मंत्रों का नाम - ॥ समास दूसरा - गुरुलक्षणनाम ॥

‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन इस में है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
जो करामात दिखाते । वे भी गुरु कहलाते । परंतु वे सद्गुरु नहीं होते । मोक्षदाते ॥१॥
सभामोहन भूलाना टोटके । साबरमंत्र कौटिल्य अनेक के । नाना चमत्कार कौतुक के । असंभाव्य कहते ॥२॥
बताते औषधिप्रयोग । अथवा सुवर्णधातु का मार्ग । दृष्टिबंधन से शीघ्र । अभिलाषा का ॥३॥
साहित्य संगीत रागज्ञान । गीतनृत्य तानमान । जनों को नाना वाद्यों का प्रशिक्षण । वे भी एक गुरु ॥४॥
विद्या सिखाते पंचाक्षरी । ताईत गंडे नाना प्रकार की । अथवा जिससे उदर भरण करते ऐसी । विद्या सिखाते ॥५॥
जिस जाति का जो व्यापार । सिखाते भरने को उदर । वे भी गुरु मगर साचार । सद्गुरु नहीं होते ॥६॥
अपनी माता और पिता । वे भी गुरु ही तत्त्वतः । मगर जो भवपार पहुंचाता । वे सद्गुरु निराले ही ॥७॥
गायत्री मंत्र का उच्चार । कहे सो कुलगुरु साचार । मगर ज्ञानबिन भवपार । न हो पाते ॥८॥
जो ब्रह्मज्ञान उपदेश करते । अज्ञानअंधकार निरसन करते । जीवात्मा का शिवात्मा से । ऐक्य कराते ॥९॥
विभक्त हुये देव भक्त । जीव शिव में उठा द्वैत । उन देव भक्तों में ऐक्य । कराते वह सद्गुरु ॥१०॥
भवव्याघ्र ने लगाकर छलांग । गोवत्स को किया अलग । देखते ही छुड़ाया शीघ्र । जानो वही सद्गुरु ॥११॥
प्राणी मायाजाल में फंसे । संसारदुःख से दुःखी हुये । ऐसे जिसने मुक्त किये। जानो वही सद्गुरु ॥१२॥
वासनानदी महापूर । प्राणी डूबता ग्लानि भरकर । तारे वहां छलांग लगाकर । वही जानो सद्गुरु ॥१३॥
अति संकट गर्भवास के । बेडी इच्छाबंधन के । ज्ञान देकर शीघ्र छुड़ाये । वह सद्गुरु स्वामी ॥१४॥
फोड़कर शब्दों के अंतर । दिखाये वस्तु निजसार । वही गुरु नैहर । अनाथों का ॥१५॥
जीव एकदेशी बेचारे। उन्हें प्रत्यक्ष ब्रह्म ही करे । संसार संकटों से वारे । वचनमात्र से ॥१६॥
जो वेदों का अभ्यंतर । उसे निकालकर अपत्यानुसार । शिष्य श्रवण में डाले कौर । उद्गार वचनों के ॥१७॥
वेदशास्त्र महानुभाव । देखो तो एक ही अनुभव । वही एक गुरुराव । ऐक्य रूप में ॥१८॥
संदेह का करे निःशेष दहन । स्वधर्म का आदर से प्रतिपालन । वेद विरहित मिथ्या भाषण । करना ही ना जाने ॥१९॥
जो जो मन अंगिकार करे । वह स्वयं मुक्तता से करे । वह गुरु नहीं भिखारी है । पीछे पड़ा ॥२०॥
शिष्य को न सिखाते साधन । न करवातें इंद्रियदमन । ऐसे गुरु कौड़ी के तीन । मिले तो भी त्याग दें ॥२१॥
जो कोई ज्ञान दे । इंद्रियदमन प्रतिपादन करे । अविद्या जड से नष्ट करे । उसे सद्गुरु जाने ॥२२॥
एक द्रव्य से बिका । एक शिष्य से बंधा । अति दुराशा से किया । दीन रूप ॥२३॥
जो जो शिष्य को रूचे । वैसा ही करे मन से । कामना पापिनी ऐसे । पड़ी गले में ॥२४॥
जो गुरु करे संकोच । वह अधमाधम बड़ा नीच । चोर पामर पाले लालच । द्रव्यलोभी ॥२५॥
जैसे वैद्य दुराचारी । र्स्वस्व हरणकारी । और घात करे आखरी । रोगी का ॥ २६॥
गुरु न रहे वैसे । अंतर देव का बढ़े जिससे । प्रशंसा संकोच से फंसाये । डाले बंधन में ॥२७॥
जहां शुद्ध ब्रह्मज्ञान । और स्थूल क्रिया का साधन । वही सद्गुरु निधान । दिखाये आंखों को ॥२८॥
दिखावा दिखाते आदर से । मंत्र फूंकते कर्णद्वार से । इतना ही ज्ञान पामरों के । भगवंत से रहते दूर ॥२९॥
