मार्कण्डेय

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


यस्मै नमो भगवते पुरुषाय भूम्ने विश्वाय विश्वगुरवे परदेवतायै ।

नारायणाय ऋषये च नरोत्तमाय हंसाय संयतगिरे निगमेश्वराय ॥

( श्रीमद्भा० १२।८।४७ )

' उन ऐश्वर्याधीश, परमपुरुष, सर्वव्यापी, विश्वरुप, विश्वके परम गुरु एवं परम देवता, हंसस्वरुप, वाणीको वशमें रखनेवाले ( मुनिरुपधारी ), श्रुतियोंके भी आराध्य भगवान् नारायण तथा ऋषिश्रेष्ठ नरको नमस्कार ।'

भगवानने तपका आदर्श स्थापित करनेके लिये ही नरनारायणस्वरुप धारण किया है । वे सर्वेश्वर तपस्वी ऋषियोंके रक्षक एवं आराध्य हैं । मृकण्डु ऋषिके पुत्र मार्कण्डेयजी नैष्ठिक ब्रह्मचर्यव्रत लेकर हिमालयकी गोदमें पुष्पभद्रा नदीके किनारे उन्हीं ऋषिरुपधारी भगवान् नर - नारायणकी आराधना कर रहे थे । उनका चित्त सब ओरसे हटकर भगवानमें ही लगा रहता था । मार्कण्डेय मुनिको जब इस प्रकार भगवानकी आराधना करते बहुत वर्ष व्यतीत हो गये, तब इन्द्रको उनके तपसे भय होने लगा । देवराजने वसन्त, कामदेव तथा पुञ्जिकस्थली अप्सराको मुनिकी साधनामें विघ्न करनेके लिये वहाँ भेजा । वसन्तके प्रभावसे सभी वृक्ष पुष्पित हो गये, कोकिला कूजने लगी, शीतल - मन्द - सुगान्धित वायु चलने लगा । अलक्ष्य रहकर वहाँ गन्धर्व गाने लगे और अप्सरा पुञ्जिकस्थली मुनिके सम्मुख गेंद खेलती हुई अपने सौदर्यका प्रदर्शन करने लगी । इसी समय कामदेवने अपने फूलोंके धनुषपर सम्मोहन बाण चढ़ाकर उसे मुनिपर छोड़ा । परंतु कामदेव तथा अप्सराके सब प्रयत्न व्यर्थ हो गये । मार्कण्डेयजीका चित्त भगवान् नर - नारायणमें लगा हुआ था, अतः भगवानकी कृपासे उनके हदयमें कोई विकार नहीं उठा । मुनिकी ऐसी दृढ़ अवस्था देखकर काम आदि डरकर भाग गये । मार्कण्डेयजीमें कामको जीत लेनेका गर्व भी नहीं आया । वे उसे भगवानकी कृपा समझकर और भी भावनिमग्न हो गये ।

भगवानके चरणोंमें मार्कण्डेयजीका चित्त तो पहलेसे लगा था । अब भगवानकी अपनेपर इतनी बड़ी कृपाका अनुभव करके वे व्याकुल हो गये । भगवानके दर्शनके लिये इनका हदय आतुर हो उठा । भक्तवत्सल भगवान् उनकी व्याकुलतासे द्रवित होकर उनके सामने प्रकट हो गये । भगवान् नारायण सुन्दर जलभरे मेघके समान श्याम वर्णके और नर गौर वर्णके थे । दोनोंके ही कमलके समान तंत्र करुणासे पूर्ण थे । इस ऋषिवेशमें भगवानने वहाएँ बढ़ा रक्खी थीं और शरीरपर मूगचर्म धारण कर रक्खा था । भगवानके मङ्गलमय भव्य स्वरुपको देखकर मार्कण्डेयजी हाथ जोड़कर भूमिपर गिर पड़े । भगवानने उन्हें स्नेहपूर्वक उठाया । मार्कण्डेयजीने किसी कुछ देरमें अपनेको स्थिर किया । उन्होंने भगवानकी भलीभाँति पूजा की । भगवानने उनसे वरदान माँगनेको कहा ।

मार्कण्डेजीने स्तुति करते हुए भगवानसे कहा - ' प्रभो ! आपके श्रीचरणोंका दर्शन हो जाय, इतना ही प्राणीका परम पुरुषार्थ है । आपको पा लेनेपर फिर तो कुछ पाना शेष रह ही नहीं जाता; किंतु आपने वरदान माँगनेकी आज्ञा दी है, अतः मैं आपकी माया देखना चाहता हूँ ।'

