जगज्जोतिनाम - ॥ समास चौथा - बीजलक्षणनाम ॥

श्रीसमर्थ ने इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना एवं शैली मुख्यत: श्रवण के ठोस नींव पर की है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
अब देखने जाओ उत्पत्ति कैसे । मनुष्य होते मनुष्य से। पशु उपजते पशु से । प्रत्यक्ष अब ॥१॥
खेचर और भूचर । वनचर और जलचर । नाना प्रकारों के शरीर । होते शरीर से ॥२॥
प्रत्यक्ष को और प्रमाण । निश्चय को और अनुमान । मार्ग देखकर टेढ़ी राह । चलें ही नहीं ॥३॥
विपरीतों से विपरीत उपजते । मगर वे शरीर ही कहलाते । शरीर के बिना उत्पत्ति । होगी ही नहीं ॥४॥
फिर ये उत्पत्ति कैसे हुई । किसकी किसने की । जिसने की उसकी निर्माण की । काया किसने ॥५॥
देखें ऐसे तो उदंड प्रसार । परंतु मूल में कैसे हुआ शरीर । उभर गया किस प्रकार । किससे कैसे ॥६॥
ऐसी यह आशंका पिछली । सुनो जो शेष रहते गई । संशय न लें कदापि । प्रत्यय आने पर ॥७॥
प्रत्यय ही है प्रमाण । मूर्ख को लगे अप्रमाण । पिंड को विश्वास जान । प्रचीत शब्द से ॥८॥
ब्रह्म से मूलमाया हुई । वही अष्टधा प्रकृति कही गई । भूतों त्रिगुणों की । मूलमाया ॥९॥
वह मूलमाया वायुस्वरूप । वायु में ज्ञातृत्व का रूप । वही इच्छा मगर आरोप । न होता ब्रह्म पर ॥१०॥
तथापि ब्रह्म को कल्पित किया । फिर वह शब्द व्यर्थ गया । आत्मा निर्गुण व्याप्त हुआ । शब्दातीत ॥११॥
आत्मा निर्गुण वस्तु ब्रह्म । नाममात्र उतना भ्रम । कल्पना से किया संभ्रम । फिर भी वह टिकता नहीं ॥१२॥
तथापि आग्रह ही किया । अगर आकाश को पत्थर मारा । आकाश को कांखकर कहा । तो भी वह टूटेना ॥१३॥
वैसे ब्रह्म निर्विकार । निर्विकार में लगाते विकार । विकार नष्ट होते निर्विकार । जैसे का वैसा ॥१४॥
अब सुनो प्रत्यय । जानकर धरें निश्चय । तो ही पाओगे जय । अनुभव का ॥१५॥
माया को जानें समीर । उसमें ज्ञाता वह ईश्वर । ईश्वर और सर्वेश्वर । उसको ही कहते ॥१६॥
वही ईश्वर गुण में आया । उसका त्रिगुणभेद हुआ । ब्रह्मा विष्णु महेश उत्पन्न हुआ । उस जगह ॥१७॥
सत्व रज और तम । ये त्रिगुण उत्तमोत्तम । इनके स्वरूप का अनुक्रम । पीछे निरूपित किया ॥१८॥
ज्ञाता विष्णु भगवान । ज्ञाता अज्ञाता चतुरानन । अज्ञाता महेश पंचानन । अत्यंत भोला ॥१९॥
त्रिगुण त्रिगुणों में मिश्रित हुये । कैसे होंगे भिन्न वे । परंतु विशेष न्यून भासित हुये । बो कहना पड़ेगा ॥२०॥
वायु में विष्णु था । वायुस्वरूप ही तत्त्वतः । हुआ आगे देहधर्ता । चतुर्भुज ॥२१॥
वैसे ही ब्रह्मा और महेश । देह धरते सावकाश । गुप्त प्रकट होने में अवकाश । उन्हें न लगे ॥२२॥
अब रोकडी अनुभूति । गुप्त प्रकट होते मनुष्य भी । फिर वे तो देवों की ही मूर्ति । सामर्थ्यवान ॥२३॥
देव देवी भूत देवता । चढ़ता सामर्थ्य वहां । इसी तरह राक्षसों में रहता । सामर्थ्यकला ॥२४॥
