प्रारंभिकावस्था - जप

भगवान शिव ने लंकापती रावण को जो तंत्रज्ञान दिया , उसमेंसे ये साधनाएं शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाली है ।


जप तीन प्रकार के बतलाए हैं - १ . मानस जप , २ . उपांशु जप और ३ . वाचिक जप ।

१ . मानस जपः -- जिस जप में मंत्र की अक्षर पंक्ति के एक वर्ण से दूसरे वर्ण , एक पद से दूसरे पद तथा शब्द और अर्थ का मन द्वारा बार - बार मात्र चिंतन होता हैं , उसे ' मानस जप ' कहते हैं । यह साधना की उच्च कोटि का जप कहलाता है ।

२ . उपांशु जपः -- जिस जप में केवल जिह्वा हिलती है या इतने हल्के स्वर से जप होता है , जिसे कोई सुन न सके , उसे ' उपांशु जप ' कहा जाता है । यह मध्यम प्रकार का जप माना जाता है ।

 

३ . वाचिक जपः -- जप करने वाला ऊंचे - नीचे स्वर से , स्पष्ट तथा अस्पष्ट पद व अक्षरों के साथ बोलकर मंत्र का जप करे , तो उसे ' वाचिक ' जप कहते हैं । प्रायः दो प्रकार के जप और भी बताए गए हैं - सगर्भ जप और अगर्भ जप । सगर्भ जप प्राणायाम के साथ किया जाता है और जप के प्रारंभ में व अंत में प्राणायाम किया जाए , उसे अगर्भ जप कहते हैं । इसमें प्राणायाम और जप एक - दूसरे के पूरक होते हैं ।

मंत्र - विशारदों का कथन है कि वाचिक जप एक गुना फल देता है , उपांशु जप सौ गुना फल देता है और मानस जप हजार गुना फल देता है । सगर्भ जप मानस जप से भी श्रेष्ठ है । मुख्यतया साधकों को उपांशु या मानस जप का ही अधिक प्रयास करना चाहिए ।

मंत्राधिराज कल्प में निम्न रुप से तेरह प्रकार के जप बतलाएं हैं -

रेचक - पूरक - कुंभा गुण त्रय स्थिरकृति स्मृति हक्का ।

नादो ध्यानं ध्येयैकत्वं तत्त्वं च जप भेदाः ॥

१ . रेचक जप , २ . पूरक जप , ३ . कुंभक जप , ४ . सात्त्विक जप , ५ . राजसिक जप , ६ . तामसिक जप , ७ . स्थिरकृति जप , ८ . स्मृति जप , ९ . हक्का जप , १० . नाद जप , ११ . ध्यान जप , १२ . ध्येयैक्य जप और १३ . तत्त्व जप ।

 

१ . रेचक जपः -- नाक से श्वास बाहर निकालते हुए जो जप किया जाता है , वो ' रेचक जप ' कहलाता है ।

२ . पूरक जपः -- नाक से श्वास को भीतर लेते हुए जो जप किया जाए , वो ' पूरक जप ' कहलाता है ।

३ . कुंभक जपः -- श्वास को भीतर स्थिर करके जो जप किया जाए , वो ' कुंभक जप ' कहलाता है ।

४ . सात्त्विक जपः -- शांति कर्म के निमित्त जो जप किया जाता है , वो ' सात्त्विक जप ' कहलाता है ।

५ . राजसिक जपः -- वशीकरण आदि के लिए जो जप किया जाए , उसे ' राजसिक जप ' कहते हैं ।

६ . तामसिक जपः -- उच्चाटन व मारण आदि के निमित्त जो जप किया जाए , वो ' तामसिक जप ' कहलाता है ।

७ . स्थिरकृति जपः -- चलते हुए सामने विघ्न देखकर स्थिरतापूर्वक जो जप किया जाता है , उसे ' स्थिरकृति जप ' कहते हैं ।

८ . स्मृति जपः -- दृष्टि को नाक के अग्रभाग पर स्थिर कर मन में जो जप किया जाता है , उसे ' स्मृति जप ' कहते हैं ।

९ . हक्का जपः -- श्वास लेते समय या बाहर निकालते समय हक्कार का विलक्षणतापूर्वक उच्चारण हो , उसे ' हक्का जप ' कहते हैं ।

१० . नाद जपः -- जप करते समय भंवरे की आवाज की तरह अंतर में आवाज उठे , उसे ' नाद जप ' कहते हैं ।

११ . ध्यान जपः -- मंत्र - पदों का वर्णादिपूर्वक ध्यान किया जाए , उसे ' ध्यान जप ' कहते हैं ।

१२ . ध्येयैक्य जपः -- ध्याता व ध्येय की एकता वाले जप को ' ध्येयैक्य जप ' कहते हैं ।

१३ . तत्त्व जपः -- पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु और आकाश - इन पांच तत्त्वों के अनुसार जो जप किया जाए , वह ' तत्त्व जप ' कहलाता है ।

 

मंत्र - जप कहां करें ?