भगवान् तो ' एवमस्तु ' कहकर अपने आश्रम वदरीवनकी चले गये और मार्कण्डेयजी भगवानकी आराधना, ध्यान, पूजनमें लग गये । सहसा एक दिन ऋषिने देखा कि देशाओंको काले - काले मेघोंने ढक दिया है । बड़ी भयंकर गर्जना तथा बिजलीकी कड़कके साथ मूसलके समान मोटी - मोटी बाराओंसे पानी बरसने लगा । इतनेमें चारों ओरसे उमड़ते हुए समुद्र बढ़ आये और समस्त पृथ्वी प्रलयके जलमें डूब पथी । मुनि उस महासागरमें विक्षिप्तकी भाँति तैरने लगे । भूमि, वृक्ष, पर्वत आदि सब डूब गये थे । सूर्य, चन्द्र तथा तारोंका भी कहीं पता नहीं था । सब ओर घोर अन्धकार था । भीषण प्रलयसमुद्रकी गर्जना ही सुनायी पड़ती थी । उस समुद्रमें बड़ी - बड़ी भयंकर तरङ्गें कभी मुनिको यहाँसे वहाँ फेंक देती थीं, कभी कोई जलजन्तु उन्हें काटने लगता था और कभी जलमें डूबने लगते थे । जटाएँ खुल गयी थीं, बुद्धि विक्षिप्त हो गयी थी, शरीर शिथिल होता जाता था । अन्तमें बहुत व्याकुल होकर उन्होंने भगवानका स्मरण किया ।

भगवानका स्मरण करते ही मार्कण्डेयजीने देखा कि वामने ही एक बहुत बड़ा वटका वृक्ष उस प्रलयसमुद्रमें खड़ा है । पूरे वृक्षपर कोमल पत्ते भरे हुए हैं । आश्रयके मुनि और समीप आ गये । उन्होंने देखा कि वटवृक्षकी ईशान कोणकी शाखापर पत्तोंके सट जानेसे बड़ा - सा सुन्दर दोना बन गया है । उस दोनेमें एक अद्भुत बालक लेदा हुआ है । वह नव - जलधर - सुन्दर श्याम है । उसके कर एवं चरण लाल - लाल, अत्यन्त सुकुमार हैं । उसके त्रिभुवनसुन्दर मुखपर मन्द - मन्द हास्य है । उसके बड़े - बड़े नेत्र प्रसन्नताके खिले हुए हैं । श्वास लेनेसे उसका सुन्दर त्रिवलीभूषित पल्लवके समान उदर तनिक - तनिक ऊपर - नीचे हो रहा है । उस शिशुके शरीरका तेज इस घोर अन्धकारको दूर कर रखा है । शिशु अपने हाथोंकी सुन्दर अँगुलियोंसे दाहिने चरणके पकड़कर उसके अँगूठेको मुखमें लिये चूस रहा है । मुनिके बड़ा ही आश्चर्य हुआ । उन्होंने प्रणाम किया --

करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिनेत्रयन्तम् ।

वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं शिरसा नमामि ॥

उनकी सब थकावट उस बालकको देखते ही दूर हो गयी । वे उसको गोदमें लेनेके लिये लालायित हो उठे और उसके पास जा पहुँचे । पास पहुँचते ही उस शिशुके श्वासके खिंचे हुए मुनि विवश होकर उसकी नासिकाके छिद्रले उसीके उदरमें चले गये ।

मार्कण्डेयजीने शिशुके उदरमें पहुँचकर जो कुछ देखा, उसका वर्णन नहीं हो सकता । वहाँ उन्होंने अनन्त ब्रह्माण्ड देखे । वहाँकी विचित्र सृष्टि देखी । सूर्य, चन्द्र, तारागण प्रभृति सब उन्हें दिखायी पड़े । उनको वहाँ समुद्र, नदी, सरोवर, वृक्ष, पर्वत आदिसहित पृथ्वी भी सभी प्राणियोंसे पूर्ण दिखायी पड़ी । पृथ्वीपर घुमते हुए वे शिशुके उदरमें ही तटपर अपना आश्रम भी उन्होंने देखा । यह सब देखनेमें उन्हें अनेक युग बीत गये । वे विस्मयसे चकित हो गये । लेनेसे श्वासके साथ वे फिर बाहर उसी प्रलयसमुद्रमें गिर पड़े । उन्हें वही गर्जन करता समुद्र, वही वटवृक्ष और उसपर वही अद्भुत सौन्दर्यधन शिशु दिखलायी पड़ा । अब मुनिने उस बालकसे ही इस सब दृश्यका रहस्य पूछन चाहा । जैसे ही वे कुछ पूछनेको हुए, सहसा सब अदृश्य हो गया । मुनिने देखा कि वे तो अपने आश्रमके पास पुष्प भद्रा नदीके तटपर सन्ध्या करने वैसे ही बैठे हैं । वह शिशु वह वटवृक्ष, वह प्रलयसमुद्र आदि कुछ भी वहाँ नहीं है । भगवानकी कृपा समझकर मुनिको बड़ा ही आनन्द हुआ ।

