पार्वती मंगल - भाग १६

पार्वती - मङ्गलमें प्रातःस्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजीने देवाधिदेव भगवान् शंकरके द्वारा जगदम्बा पार्वतीके कल्याणमय पाणिग्रहणका काव्यमय एवं रसमय चित्रण किया है ।


बहुरि बराती मुदित चले जनवासहि ।

दूलह दुलहिन गे तब हास-अवासहि ॥१३३॥

रोकि द्वार मैना तब कौतुक कीन्हेउ ।

करि लहकौरि गौरि हर बड़ सुख दीन्हेउ ॥१३४॥

फिर बरातीलोग तो जनवासेको चले गये और दूल्हा-दुलहिन कोहवरमें गये ॥१३३॥

उस समय मैनाने उनका द्वार रोककर कौतुक किया और शिव-पार्वतीने लहकौरिकी रीति करके उसे बड़ा सुख दिया ॥१३४॥

जुआ खेलावत गारि देहिं गिरि नारिहि ।

आपनि ओर निहरि प्रमोद पुरारिहि ॥१३५॥

सखी सुआसिनि सासु पाउ सुख सब बिधि ।

जनवासेहि बर चलेह सकल मंगल निधि ॥१३६॥

जुआ खेलाते समय सब स्त्रियाँ हिमाचलपत्नी मैनाको गाली गाती हैं । शिवजी अपनी ओर देखकर विशेष आनन्दित होते हैं (कि हमारे तो माता है ही नहीं, गाली किसको देंगी) ॥१३५॥

सखियों, सुआसिनियों और सास सभीने सब प्रकार सुख प्राप्त किया । फिर सब मङगलोंके निधान दूल्हा श्रीमहादेवजी जनवासेको चले ॥१३६॥

भउ जेवनार बहोरि बुलाइ सकल सुर ।

बैठाए गिरिराज धरम धरनि धुर ॥१३७॥

परुसन लगे सुआर बिबुध जन जेवहिं ।

देहिं गारि बर नारि मोद मन भेवहिं ॥१३८॥

तदनन्तर सब देवताओंको बुलाकर जेवनार हुई । धर्म और पृथ्वीको धारण करनेवाले गिरिताजने सबको बिठाया ॥१३७॥

सुआर (सूपकार) परोसने लगे और देवतालोग जीमने लगे । उस समय सुन्दरी स्त्रियाँ गाली गाने लगीं और मनको आनन्दमें डुबोने लगीं ॥१३८॥

करहिं सुमंगल गान सुघर सहनाइन्ह ।

जेइँ चले हरि दुहिन सहित सुर भाइन्ह ॥१३९॥

भूधर भोरु बिदा कर साज सजायउ ।

चले देव सजि जान निसान बजायउ ॥१४०॥

गुणीलोग शहनाइयोंपर सुमङगलगान करने लगे, विष्णुभगवान् और ब्रह्माजी अपने भाई (सजातीय) समस्त देवताओंके साथ भोजन करके चले ॥१३९॥

पर्वतराज हिमवान्‌ने प्रात :काल होते ही विदाका सामान तैयार किया और देवतालोग रथोंको सजाकर नगारे बजाते हुए चल दिये ॥१४०॥

सनमाने सुर सकल दीन्ह पहिरावनि ।

कीन्ह बड़ाई बिनय सनेह सुहावनि ॥१४१॥

गहि सिव पद कह सासु बिनय मृदु मानबि ।

गौरि सजीवन मूरि मोरि जियँ जानबि ॥१४२॥

सभी देवताओंका सम्मान करके उन्हें पहिरावनी दी और उनकी विनय एवं स्नेहसे सुहावनी बड़ाई की ॥१४१॥

फिर सासने शिवजीके चरणोंको पकड़कर कहा कि ’हमारी एक विनीत प्रार्थना मानिये -पार्वती मेरे जीवनकी मूल है ऐसा जानियेगा ’॥१४२॥

भेंटि बिदा करि बहुरि भेंटि पहुँचावहिं ।

हुँकरि हुँकरि सु लवाइ धेनु जनु धावहिं ॥१४३॥

उमा मातु मुख निरखि नैन जल मोचहिं ।

नारि जनमु जग जाय सखी कहि सोचहिं ॥१४४॥

वे एक बार मिलकर विदा कर देती हैं और फिर मिलकर पहुँचाने जाती हैं, मानो हालकी बियाई हुई गाय हुँकार भर-भरकर दौड़ती हो ॥१४३॥

पार्वतीजी माताके मुखको देखकर नेत्रोंसे जल बहा रही हैं और सखियाँ ’संसारमें स्त्रीका जन्म ही वृक्षा है’ यों कहकर सोच करती हैं ॥१४४॥

भेंटि उमहि गिरिराज सहित सुत परिजन ।

बहुत भाँति समुझाइ फिरे बिलखित मन ॥१४५॥

संकर गौरि समेत गए कैलासहि ।

नाइ नाइ सिर देव चले निज बासहि ॥१४६॥

गिरिराज हिमवान् पुत्र और परिजानोंसहित पार्वतीजीसे मिलकर और उन्हें बहुत प्रकार समझा-बुझाकर दुखी मनसे लौटे ॥१४५॥

फिर शिवजी पार्वतीजीके सहित कैलास गये और देवतालोग प्रणाम करके अपने-अपने स्थानोंको चले गये ॥१४६॥

उमा महेस बिआह उछाह भुवन भरे ।

सब के सकल मनोरथ बिधि पूरन करे ॥१४७॥

प्रेम पाट पटडोरि गौरि हर गुन मनि ।

मंगल हार रचेउ कबि मति मृगलोचनि ॥१४८॥

पार्वतीजी और शिवजीके विवाहके आनन्दसे सारे भुवन भर गये, विधाताने सबके सम्पूर्ण मनोरथोंको पूरा कर दिया ॥१४७॥

प्रेमरुप रेशमके रेशमी तागेमें कविकी बुध्दिरुपी मृगनयनी कामिनीने यह श्रीपार्वती और शंकरके गुणगणरुपी मणियोंसे मङगलमय हार गूँथा है ॥१४८॥

मृगनयनि बिधुबदनी रचेउ मनि मंजु मंगलहार सो ।

उर धरहुँ जुबती जन बिलोकि तिलोक सोभा सार सो ॥

कल्यान काज उछाह ब्याह सनेह सहित जो गाइहै ।

तुलसी उमा संकर प्रसाद प्रमोद मन प्रिय पाइहै ॥१६॥

कविकी बुध्दिरुपी मृगनयनी चन्द्रवदनी स्त्रीने (उपर्युक्त) मणियोंके इस मङगलहारको रचा है, भक्तोंकी बुध्दिरुपी स्त्रियाँ तीनों लोककी शोभाका सार समझकर धारण करें । जो लोग विवाहोत्सवादि मङगल-कृत्योंके समय इसका प्रेमसहित गान करेंगे, श्रीगोस्वामीजी कहते हैं कि वे श्रीशिव और पार्वतीजीके प्रसादसे मनको प्रिय लगनेवाला आनन्द प्राप्त करेंगे ॥१६॥

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Last Updated : January 22, 2014

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