अयोध्या काण्ड - दोहा ७१ से ८०

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ।
नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ ॥७१॥

चौपाला

दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं । लागि अगम अपनी कदराईं ॥
नरबर धीर धरम धुर धारी । निगम नीति कहुँ ते अधिकारी ॥
मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला । मंदरु मेरु कि लेहिं मराला ॥
गुर पितु मातु न जानउँ काहू । कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू ॥
जहँ लगि जगत सनेह सगाई । प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई ॥
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी । दीनबंधु उर अंतरजामी ॥
धरम नीति उपदेसिअ ताही । कीरति भूति सुगति प्रिय जाही ॥
मन क्रम बचन चरन रत होई । कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई ॥

दोहा

करुनासिंधु सुबंध के सुनि मृदु बचन बिनीत।
समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत ॥७२॥

चौपाला

मागहु बिदा मातु सन जाई । आवहु बेगि चलहु बन भाई ॥
मुदित भए सुनि रघुबर बानी । भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी ॥
हरषित ह्दयँ मातु पहिं आए । मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए।
जाइ जननि पग नायउ माथा । मनु रघुनंदन जानकि साथा ॥
पूँछे मातु मलिन मन देखी । लखन कही सब कथा बिसेषी ॥
गई सहमि सुनि बचन कठोरा । मृगी देखि दव जनु चहु ओरा ॥
लखन लखेउ भा अनरथ आजू । एहिं सनेह बस करब अकाजू ॥
मागत बिदा सभय सकुचाहीं । जाइ संग बिधि कहिहि कि नाही ॥

दोहा

समुझि सुमित्राँ राम सिय रूप सुसीलु सुभाउ।
नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ ॥७३॥

चौपाला

धीरजु धरेउ कुअवसर जानी । सहज सुह्द बोली मृदु बानी ॥
तात तुम्हारि मातु बैदेही । पिता रामु सब भाँति सनेही ॥
अवध तहाँ जहँ राम निवासू । तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू ॥
जौ पै सीय रामु बन जाहीं । अवध तुम्हार काजु कछु नाहिं ॥
गुर पितु मातु बंधु सुर साई । सेइअहिं सकल प्रान की नाईं ॥
रामु प्रानप्रिय जीवन जी के । स्वारथ रहित सखा सबही कै ॥
पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें । सब मानिअहिं राम के नातें ॥
अस जियँ जानि संग बन जाहू । लेहु तात जग जीवन लाहू ॥

दोहा

भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ।
जौम तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ ॥७४॥

चौपाला

पुत्रवती जुबती जग सोई । रघुपति भगतु जासु सुतु होई ॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी । राम बिमुख सुत तें हित जानी ॥
तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं । दूसर हेतु तात कछु नाहीं ॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू । राम सीय पद सहज सनेहू ॥
राग रोषु इरिषा मदु मोहू । जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू ॥
सकल प्रकार बिकार बिहाई । मन क्रम बचन करेहु सेवकाई ॥
तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू । सँग पितु मातु रामु सिय जासू ॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू । सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू ॥

छंद

उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं।
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित नित नई ॥

सोरठा मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत संकित हृदयँ।
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस ॥७५॥
गए लखनु जहँ जानकिनाथू । भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू ॥
बंदि राम सिय चरन सुहाए । चले संग नृपमंदिर आए ॥
कहहिं परसपर पुर नर नारी । भलि बनाइ बिधि बात बिगारी ॥
तन कृस दुखु बदन मलीने । बिकल मनहुँ माखी मधु छीने ॥
कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं । जनु बिन पंख बिहग अकुलाहीं ॥
भइ बड़ि भीर भूप दरबारा । बरनि न जाइ बिषादु अपारा ॥
सचिवँ उठाइ राउ बैठारे । कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे ॥
सिय समेत दोउ तनय निहारी । ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी ॥

दोहा

सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ।
बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ ॥७६॥

चौपाला

सकइ न बोलि बिकल नरनाहू । सोक जनित उर दारुन दाहू ॥
नाइ सीसु पद अति अनुरागा । उठि रघुबीर बिदा तब मागा ॥
पितु असीस आयसु मोहि दीजै । हरष समय बिसमउ कत कीजै ॥
तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू । जसु जग जाइ होइ अपबादू ॥
सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ । बैठारे रघुपति गहि बाहाँ ॥
सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं । रामु चराचर नायक अहहीं ॥
सुभ अरु असुभ करम अनुहारी । ईस देइ फलु ह्दयँ बिचारी ॥
करइ जो करम पाव फल सोई । निगम नीति असि कह सबु कोई ॥

दोहा

औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु ॥७७॥

चौपाला

रायँ राम राखन हित लागी । बहुत उपाय किए छलु त्यागी ॥
लखी राम रुख रहत न जाने । धरम धुरंधर धीर सयाने ॥
तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही । अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही ॥
कहि बन के दुख दुसह सुनाए । सासु ससुर पितु सुख समुझाए ॥
सिय मनु राम चरन अनुरागा । घरु न सुगमु बनु बिषमु न लागा ॥
औरउ सबहिं सीय समुझाई । कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई ॥
सचिव नारि गुर नारि सयानी । सहित सनेह कहहिं मृदु बानी ॥
तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू । करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू ॥

दोहा

सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि।
सरद चंद चंदनि लगत जनु चकई अकुलानि ॥७८॥

चौपाला

सीय सकुच बस उतरु न देई । सो सुनि तमकि उठी कैकेई ॥
मुनि पट भूषन भाजन आनी । आगें धरि बोली मृदु बानी ॥
नृपहि प्रान प्रिय तुम्ह रघुबीरा । सील सनेह न छाड़िहि भीरा ॥
सुकृत सुजसु परलोकु नसाऊ । तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ ॥
अस बिचारि सोइ करहु जो भावा । राम जननि सिख सुनि सुखु पावा ॥
भूपहि बचन बानसम लागे । करहिं न प्रान पयान अभागे ॥
लोग बिकल मुरुछित नरनाहू । काह करिअ कछु सूझ न काहू ॥
रामु तुरत मुनि बेषु बनाई । चले जनक जननिहि सिरु नाई ॥

दोहा

सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत।
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत ॥७९॥

चौपाला

निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े । देखे लोग बिरह दव दाढ़े ॥
कहि प्रिय बचन सकल समुझाए । बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए ॥
गुर सन कहि बरषासन दीन्हे । आदर दान बिनय बस कीन्हे ॥
जाचक दान मान संतोषे । मीत पुनीत प्रेम परितोषे ॥
दासीं दास बोलाइ बहोरी । गुरहि सौंपि बोले कर जोरी ॥
सब कै सार सँभार गोसाईं । करबि जनक जननी की नाई ॥
बारहिं बार जोरि जुग पानी । कहत रामु सब सन मृदु बानी ॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी । जेहि तें रहै भुआल सुखारी ॥

दोहा

मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन।
सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन ॥८०॥

चौपाला

एहि बिधि राम सबहि समुझावा । गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा।
गनपती गौरि गिरीसु मनाई । चले असीस पाइ रघुराई ॥
राम चलत अति भयउ बिषादू । सुनि न जाइ पुर आरत नादू ॥
कुसगुन लंक अवध अति सोकू । हहरष बिषाद बिबस सुरलोकू ॥
गइ मुरुछा तब भूपति जागे । बोलि सुमंत्रु कहन अस लागे ॥
रामु चले बन प्रान न जाहीं । केहि सुख लागि रहत तन माहीं।
एहि तें कवन ब्यथा बलवाना । जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना ॥
पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू । लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू ॥

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Last Updated : February 25, 2011

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