भगवानने कृपा करके अपनी मायाका स्वरुप दिखलाया कि किस प्रकार उन सर्वेश्वरके भीतर ही समस्त ब्रह्माण्ड हैं, उन्हींसे सृष्टिका विस्तार होता है और फिर सृष्टि उनमें ही लय हो जाती है । इस कृपाका अनुभव करके मुनि मार्कण्डेय स्थानस्थ हो गये । उनका चित्त दयामय भगवानमें निश्चल हो गया । इसी समय उधरसे नन्दीपर बैठे पार्वतीजीके साथ भगवान् शङ्कर निकले । मार्कण्डेयजीको ध्यानमें एकाग्र देख भगवती उमाने शङ्करजीसे कहा -- ' नाथ ! ये मुनि कितने तपस्वी हैं । ये कैसे ध्यानस्थ हैं । आप इनपर कृपा कीजिये, क्योंकि तपस्वियोंकी तपस्याका फल देनेमें आप समर्थ हैं ।'

भगवान् शङ्करने कहा - ' पार्वती ! ये मार्कण्डेयजी भगवानके अनन्य भक्त हैं । ऐसे भगवानके भक्त कामनाहीन होते हैं । उन्हें भगवानकी प्रसन्नताके अतिरिक्त और कोई इच्छा नहीं होती; किंतु ऐसे भगवदभक्तका दर्शन तथा उनसे वार्तालापका अवसर बड़े भाग्यसे मिलता है, अतः मैं इनसे अवश्य बातचीत करुँगा ।' इतना कहकर भगवान् शङ्कर मुनिके समीप गये, किंतु ध्यानस्थ मुनिको कुछ पता न लगा । वे तो भगवानके ध्यानमें शरीर और संसारको भूल गये थे । शङ्करजीने योगबलसे उनके हदयमें प्रवेश किया । हदयमें त्रिनयन, कर्पूरगौर शङ्करजीका अकस्मात् दर्शन होनेसे मुनिका न्यान भंग हो गया । नेत्र खोलनेपर भगवान् शङ्करको आया देख वे बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने पार्वतीजीके साथ शिवजीका पूजन किया । भक्तवत्सल भगवान् शङ्करने उनसे वरदान माँगनेको कहा । मुनिने प्रार्थना की -- ' दयामय ! आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे यही वरदान दें कि भगवानमें मेरी अविचल भक्ति हो । आपमें मेरी स्थिर श्रद्धा रहे । भगवदक्तोके प्रति मेरे मनमें अनुराग रहे ।'

शङ्करजीने ' एवमस्तु ' कहकर मुनिको कल्पान्ततक अमर रहने और पुराणाचार्य होनेका वरदान दिया । मार्कण्डेयपुराणके उपदेशक मार्कण्डेय मुनि ही हैं ।

