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बालकाण्ड - दोहा १११ से १२०

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

मगन ध्यानरस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह ॥१११॥

चौपाला
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें ॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई । जागें जथा सपन भ्रम जाई ॥
बंदउँ बालरूप सोई रामू । सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू ॥
मंगल भवन अमंगल हारी । द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी ॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी । हरषि सुधा सम गिरा उचारी ॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी । तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी ॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा । सकल लोक जग पावनि गंगा ॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी । कीन्हहु प्रस्न जगत हित लागी ॥

दोहा

रामकृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं ॥११२॥

चौपाला
तदपि असंका कीन्हिहु सोई । कहत सुनत सब कर हित होई ॥
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना । श्रवन रंध्र अहिभवन समाना ॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा । लोचन मोरपंख कर लेखा ॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला । जे न नमत हरि गुर पद मूला ॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी । जीवत सव समान तेइ प्रानी ॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना । जीह सो दादुर जीह समाना ॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती । सुनि हरिचरित न जो हरषाती ॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला । सुर हित दनुज बिमोहनसीला ॥

दोहा

रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि ॥११३॥

चौपाला
रामकथा सुंदर कर तारी । संसय बिहग उडावनिहारी ॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी । सादर सुनु गिरिराजकुमारी ॥
राम नाम गुन चरित सुहाए । जनम करम अगनित श्रुति गाए ॥
जथा अनंत राम भगवाना । तथा कथा कीरति गुन नाना ॥
तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी । कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी ॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई । सुखद संतसंमत मोहि भाई ॥
एक बात नहि मोहि सोहानी । जदपि मोह बस कहेहु भवानी ॥
तुम जो कहा राम कोउ आना । जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना ॥

दोहा

कहहि सुनहि अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषंडी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच ॥११४॥

चौपाला
अग्य अकोबिद अंध अभागी । काई बिषय मुकर मन लागी ॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी । सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी ॥
कहहिं ते बेद असंमत बानी । जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी ॥
मुकर मलिन अरु नयन बिहीना । राम रूप देखहिं किमि दीना ॥
जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका । जल्पहिं कल्पित बचन अनेका ॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं । तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं ॥
बातुल भूत बिबस मतवारे । ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना । तिन् कर कहा करिअ नहिं काना ॥

सोरठा

अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम ॥११५॥
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा । गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ॥
अगुन अरुप अलख अज जोई । भगत प्रेम बस सगुन सो होई ॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें । जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें ॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा । तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा ॥
राम सच्चिदानंद दिनेसा । नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा ॥
सहज प्रकासरुप भगवाना । नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना ॥
हरष बिषाद ग्यान अग्याना । जीव धर्म अहमिति अभिमाना ॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना । परमानन्द परेस पुराना ॥

दोहा

पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ ॥
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ ॥११६॥

चौपाला
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी । प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी ॥
जथा गगन घन पटल निहारी । झाँपेउ मानु कहहिं कुबिचारी ॥
चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ । प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा । नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा ॥
बिषय करन सुर जीव समेता । सकल एक तें एक सचेता ॥
सब कर परम प्रकासक जोई । राम अनादि अवधपति सोई ॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू । मायाधीस ग्यान गुन धामू ॥
जासु सत्यता तें जड माया । भास सत्य इव मोह सहाया ॥

दोहा

रजत सीप महुँ मास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि ॥११७॥

चौपाला
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई । जदपि असत्य देत दुख अहई ॥
जौं सपनें सिर काटै कोई । बिनु जागें न दूरि दुख होई ॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई । गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई ॥
आदि अंत कोउ जासु न पावा । मति अनुमानि निगम अस गावा ॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना । कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा । ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी । महिमा जासु जाइ नहिं बरनी ॥

दोहा

जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान ॥
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान ॥११८॥

चौपाला
कासीं मरत जंतु अवलोकी । जासु नाम बल करउँ बिसोकी ॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी । रघुबर सब उर अंतरजामी ॥
बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं । जनम अनेक रचित अघ दहहीं ॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं । भव बारिधि गोपद इव तरहीं ॥
राम सो परमातमा भवानी । तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी ॥
अस संसय आनत उर माहीं । ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं ॥
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना । मिटि गै सब कुतरक कै रचना ॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती । दारुन असंभावना बीती ॥

दोहा

पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि।
बोली गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि ॥११९॥

चौपाला
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी । मिटा मोह सरदातप भारी ॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ । राम स्वरुप जानि मोहि परेऊ ॥
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा । सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा ॥
अब मोहि आपनि किंकरि जानी । जदपि सहज जड नारि अयानी ॥
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू । जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू ॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी । सर्ब रहित सब उर पुर बासी ॥
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू । मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू ॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता । रामकथा पर प्रीति पुनीता ॥

दोहा

हिँयँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान ॥१२० (क )॥
नवान्हपारायन ,पहला विश्राम

मासपारायण , चौथा विश्राम

सोरठा सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड ॥१२० (ख )॥
सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ ॥१२० (ग ) ॥
हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु ॥१२० (घ ॥

सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए । बिपुल बिसद निगमागम गाए ॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई । इदमित्थं कहि जाइ न सोई ॥
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी । मत हमार अस सुनहि सयानी ॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना । जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना ॥
तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही । समुझि परइ जस कारन मोही ॥
जब जब होइ धरम कै हानी । बाढहिं असुर अधम अभिमानी ॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी । सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी ॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा । हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा ॥

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Last Updated : February 25, 2011

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