झोटिंग वायुरूप रहते । सभी छन छन करते चलते । खोबरा खारिक डाल देते । अकस्मात ॥२५॥
सभी लोगे अभाव से । तो भी बहुतों को यह ज्ञात है । अपने अपने अनुभव से । विश्वलोग जानते ॥२६॥
मनुष्य धरता शरीरवेष । नाना परकाया प्रवेश । फिर वह तो परमात्मा जगदीश । कैसे ना धरें ॥२७॥
इस कारण वायुस्वरूपी देह धरे । ब्रह्मा विष्णु महेश हुये । आगे वे विस्तृत हुए । पुत्र पौत्रों में ॥२८॥
भीतर ही स्त्रियों की कल्पना की । कल्पना करते ही वे निर्माण हुई । परंतु उनसे प्रजा उत्पन्न हुई । नहीं कभी ॥२९॥
इच्छा कर पुत्र कल्पित किये । तो वे कल्पना करते ही निर्माण हुये । व्यवहार इसी प्रकार से । हरिहरादिक का ॥३०॥
आगे ब्रह्मा ने सृष्टि कल्पित की । इच्छानुसार सृष्टि हुई । जीवसृष्टि निर्माण की । ब्रह्मदेव ने ॥३१॥
नाना प्रकार के प्राणी किये कल्पित । इच्छानुरूप हुये निर्मित । सभी जोड़े ही हुये उदित । अंडजजारजदि ॥३२॥
कोई जल स्वेद से हुये । वे प्राणी स्वेदज कहे गये । कोई वायु के कारण हुये । अकस्मात उद्भिज ॥३३॥
मनुष्यों की गौडविद्या । राक्षसों की आडम्बरी विद्या । ब्रह्मा की सृष्टि विद्या । इसी प्रकार से ॥३४॥
कुछ एक मनुष्यों की । उससे विशेष राक्षसों की । उससे विशेष ब्रह्मा की । सृष्टिविद्या ॥३५॥
ज्ञाता अज्ञाता प्राणी निर्माण किये । वेद कह कर मार्ग दिखाये । ब्रह्मा ने निर्माण किये । इस प्रकार से ॥३६॥
तब शरीरों से शरीर । विकारों से सृष्टि का विस्तार । समस्त शरीर इस प्रकार । निर्माण हुये ॥३७॥
यहां आशंका मिटी । समस्त सृष्टि विस्तारित हुई । विचार देखें तो प्रत्यय में आयी । यथान्वय से ॥३८॥
ऐसे सृष्टि का किया निर्माण । आगे विष्णुने किया कैसे प्रतिपालन । इसका भी विवेचन । देखना चाहिये श्रोताओं ने ॥३९॥
समस्त प्राणी निर्माण हुये । उन्हें मूलरूप में जानकर प्रतिपालन किये । शरीर से दैत्य संहारित किये । नाना प्रकार के ॥४०॥
नाना अवतार धारण करना । दुष्टों का संहार करना । करने धर्मस्थापना । जन्म विष्णु का ॥४१॥
इस कारण धर्म स्थापना के नर । वे भी विष्णु के अवतार । अभक्त दुर्जन रजनीचर । सहज ही हुये ॥४२॥
अब प्राणी जो जन्म लिये । वे अज्ञान ने संहार किये । मूलरूप में संहार किये । इस प्रकार ॥४३॥
शरीर में रुद्र खौलेगा । तब जीवसृष्टि नष्ट होगा । सारा ब्रह्मांड ही जलेगा । संहार समय पर ॥४४॥
एवं उत्पत्ति स्थिति संहार । इसका ऐसा है विचार । श्रोताओं तत्पर होकर । अवधान दीजिये ॥४५॥
कल्पांत में संहार होगा । वही कथन किया जायेगा । पंचप्रलय पहचानेगा । वही ज्ञानी ॥४६॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे बीजलक्षणनाम समास चौथा ॥४॥

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Last Updated : December 05, 2023

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