गुणरूपनाम - ॥ समास दूसरा - ब्रह्मनिरूपणनाम ॥

श्रीसमर्थ ने इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना एवं शैली मुख्यत: श्रवण के ठोस नींव पर की है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
जो जो कुछ साकार दिखे । वह सब कल्पांत में नाश होये। स्वरूप वह निरंतर रहे । सर्वकाल ॥१॥
जो सभी में सार । मिथ्या नहीं वह साचार । जो नित्य निरंतर । व्याप्त रहता ॥२॥
वह भगवंत का निजरूप । उसे कहते है स्वरूप । इसके अलावा अमाप । नाम उसके ॥३॥
उसे नाम का संकेत । समझने को यह दृष्टांत । मगर वह स्वरूप नामातीत । रहता ही रहता ॥४॥
दृश्य सबाह्य व्याप्त रहता । परंतु विश्व को ना दिखता । पास होकर ओझल हुआ । रहकर भी कैसे ॥५॥
ऐसा जो सुना देव । उठे दृष्टि का भाव । देखने जाओ तो दिखे सर्व । दृश्य ही सारा ॥६॥
दृष्टि का विषय दृश्य । वही होने पर सादृश्य। उससे दृष्टि पायें संतोष । मगर वह देखना हुआ नहीं ॥७॥
दृष्टि में दिखे वह न रहे । येतद्विषयी श्रुति है । इस कारण जो दृष्टि में दिखे । वह स्वरूप नहीं ॥८॥
स्वरूप वह निराभास । और दृश्य भास हुआ साभास । भास को कहा है नाश। वेदांतशास्त्रों में ॥९॥
और देखो तो दृश्य ही भासे । वस्तु होती अलग दृश्य से । स्वानुभव से देखने पर दिखे । दृश्य सबाह्य ॥१०॥
जो निराभास निर्गुण । उसकी क्या कहें पहचान । परंतु वह स्वरूप जान । सन्निध ही ॥११॥
जैसे आकाश में भासे भास । और सभी में आकाश । वैसे जानें जगदीश । सबाह्य अभ्यंतर में ॥१२॥
है उदक में मगर भीगे ना । है पृथ्वी में मगर घिसे ना। है वन्हि में मगर पके ना । स्वरूप देव का ॥१३॥
बह कीचड़ में मगर डूबे ना । वह वायु में पर उडे ना। है स्वर्ण में मगर गढे ना । स्वर्णसमान ॥१४॥
ऐसे जो सर्वदा ब्याप्त । मगर समझे ना कदापि बह । अभेद में बढाती भेद । वह है अहंता ॥१५॥
उसके स्वरूप का चिन्ह । कहू कुछ पहचान । अहंता का निरूपण । सुनो सावधानी से ॥१६॥
जो स्वरूप तक पहुंचे । अनुभव के साथ उड़ान भरे । अनुभव के शब्द सारे । बोलकर दिखाये ॥१७॥
कहे अब मैं ही स्वरूप। वही अहंता का रूप । निराकार से अपने आप । भिन्न दिखती ॥१८॥
स्वयं मैं ही हूं ब्रह्म । यह अहंता का भ्रम । ऐसा यह सूक्ष्मातिसूक्ष्म । देखने पर दिखे ॥१९॥
कल्पना समझती देत । वस्तु कल्पनातीत । इस कारण ना समझे अंत । अनंत का ॥२०॥
य और व्यतिरेक । यह शब्दभेद कोई एक । निशब्द का अंतरविवेक । जना चाहिये ॥२१॥
पहले खोजिये वाच्यांश । बाद में पहचानिये क्ष्यांश । लक्ष्याश में वाच्यांश । होगा कैसे ॥२२॥
सर्वब्रह्म और वेमलब्रह्म । यह वाच्याश का अनुक्रम । खोजने पर लक्ष्यांश का मर्म। वाच्यांश न होता ॥२३॥
सर्व विमल दोनो पक्ष । वाच्यांश में लय होते प्रत्यक्ष । लक्ष्यांश पर लगाते ही लक्ष्य । पक्षपात होता ॥२४॥
यह लक्ष्यांश से अनुभव करना । यहां नहीं वाच्यांश कहना । मुख्य अनुभव के चिन्ह । वाचारंभ कैसा ॥२५॥
परा पश्यंति मध्यमा वैखरी । जहां पीछे रहतें चारों ही । वहां शब्द कला कुशलता की । क्या आवश्यकता ॥२६॥
शब्द बोलते श्री नष्ट होता । वहां कैसी शाश्वतता । प्रत्यक्ष को प्रमाण न लगता । देखो तरह ॥२७॥
शब्द प्रत्यक्ष नाशवंत । इस कारण होता पक्षपात । सर्व नल ऐसा हेत । अनुभव में नहीं ॥२८॥
सुनो अनुभव के लक्षण । अनुभव याने अनन्य जान । सुनो अनन्य के लक्षण । ऐसे हैं ॥२९॥
अनन्य याने अन्य न रहे । आत्मनिवेदन जैसे । संगभंग में रहे ही रहे। आत्मा का आत्मत्व ॥३०॥
आत्मा को नहीं आत्मपन । यही निःसंग का लक्षण । इसे वाच्यांश से किया वर्णन । समझने के लिये ॥३१॥
अन्यथा लक्ष्यांश वह वाच्यांश से । कहें यह होगा कैसे । अत्यल्प वाक्य विवरण से । समझने लगे ॥३२॥
करें तत्त्व विवरण । खोजें ब्रह्म निर्गुण । देखे स्वयं को स्वयं । तो फिर समझे ॥३३॥
यह न बोलते विवरण करें । विवरण से विलीन होकर रहें । फिर ना बोलना ही शोभा दे । महापुरुषों को ॥३४॥
निःशब्द होते शब्द ही । श्रुति नेति नेति कहती । आई यह तो आत्मप्रचीति । प्रत्यक्ष अब ॥३५॥
प्रचीति आने पर अनुमान । यह तो प्रत्यक्ष दुराभिमान । तो अब मैं अज्ञान । मुझे कुछ भी ना समझे ॥३६॥
मैं दांभिक मेरा बोलना दांभिक । मैं दांभिक मेरा चलना दांभिक । मैं मेरा सारा ही दांभिक । काल्पनिक ॥३७॥
मुझे मूलतः ही नहीं स्थान । मेरा सारा बोलना ही अर्थहीन । यह प्रकृति का स्वभाव । प्रकृति दांभिक ॥३८॥
प्रकृति और पुरुष । ये दोनों मिटते निःशेष । वहां मैंपन विशेष । यह होगा कैसे ॥३९॥
जहां सारा हीं अशेष हुआ । वहां विशेष कहां से आया। मैं मौनी कहते ही भंग हुआ । मौन्य जैसे ॥४०॥
अब मौन्य ना भग करें । करके भी कुछ ना करें । रहकर निःशेष ना रहे । विवेकबल से ॥४१॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे ब्रह्मनिरूपणनाम समास दूसरा ॥२॥

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Last Updated : December 04, 2023

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