मंत्र - साधना अथवा प्रयोग के समय गृह में किया गया जप एक गुना फल देता है । पवित्र वन या उद्यान में किया गया जप हजार गुना फल देता है । पर्वत पर किया गया जप दस हजार गुना फल देता है । नदी पर किया गया जप एक लाख गुना फल प्रदान करता है एवं देवालय व उपाश्रय में किया गया जप एक करोड़ गुना फल देता है तथा भगवान ( शिव आदि ) के समक्ष किया गया जप अनंत गुना फल देता है ।

बैठने का आसन

पत्थर या शिला पर बिना कोई आसन बिछाए कभी जपादि नहीं करना चाहिए । सबसे अच्छा यह है कि काठ के पट्टे पर ऊनी वस्त्र , कंबल या मृगचर्म बिछाकर , उस पर बैठकर जप करना चाहिए । यदि काठ का पट्टा उपलब्ध न हो तो ऊनी वस्त्र या मृगचर्म बिछाकर एवं उस पर आसीन होकर प्रयोगात्मक मंत्र का जप करना चाहिए ।

मंत्र - विशारदों का कथन है कि बांस का आसन व्याधि व दरिद्रता देता है , पत्थर का आसन रोगकारक है , धरती का आसन दुःखों का अनुभव कराता है , काष्ठ का आसन दुर्भाग्य लाता है , तिनकों का आसन यश हा ह्लास करता है एवं पत्रों का आसन चित्त - विक्षेप कराता हैं ।

कपास , कंबल , व्याघ्र व मृगचर्म का आसन ज्ञान , सिद्धि व सौभाग्य प्राप्त कराता है । काले मृगचर्म का आसन ज्ञान व सिद्धि प्राप्त कराता है । व्याघ्रचर्म का आसन मोक्ष व लक्ष्मी प्राप्त कराता है । रेशम का आसन पुष्टि कराता है , कंबल का आसन दुःखनाश करता है तथा कई रंगों के कंबल का आसन सर्वार्थसिद्धि देने वाला होता हैं ।

 

 

मंत्र - जप कब करें ?

सूर्य एवं चंद्र ग्रहण - उत्तम काल कहलाता है ।

कर्क एवं मकर संक्रांति - मध्यम काल है ।

रविवार व अमावस्या - कनिष्ठ काल है ।

सात्विक मंत्रों के लिए किसी भी प्रकार का जप तीनों समय उत्तम माना गया है । यानी सूर्योदय के एक घंटे पहले से एक घंटे बाद तक , मध्याह्न के एक घंटे पहले से एक घंटे बाद तक व सूर्योदय से एक घंटे पहले से एक घंटे बाद तक ।

माला द्वारा जप

अनेक प्रयोगों में प्रयोग से पहले मंत्र - जप का विधान होता है , ताकि मंत्र की प्रभावशीलता से प्रयोग सफल हो । मंत्र - जप के समय हाथ कहां रखें , इसके बारे में महर्षियों का कथन है -

प्रातः काल नाभि पर हाथ रखकर जप करना चाहिए ।

मध्याह्न में हदय के आगे हाथ रखकर जप करना चाहिए ।

संध्याकाल में मुख के आगे हाथ रखकर जप करना चाहिए ।

यदि यह नहीं बन सके तो सामान्य रुप से हाथ को हदय के पास स्पर्श करते हुए माला से जप करना चाहिए ।

 

मंत्र - जप निषेध

नग्नावस्था में कभी भी जप नहीं करना चाहिए ।

सिले हुए वस्त्र पहनकर जप नहीं करना चाहिए ।

शरीर व हाथ अपवित्र हों तो जप नहीं करना चाहिए ।

सिर के बाल खुले रखकर जप नहीं करना चाहिए ।

आसन बिछाए बिना जप नहीं करना चाहिए ।

बातें करते हुए जप नहीं करना चाहिए ।

आधिक लोगों की उपस्थिति में प्रयोग के निमित्त जप नहीं करना चाहिए ।

मस्तक ढके बिना जप नहीं करना चाहिए । -

अस्थिर चित्त से जप नहीं करना चाहिए ।

रास्ते चलते व रास्ते में बैठकर जप नहीं करना चाहिए ।

भोजन करते व रास्ते में बैठकर जप नहीं करना चाहिए ।

निद्रा लेते समय भी जप नहीं करना चाहिए ।

उल्टे - सीधे बैठकर या पांव पसारकर भी कभी जप नहीं करना चाहिए ।

जप के समय छींक नहीं लेनी चाहिए , खंखारना नहीं चाहिए , थूकना नहीं चाहिए , नीचे के अंगों का स्पर्श नहीं करना चाहिए व भयभीतावस्था में भी जप नहीं करना चाहिए ।

