पार्वती मंगल - भाग १३

पार्वती - मङ्गलमें प्रातःस्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजीने देवाधिदेव भगवान् शंकरके द्वारा जगदम्बा पार्वतीके कल्याणमय पाणिग्रहणका काव्यमय एवं रसमय चित्रण किया है ।


बिबुध बोलि हरि कहेउ निकट पुर आयउ ।

आपन आपन साज सबहिं बिलगायउ ॥९७॥

प्रमथनाथ के साथ प्रमथ गन राजहिं ।

बिबिध भाँति मुख बाहन बेष बिराजहिं ॥९८॥

भगवान् ने देवताओंको बुलाकार कहा कि ’अब नगर निकट आ गया है, अत: सबलोग अपने-अपने समा जको अलग-अलग कर लो’ ॥९७॥

इस समय भूतनाथके साथ भूतगण शोभायमान हैं, जो अनेक प्रकारके मुख , वेष और वाहनोंसे विराजमान हो रहे हैं ॥९८॥

कमठ खपर मढि खाल निसन बजावहिं ।

नर कपाल जल भरि-भरि पिअहिं पिआवहिं ॥९९॥

बर अनुहरत बरात बनी हरि हँसि कहा ।

सुनि हियँ हँसत महेस केलि कौतुक महा ॥१००॥

वे कछुओंके खपड़ेको खालसे मँढ़कर उन्हींको नगारोंके रुपमें बजाते हैं और मनुष्यकी खोपड़ीमें जल भर -भरकर पीते और पिलाते हैं ॥९९॥

तब भगवान् विष्णुने हँसकर कहा कि दुलहाके योग्य ही बरात बनी हैं, यह सुनकर शिवजी हृदयमें हँसते हैं । इस प्रकार खूब क्रीडा-कौतुक हो रहा है ॥१००॥

बड़ बिनोद मग मोद न कछु कहि आवत ।

जाइ नगर नियरानि बरात बजावत ॥१०१॥

पुर खरभर उर हरषेउ अचल अखंडलु ।

परब उदधि उमगेउ जनु लखि बिधु मंडलु ॥१०२॥

मार्गमें बड़ा विनोद हो रहा है, उस समयका आनन्द कुछ कहनेमें नहीं आता । बरात बाजे बजाती हुई नगरके निकट पहुँच गयी ॥१०१॥

नगरमें खलबली पड़ गयी और सम्पूर्ण हिमाचल पर्वत ( राज्यभर) हृदयमें आनन्दित हो गया , मानो पूर्णिमाके समय चन्द्रमण्डलको देखकर समुद्र उमड़ गया हो ॥१०२॥

प्रमुदित गे अगवान बिलोकि बराथिं ।

भभरे बनइ न रहत न बनइ परातहिं ॥१०३॥

चले भाजि गज बाजि फिरहिम नहिं फेरत ।

बालक भभरि भुलान फिरहिं घर हेरत ॥१०४॥

स्वागत करनेवाले प्रसन्न होकर आगे गये, परंतु बरातको देखकर घबरा गये । उस समय उनसे न तो रहते बनता था और भागते ही ॥१०३॥

हाथी, घोड़े भाग चले, वे लौटानेसे भी नहीं लौटते, बालक भी घबराहटके मारे भटक गये, वे घर खोजते फिरते हैं ॥१०४॥

दीन्ह जाइ जनवास सुपास किए सब ।

घर घर बालक बात कहन लागे तब ॥१०५॥

प्रेत बेताल बराती भूत भयानक ।

बरद चढ़ा बर बाउर सबइ सुबानक ॥१०६॥

अगवानोंने बरातियोंको जनवासा दिया और सब प्रकारके सुपास (ठहरनेके लिये स्थान) की व्यवस्था कर दी, तब सब बालक घर-घर पहुँचकर कहने लगे-॥१०५॥

’प्रेत ,बेताल और भयंकर भूत बराती हैं तथा बावला वर बैलपर सवार है । इस प्रकार सभी बानक दुलहेके योग्य ही बन है ( अर्थात् सारा साज-समाज ही विपरीत है )’ ॥१०६॥

कुसल करइ करतार कहहिं हम साँचिअ ।

देखब कोटि बिआह जिअत जौं बाँचिअ ॥१०७॥

समाचार सुनि सोचु भयउ मन मयनहिं ।

नारद के उपदेस कवन घर गे नहिं ॥१०८॥

’हम सत्य कहते हैं -ईश्र्वर कुशल करें, जो जीते बच गये तो करोड़ों ब्याह देखेंगे’ ॥१०७॥इस समाचारको सुनकर मैनाके मनमें (बड़ा) सोच हुआ । (वे कहने लगीं कि) नारदके उपदेशसे कौन घर नष्ट नहीं हुआ ॥१०८॥

घर घाल चालक कलक प्रिय कहियत परम परमारथी ।

तैसी बरेखी कीन्हि पुनि मुनि सात स्वारथ सारथी ॥

उर लाइ उमहि अनेक बिधि जलपति जननि दुख मानई।

हिवमान कहेउ इसान महिमा अगम निगम न जानई ॥१३॥

’नारदजीको कहते तो परम परोपकारी हैं, परंतु ये हैं घरको नष्ट करनेवाले, धूर्त्त और कलहप्रिय । सप्तर्षियोंने विवाह-सम्बन्धी बातचीत भी वैसी ही की, वे भी (पूरे) स्वार्थसाधक ही निकले ।’ इस प्रकार माता मैना पार्वतीजीको हृदयसे लगाकर अनेक प्रकारकी कल्पना करने लगी और अत्यन्त दु:ख मानने लगी । तब हिमवान् ने कहा कि शिवजीकी महिमा अगत्य है , उसे वेद भी नहीं जानता ॥१३॥

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Last Updated : January 22, 2014

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