मार्कण्डेयजीपर श्रीभगवान् शङ्करकी कृपा पहलेसे ही थी । पद्मपुराण उत्तरखण्डमें आया है कि इनके पिता मुनि मूकण्डुने अपनी पत्नीके साथ घोर तपस्या करके भगवान् शिवजीको प्रसन्न किया था और उन्हींके वरदानसे मार्कण्डेयको पुत्ररुपमें पाया था । भगवान् शङ्करने उसे सोलह वर्षकी ही आयु उस समय दी थी । अतः मार्कण्डेयकी आयुका सोलहवाँ वर्ष आरम्भ होनेपर मूकण्डु मुनिका हदय शोकसे भर गया । पिताजीको उदाल देखकर जब मार्कण्डेयने उदासीका कारण पूछा, तब मूकण्डुने कहा - ' बेटा ! भगवान् शङ्करने तुम्हें सोलह वर्षकी ही आयु दी हैं; उसकी समाप्तिका समय समीप आ पहुँचा है, इसीसे मुझे शोक हो रहा है ।' इसपर मार्कण्डेयने कहा - ' पिताजी । आप शोक न करें, मैं भगवान् शङ्करको प्रसन्न करके ऐसा यत्न करुँगा कि मेरी मृत्यु हो ही नहीं ।' तदनन्तर मातापिताकी आज्ञा लेकर मार्कण्डेयजी दक्षिण - समुद्रके तटपर चले गये और वहाँ विधिपूर्वक शिवलिङ्गकी स्थापना करके आराधना करने लगे । समयपर ' काल ' आ पहुँचा मार्कण्डेयजीने कालसे कहा - ' मैं शिवजीका मृत्युजय स्तोत्रके स्तवन कर रहा हूँ, इसे पूरा कर लूँ; तबतक तुम ठहर जाओ ।' कालने कहा - ' ऐसा नहीं हो सकता ।' तब मार्कण्डेयजीने भगवान् शङ्करके बलपर कालको फटकारा । कालने क्रोधमें भरकर क्यों ही मार्कण्डेयको हठपूर्वक ग्रसना चाहा, त्यों ही स्वयं महादेवजी उसी लिङ्गसे प्रकट हो गये । हुंकार भरकर मेघके समान गर्जना करते हुए उन्होंने कालकी छातीमें लात मारी । मृत्यु देवता उनके चरण - प्रहारसे पीड़ित होकर दूर जा पड़े । भयानक आकृतिवाले कालको दूर पड़े देख मार्कण्डेयजीके पुनः इसी स्तोत्रसे भगवान् शङ्करजीका स्तवन किया --

स्तोत्र

रत्नसानुशरासनं रजताद्रिश्रृङ्गनिकेतन

शिञ्जिनीकृतपद्मगेश्वरमच्युतानलसायकम् ।

क्षिप्रदग्धपुरत्रयं त्रिदशालयैरबिवन्दितं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥

पञ्जपादपपुष्पगन्धिपदाम्बुजद्वयशोभितं

भाललोचनजातपावकदग्धमन्मथविग्रहम् ।

भस्मदिग्धकलेव भवनाशिनं भवमव्ययं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥

मत्तवारणमुख्यचर्मकृतोत्तरीयमनोह

पङ्कजासनपद्मलोचनपूजिताकग्रिसरोरुहम् ।

देवसिद्धतरङ्गिणीकरसिक्तशीतजटाध

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥

कुण्डलीकृतकुण्डलीश्वरकुण्डलं वृक्षवाहनं

नारदादिमुनीश्वरस्तुतवैभवं भुवनेश्वरम् ।

अन्धकान्तकमाश्रितामरपादपं शमनान्तकं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥

यक्षराजसखं भगाक्षिहरं भुजङ्गविभूषणं

शैलराजसुतापरिष्कृतचारुवामकलेवरम् ।

क्ष्वेडनीलगलं परश्वधधारिणं मृगधारिणं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥

भेषजं भवरोगिणामखिलापदामपहारिणं

दक्षयज्ञविनाशिनं त्रिगुणात्मकं त्रिविलोचनम् ।

भुक्तिमुक्तफलप्रदं निखिलाघसङ्घनिबर्हणं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥

भक्तवत्सलमर्चतां निधिमक्षयं हरिदम्बरं

सर्वभूतपतिं परात्परमप्रमेयमनूपमम् ।

भूमिवारिनभोहुताशन सोमपालितस्वाकृतिं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥

विश्वसृष्टिविधायिनं पुनरेव पालनतत्परं

संहरन्तमथ प्रपञ्चमशेषलोकनिवासिनम् ।

क्रीडयन्तमहर्निशं गणनाथयूथसमावृतं

चन्द्रशेखरमाश्रये मम किं करिष्यति वै यमः ॥

रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नीलण्ठमुमापतिम् ।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥

कालकण्ठं कलामूर्त्ति कालाग्निं कालनाशनम् ।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥

वामदेवं महादेवं लोकनाथं जगद्रुरुम ।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥

देवदेवं जगन्नाथं देवेशमृषभध्वजम् ।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥

अनन्तमव्ययं शान्तमक्षमालाधरं हरम् ।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥

आनन्दं परमं नित्यं कैवल्यपदकारणम् ।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ।

स्वर्गापवर्गदातारं सृष्टिस्थित्यन्तकारिणम् ।

नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्युः करिष्यति ॥

( पद्म० उत्तर० २३७।७५ - ९० )

कैलासके शिखरपर जिनका निवासगृह है, जिन्होंने मेरुगिरिका धनुष, नागराज वासुकिकी प्रत्यञ्चा और भगवान् विष्णुको अग्निमय बाण बनाकर तत्काल ही दैत्योंके तीनो पुरोंको दग्ध कर डाला था, सम्पूर्ण देवता जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ । यमराज मेरा क्या करेगा ?