अंधकारयुक्त स्थान में जप नहीं करना चाहिए ।

अशुद्ध व अशुचियुक्त स्थान में जप नहीं करना चाहिए ।

 

जप की गणना

जप की गणना के तीन प्रकार बतलाए गए हैं - वर्णमाला जप , अक्षमाला जप एवं कर माला जप ।

वर्णमाला जपः -- वर्णमाला के अक्षरों के आधार पर जप - संख्या की गणना की जाए , उसे ' वर्णमाला जप ' कहते हैं ।

अक्षमाला जपः -- मनकों की माला पर जो जप किया जाता है , उसे ' अक्षमाला जप ' कहते हैं । अक्षमाला में एक सौ आठ मनकों की माला को प्रधानता प्राप्त है और उसके पीछे भी व्यवस्थित वैज्ञानिक रहस्य है ।

जीवन जगत् और सृष्टि का प्राणाधार सूर्य है , जो कि एक मास में एक व्रुत्त पूरा कर लेता है । खगोलीय वृत्त ३६० अंशों का निर्मित है और यदि इसकी कलाएं बनाई जाएं तो ३६० + ६० = २१६०० सिद्ध होती हैं ।

चूंकि सूर्य छह मास तक उत्तरायन तथा शेष छह मास दक्षिणायन में रहता है , अतः एक वर्ष में दो अयन होने से यदि इन कलाओं के दो भाग करें तो एक भाग १०८०० का सिद्ध होता है ।

सामंजस्य हेतु अंतिम बिंदुओं से संख्या को मुक्त कर दें तो शुद्ध संख्या १०८ बच रहती हैं , इसलिए भारतीय धर्मग्रंथों में उत्तरायन सूर्य के समय सीधे तरीके से तथा दक्षिणायन सूर्य के समय दाएं - बाएं तरीके से एक सौ आठ मनको की माला फेरने का विधान है , जि से कार्यसिद्धि में सफलता मिलती है ।

भारतीय कालगति में एक दिन रात का परिणाम ६० घड़ी माना गया है , जिसके ६० * ६० = ३६०० पल तथा ३६०० * ६० = २१६०० विपल सिद्ध होते हैं । इस प्रकार इसके दो भाग करने से १०८०० विपल दिन के और इतने ही रात्रि के सिद्ध होते हैं और शुभकार्य में अहोरात्र का पूर्व भाग ( दिन को ) ही उत्तम माना गया है , जिसके विपल १०८०० हैं , अतः उस शुभ कर्म में १०८ मनकों की माला को प्रधानता देना तर्क संगत और वैज्ञानिक दृष्टि से उचित है ।

किसी भी मंत्र भी हजार अथवा लाख संख्या की गणना माला द्वारा ही संभव है । इसके लिए १०८ मनकों की माला सर्वश्रेष्ठ मानी गई है ।

करमाला जपः - हाथ की उंगलियों के पोरवों ( पर्वो ) पर जो जप किया जाता है , ' करमाला जप ' कहते हैं । नित्य सामान्यतः बिना माला के भी जप किया जा सकता है , किन्तु विशिष्ट कार्य या अनुष्ठान - प्रयोग से माला प्रयोग में लाई जाती है ।

 

माला - संबंधी सावधानी

माला फेरते समय निम्न सावधानियां बरतनी आवश्यक हैं -

माला सदा दाहिने हाथ में रखनी चाहिए ।

माला भूमि पर नहीं गिरनी चाहिए , उस पर धूल नहीं जमनी चाहिए ।

माला अंगूठे , मध्यमा व अनामिका से फेरना ठीक है । दूसरी उंगली तर्जनी से भूलकर भी माला नहीं फेरनी चाहिए ।

मनकों पर नाखून नहीं लगने चाहिए ।

माला में जो सुमेरु होता है , उसे लांघना नहीं चाहिए । यदि दुबारा माला फेरनी हो तो वापस माला बदलकर फेरें । मनके फिराते समय सुमेरु भूमि का कभी स्पर्श न करे । इस बात के प्रति सदा सावधान रहना चाहिए ।

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Last Updated : December 23, 2010

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