बने अति काछें ॥

उमय बीच श्री सोहइ कैसी । ब्रह्म जीव बिच माया जैसी ॥

सरिता बन गिरि अवघट घाटा । पति पहिचानी देहिं बर बाटा ॥

जहँ जहँ जाहि देव रघुराया । करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया ॥

मिला असुर बिराध मग जाता । आवतहीं रघुवीर निपाता ॥

तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा । देखि दुखी निज धाम पठावा ॥

पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा । सुंदर अनुज जानकी संगा ॥

दोहा

देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग ।

सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग ॥७॥

चौपाला

कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला । संकर मानस राजमराला ॥

जात रहेउँ बिरंचि के धामा । सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा ॥

चितवत पंथ रहेउँ दिन राती । अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती ॥

नाथ सकल साधन मैं हीना । कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥

सो कछु देव न मोहि निहोरा । निज पन राखेउ जन मन चोरा ॥

तब लगि रहहु दीन हित लागी । जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी ॥

जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा । प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा ॥

एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा । बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा ॥

दोहा

सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम ।

मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम ॥८॥

चौपाला

अस कहि जोग अगिनि तनु जारा । राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा ॥

ताते मुनि हरि लीन न भयऊ । प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ ॥

रिषि निकाय मुनिबर गति देखि । सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी ॥

अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा । जयति प्रनत हित करुना कंदा ॥

पुनि रघुनाथ चले बन आगे । मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे ॥

अस्थि समूह देखि रघुराया । पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ॥

जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी । सबदरसी तुम्ह अंतरजामी ॥

निसिचर निकर सकल मुनि खाए । सुनि रघुबीर नयन जल छाए ॥

दोहा

निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह ।

सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥९॥

चौपाला

मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना । नाम सुतीछन रति भगवाना ॥

मन क्रम बचन राम पद सेवक । सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥

प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा । करत मनोरथ आतुर धावा ॥

हे बिधि दीनबंधु रघुराया । मो से सठ पर करिहहिं दाया ॥

सहित अनुज मोहि राम गोसाई । मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥

मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं । भगति बिरति न ग्यान मन माहीं ॥

नहिं सतसंग जोग जप जागा । नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा ॥

एक बानि करुनानिधान की । सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥

होइहैं सुफल आजु मम लोचन । देखि बदन पंकज भव मोचन ॥

निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी । कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥

दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा । को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ॥

कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई । कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई ॥

अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई । प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ॥

अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा । प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ॥

मुनि मग माझ अचल होइ बैसा । पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥

तब रघुनाथ निकट चलि आए । देखि दसा निज जन मन भाए ॥

मुनिहि राम बहु भाँति जगावा । जाग न ध्यानजनित सुख पावा ॥

भूप रूप तब राम दुरावा । हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा ॥

मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें । बिकल हीन मनि फनि बर जैसें ॥

आगें देखि राम तन स्यामा । सीता अनुज सहित सुख धामा ॥

परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी । प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी ॥

भुज बिसाल गहि लिए उठाई । परम प्रीति राखे उर लाई ॥

मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला । कनक तरुहि जनु भेंट तमाला ॥

राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा । मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा ॥

दोहा

तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार ।

निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥१० ॥

चौपाला

कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी । अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी ॥

महिमा अमित मोरि मति थोरी । रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी ॥

श्याम तामरस दाम शरीरं । जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥

पाणि चाप शर कटि तूणीरं । नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥

मोह विपिन घन दहन कृशानुः । संत सरोरुह कानन भानुः ॥

निशिचर करि वरूथ मृगराजः । त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥

अरुण नयन राजीव सुवेशं । सीता नयन चकोर निशेशं ॥

हर ह्रदि मानस बाल मरालं । नौमि राम उर बाहु विशालं ॥

संशय सर्प ग्रसन उरगादः । शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥

भव भंजन रंजन सुर यूथः । त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥

निर्गुण सगुण विषम सम रूपं । ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥

अमलमखिलमनवद्यमपारं । नौमि राम भंजन महि भारं ॥

भक्त कल्पपादप आरामः । तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥

अति नागर भव सागर सेतुः । त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥

अतुलित भुज प्रताप बल धामः । कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥

धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः । संतत शं तनोतु मम रामः ॥

जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी । सब के हृदयँ निरंतर बासी ॥

तदपि अनुज श्री सहित खरारी । बसतु मनसि मम काननचारी ॥

जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी । सगुन अगुन उर अंतरजामी ॥

जो कोसल पति राजिव नयना । करउ सो राम हृदय मम अयना ।

अस अभिमान जाइ जनि भोरे । मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥

सुनि मुनि बचन राम मन भाए । बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥

परम प्रसन्न जानु मुनि मोही । जो बर मागहु देउ सो तोही ॥

मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा । समुझि न परइ झूठ का साचा ॥

तुम्हहि नीक लागै रघुराई । सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥

अबिरल भगति बिरति बिग्याना । होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥

प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा । अब सो देहु मोहि जो भावा ॥

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Last Updated : February 27, 2011

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