तत्त्वान्वय का - ॥ समास पांचवां - अग्निनिरूपणनाम ॥

श्रीसमर्थ ने इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना एवं शैली मुख्यत: श्रवण के ठोस नींव पर की है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
धन्य धन्य यह वैश्वानरु । है रघुनाथ का श्वशुरु । विश्वव्यापक विश्वंभरु । पिता जानकी का ॥१॥
जिसके मुख से भगवंत भोक्ता । जो ऋषियों का फलदाता । तमहिमरोगहर्ता । भर्ता विश्वजनों का ॥२॥
नाना वर्ण नाना भेद । जीवमात्र के लिये अभेद । अभेद और परम शुद्ध । ब्रह्मादिकों को ॥३॥
अग्नि के कारण सृष्टि चले । अग्नि के कारण लोग तृप्त हुये । अग्नि के कारणं सभी हुये । छोटे बड़े ॥४॥
अग्नि ने सुखाया भूमंडल । लोगों को रहने को हुआ स्थल । दीप दीपिका नाना ज्वाल । जहां वहां ॥५॥
पेट में जठराग्नि । जिससे जनों को भूख लगती । अग्नि के कारण ही आती । भोजन में रुचि ॥६॥
अग्नि सर्वांग में व्यापक । उष्णता से जीता कोई एक । उष्णता न हो तो सकल लोग । मर जाते ॥७॥
पहले अग्नि मंद होता । पश्चात प्राणी नष्ट होता । ऐसा यह अनुभव आता । प्राणिमात्र को ॥८॥
रहने पर अग्नि का बल । शत्रु से जीतते तत्काल । अग्नि है तावत्काल । है जीवन ॥९॥
नाना रस निर्माण हुये । अग्नि के कारण उत्पन्न हुये । महारोगी आरोग्य पाये । निमिषमात्र में ॥१०॥
सूर्य सभी से विशेष । सूर्य से परे अग्निप्रकाश । अग्नि से रात्री समय लोक । मदद लेते ॥११॥
अंत्यज गृह से अग्नि लाया । उसमें दोष न माना गया । सभी गृहों में पवित्र हुआ । वैश्वानर ॥१२॥
अग्निहोत्र नाना याग । अग्नि के कारण ही होते सांग । अग्नि तृप्त होने पर तब । सुप्रसन्न होता ॥१३॥
देव दानव मानव । अग्नि के कारण चलते सर्व । सकल जनों के लिये उपाव । है अग्नि ॥१४॥
विवाह होते एक एक से बढकर । नाना आतिषबाजी के प्रकार । यात्रा महान भूमंडल पर । शोभती आतिषबाजी से ॥१५॥
कई लोग रोगी होते । उष्ण औषधियों का सेवन करते । जिससे लोग स्वस्थ होते । वन्हि के कारण ॥१६॥
ब्राह्मण के लिये तन मन । सूर्य देव हुताशन । इस विषय में अनुमान । कुछ भी नहीं ॥१७॥
लोगों में जठरानल । सागर में है वडवानल । भूगोल के बाहर आवरणानल । शिवनेत्रों में विद्युल्लता ॥१८॥
कुप्पी से अग्नि होता । उच्च दर्पण से अग्नि निकलता । काष्ठ मंथन से प्रकट होता । चकमक से ॥१९॥
अग्नि सभी जगह होता । कठोर घर्षण से प्रकट होता । अग्निसर्प से दग्ध होता । गिरिकंदर ॥२०॥
अग्नि के कारण नाना उपाय । अग्नि के कारण नाना अपाय । विवेक के बिना सकल होय । निरर्थक ॥२१॥
छोटे बडे भूमंडल पर । सभी को वन्हि का आधार । अग्नि मुख से परमेश्वर । संतुष्ट होता ॥२२॥
ऐसी अग्नि की महिमा । बोले उतनी कम होती उपमा । उत्तरोत्तर अगाध महिमा। अग्नि पुरुष की ॥२३॥
जीवित रहते सुखी करे । मरने पर प्रेत को भस्म करे । सर्वभक्षक उसकी महिमा अपार ये । कितनी कहें ॥२४॥
सकल सृष्टि का संसार । प्रलय करता वैश्वानर । वैश्वानर से पदार्थमात्र । न रहे शेष कुछ भी ॥२५॥
नाना होम उदंड करते । घर घर में वैश्वदेव चलते । नाना क्षेत्रों में दीप जलते । देव के निकट ॥२६॥
दीपाराधन नीरांजन । देव आरती उतारते जन । खरे खोटे का करते चयन । दिव्य होने पर ॥२७॥
अष्टधा प्रकृति लोक तीन ही । सभी में व्याप्त होकर रहा वन्हि । अगाध महिमा की कथनी । करें कितनी मुख से ॥२८॥
मास ६ चार ही शृंग त्रिपदी जात । दो सिर सप्त हांथ । ऐसा कहता है शास्त्रार्थ। प्रचीति बिन ॥२९॥
ऐसा वन्हि उष्णमूर्ति । सो मैं ने कहा यथामति । श्रोताओं ने न्यूनपूर्णता की । क्षमा करनी चाहिये ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे अग्निनिरूपणनाम समास पांचवां ॥५॥

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Last Updated : December 09, 2023

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