पार्वती मंगल - भाग ९

पार्वती - मङ्गलमें प्रातःस्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजीने देवाधिदेव भगवान् शंकरके द्वारा जगदम्बा पार्वतीके कल्याणमय पाणिग्रहणका काव्यमय एवं रसमय चित्रण किया है ।


सुंदर गौर सरीर भूति भलि सोहइ ।

लोचन भल बिसाल बदनु मन मोहइ ॥६७॥

सैल कुमारि निहारि मनोहर पूरति ।

सजल नयन हियँ हरषु पुलक तन पूरति ॥६८॥

उनके कमनीय गौर शरीरपर विभूति अत्यन्त शोभित हो रही थी ; उनके नेत्र और ललाट विशाल थे तथा मुख मनको मोहित किये लेता था ।६७॥

उनकी मनोहर मूर्तिको निहारकर शैलकुमारी पार्वतीजीके नेत्रोंके जल भर आया । हृदयमें आनन्द छा गया और शरीर पुलकावलीसे व्याप्त हो गया ॥६८॥

पुनि पुनि करै प्रनामु न आवत कछु कहि ।

दैखौं सपन कि सौतुख ससि सेखर सहि ॥६९॥

जैसें जनम दरिद्र महामनि पावइ ।

पेखत प्रगट प्रभाउ प्रतीति न आवइ ॥७०॥

वे बारंबार प्रणाम करने लगीं । उनसे कुछ कहते नहीं बनता था । (वे मन-ही-मन) विचारती है कि मैं स्वप्न देख रही हूँ या सचमुच सामने शिवजीका दर्शन कर रही हूँ ॥६९॥

जिस प्रकार जन्मका दरिद्री महामणि (पारस) को पा जाय और उसके प्रभावको साक्षात् देखते हुए भी उसमें विश्वास न हो (उसी प्रकार यद्यापि पार्वतीजी मघादेवजीको नेत्रोंके सामने देखती हैं तो भी उन्हें प्रतीति नहीं होती) ॥७०॥

सुफल मनोरथ भयउ गौरि सोहइ सुठि ।

घर ते खेलन मनहुँ अबहिं आई उठि ॥७१॥

देखि रुप अनुराग महेस भए बस ।

कहत बचन जनु सानि सनेह सुधा रस ॥७२॥

पार्वतीजीका मनोरथ सफल हो गया, ( इससे वे और भी) सुहावनी लगती हैं । ( जान पड़ता है कि ) मानो खेलनके लिये वे अभी घरसे उठकर आयी हो । ( उन की देहमें तपका क्लेश और कृशता आदि कुछ भी लक्षित नहीं होता )॥७१॥

पार्वतीजीके रुप और अनुरागको देखकर महादेवजी उनके वशमें हो और मानो प्रेमामृतमें सानकर वचन बोले ॥७२॥

हमहि आजु लगि कनउड़ काहुँ न कीन्हेउ ।

पारबती तप प्रेम मोल मोहि लीन्हेउ ॥७३॥

अब जो कहहु सो करहँ बिलंबु न एहिं घरी ।

सुनि महेस मृदु बचन पुलकि पायन्ह । परी॥ ७४॥

( शिवजी कहते हैं कि ) ’हमको आजतक किसीने कृतज्ञ नहीं बनाया; परंतु हे पार्वती ! तुमने तो अपने तप और प्रेमसे मुझे मोल ले लिया ॥७३॥

अब तुम जो कहो , मैं इसी क्षण वही करुँगा, विलम्ब नहीं होने दूँगा ।’शिवजीके (ऐसे) कोमल वचन सुनकर पार्वतीजी पुलकित हो उनके पैरोंपर गिर पड़ीं ॥७४॥

परि पायँ सखि मुख कहि जनायो आपुइ बाप अधीनता ।

परितोषि गिरिजहि चले बरनत प्रीति नीति प्रबीनता ॥

हर हृदयँ धरि घर गौरि गवनी कीन्ह बिधि मन भावनो ।

आनंदु प्रेम समाज मंगल गान बाजु बधावनो ॥९॥

पार्वतीजीने उनके पैरों पड़कर सखीके द्वारा अपना पिताके अधीन होना सूचित किया, तब शिवजी उनका परितोष करके उनकी प्रीति एवं नीतिनिपुणताका वर्णन करते चले गये । इधर पार्वतीजी भी शिवजीको हृदयमें धारणकर घर चली गयीं । विधाताने सब कुछ उनके मनके अनुकूल कर दिया । ( फिर तो ) आनन्द और प्रेमका समाज जुट गया, मङगलगान होने लगा और बधावा बजने लगा ॥९॥

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Last Updated : January 22, 2014

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