मन्दार, पारिजात, सन्तान, कल्पवृक्ष और हरिचन्दनइन पाँच दिव्य वृक्षोंके पुष्पोंसे सुगन्धित युगल चरण - कमल जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जिन्होंने अपने ललाटवर्ती नेत्रसे प्रकट हुई आगकी ज्वालामें कामदेवके शरीरको भस्म कर डाला था, जिनका श्रीविग्रह सदा भस्मसे विभूषित रहता है, जो भव - सबकी उत्पत्तिके कारण होते हुए भी भव संसारके नाशक हैं तथा जिनका कभी विनाश नहीं होता, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ । यमराज मेरा क्या करेगा ?

जो मतवाले गजराजके मुख्य चर्मकी चादर ओढ़े परम मनोहर जान पड़ते हैं, ब्रह्मा और विष्णु भी जिनके चरण - कमलोंकी पूजा करते हैं तथा जो देवताओं और सिद्धोंकी नदी गङ्गाकी तरङ्गोंसे भीगी हुई शीतल जटा धारण करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ । यमराज मेरा क्या करेगा ?

गेंडुली मारे हुए सर्पराज जिनके कानोंमें कुण्डलका काम देते हैं, जो वृषभपर सवारी करते हैं, नारद आदि मुनीश्वर जिनके वैभवकी स्तुति करते हैं, जो समस्त भुवनोंके स्वामी, अन्धकारसुरका नाश करनेवाले, आश्रितजनोंके लिये कल्पवृक्षके समान और यमराजको भी शान्त करनेवाले हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ । यमराज मेरा क्या करेगा ?

जो यक्षराज कुबेरके सखा, भग देवताकी आँख फोड़नेवाले और सपोंके आभूषण धारण करनेवाले हैं, जिनके श्रीविग्रहके सुन्दर वामभागको गिरिराजकिशोरी उमाने सुशोभित कर रक्खा है, कालकूट विष पीनेके कारण जिनका कण्ठभाग नीले रंगका दिखायी देता है,ल जो एक हाथमें फरसा और दूसरेमें मृगमुद्रा धारण किये रहते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ । यमराज मेरा क्या करेगा ?

जो जन्म - मरणके रोगसे ग्रस्त पुरुषोंके लिये औषधरुप हैं, समस्त आपत्तियोंका निवारण और दक्ष - यज्ञका विनाश करनेवाले हैं, सत्त्व आदि तीनों गुण जिनके स्वरुप हैं, जो तीन नेत्र धारण करते, भोग और मोक्षरुपी फल देते तथा सम्पूर्ण पापराशिका संहार करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ । यमराज मेरा क्या करेगा ?

जो ब्रह्मारुपसे सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि करते, फिर विष्णुरुपसे सबके पालनमें संलग्न रहते और अन्तमें सारे प्रपञ्चका संहार करते हैं, सम्पूर्ण लोकोंमे जिनका निवास है तथा जो गणेशजीके पार्षदोंसे धिरकर दिन - रात भाँति - भाँतिके खेल किया करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ । यमराज मेरा क्या करेगा ?

रु अर्थात् दुःखको दूर करनेके कारण जिन्हें रुद्र कहते हैं, जो जीवरुपी पशुओंका पालन करनेसे पशुपति, स्थिर होनेसे स्थाणु, गलेमें नीला चिह्न धारण करनेसे नीलकण्ठ और भगवती उमाके स्वामी होनेसे उमापति नाम धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

जिनके गलेमें काला दाग है, जो कलामूर्ति, कालाग्नि - स्वरुप और कालके नाशक हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

जिनका कण्ठ नील और नेत्र विकराल होते हुए भी जो अत्यन्त निर्मल और उपद्रवरहित हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

जो वामदेव, महादेव, विश्वनाथ और जगद्गुरु नाम धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

जो देवताओंके भी आराध्यदेव, जगतके स्वामी और देवताओंपर भी शासन करनेवाले हैं, जिनकी ध्वजापर वृषभका चिह्न बना हुआ है, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

जो अनन्त, अधिकारी, शान्त, रुद्राक्षमालाधारी और सबके दुःखोंका हरण करनेवाले हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

जो स्वर्ग और मोक्षके दाता तथा सृष्टि, पालन और संहारके कर्ता हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

इस प्रकार शङ्करजीकी कृपासे मार्कण्डेयजीने मृत्युपर विजय लाभ किया था ।

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Last Updated : April 29, 2009

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