दृढ करे तीनों चिन्ह । वे ही गुरु सुलक्षण । वहां ही जायें शरण । अत्यादर से मुमुक्षु ॥३०॥
अद्वैतनिरुपण में अगाध वक्ता । परंतु विषयों में लोलुपता । ऐसे गुरु से सार्थकता । होगी नहीं ॥३१॥
निरुपण के समय जैसे । मन में आये बोले वैसे । कृतबुद्धि का जय तो ऐसे । हुआ ही नहीं ॥३२॥
निरुपण में सामर्थ्य सिद्धि । श्रवण से दुराशा की बाधा होती । अनेक चमत्कारों से बुद्धि । बनती चंचल ॥३३॥
पूर्व ज्ञाते विरक्त भक्त । होते उनसे सादृष्यभगवंत । और सामर्थ्य भी अद्भुत । सिद्धियों के योग से ॥३४॥
ऐसा उनका सामर्थ्य । हमारा ज्ञान ही केवल व्यर्थ । ऐसे सामर्थ्य का स्वार्थ । बसे अभ्यंतर में ॥३५॥
दुराशा निःशेष टूटे । तभी भगवंत से भेंट होये । दुराशा धरते वे झूठे । शब्दज्ञाता कामिक ॥३६॥
बहुत ज्ञाता डूबे । पागल किया कामना ने । कामना की इच्छा करते ही से मर गये । बेचारे मूर्ख ॥३७॥
निःशेष कामना रहित । ऐसा वह विरला संत । समस्तों से भिन्न मत । अक्षय जिसके ॥३८॥
अक्षय धरोहर समस्तों की । मगर पकड़ छूटे ना शरीर की । जिससे राह ईश्वर की । चूक जाते ॥३९॥
सिद्धि और सामर्थ्य मिला । इनसे देह का महत्त्व बढा । आगे संकट बढा । देहबुद्धि का ॥४०॥
त्यागकर अक्षय सुख । सामर्थ्य की इच्छा करते वे मूर्ख । कामना समान दुःख । और कुछ भी नहीं ॥४१॥
ईश्वरबिना जो कामना । जिसके कारण नाना यातना । प्राप्त होता पतन । बेचारे प्राणियों को ॥४२॥
होते ही अंत शरीर का । सामर्थ्य ही निकल जाता । अंत में दूर होता भगवंत । कामना के कारण ॥४३॥
इस कारण निःकामता विचार । दृढबुद्धि का निर्धार । वही सद्गुरु तारण हार । करते भवसागर से ॥४४॥
मुख्य सद्गुरु के लक्षण । पहले चाहिये विमल ज्ञान । निश्चय का समाधान । स्वरूपस्थिति ॥४५॥
इससे भी बढकर वैराग्य प्रबल । वृत्ति उदास केवल । विशेष आचार से निर्मल । स्वधर्म प्रति ॥४६॥
इससे भी बढ़कर अध्यात्मश्रवण । हरिकथानिरुपण । जहां परमार्थविवरण । निरंतर ॥४७॥
जहां सारासार विचार । वहां होता जगदुद्धार । नवविधाभक्ति का आधार । बहुत जनों को ॥४८॥
इस कारण नवविधा भजन । जहां प्रतिष्ठित हुआ साधन । यह सद्गुरु का लक्षण । श्रोताओं पहचानें ॥४९॥
अभ्यंतर में शुद्ध ब्रह्मज्ञान । बाह्य निष्ठा का भजन । वहां बहुत भक्त जन । विश्राम पाते ॥५०॥
नहीं उपासना का आधार । वह परमार्थ निराधार । कर्मों के बिना अनाचार । भ्रष्ट होते ॥५१॥
इस कारण ज्ञान वैराग्य और भजन । स्वधर्मकर्म और साधन । कथा निरुपण श्रवण मनन । नीतिन्याय मर्यादा ॥५२॥
इनमें से एक भी न्यून । जिससे वह दिखे विलक्षण । अतः सर्व ही होता विलसन । सद्गुरु के पास ॥५३॥
वह बहुतों का पालनकर्ता । उसे बहुतों की होती चिंता । नाना साधन समर्था । सद्गुरु के पास ॥५४॥
साधन बिन परमार्थ प्रतिष्ठित । आगे जाकर होता भ्रष्ट । इस कारण दूरद्रष्टा । महानुभावः ॥५५॥
आचार उपासना छोड़ते । वे भ्रष्ट अभक्त दिखते । उनकी महती को आग लगे । कौन पूछे ॥५६॥
कर्म उपासना का अभाव । वहां उदासी का ठांव । उस संकुचित समुदाव । पर प्रपंच हंसता ॥५७॥
नीच जाति का गुरु । वह भी संकुचित विचार । ब्रह्मसभा में जैसे चोर । वैसे छिपे ॥५८॥
ब्रह्मसभा में देखा । तीर्थ न लिया जाता । अथवा प्रसाद अगर खाया । प्रायश्चित लेना पडता ॥५९॥
तीर्थ प्रसाद का त्याग किया । वहां नीचत्व दिखाई दिया । गुरु भक्ति का लोप हुआ । अचानक ॥६०॥
करे गुरु की मर्यादा रक्षण । तो तत्त्वतः क्षुब्ध होते ब्राह्मण । करे ब्राह्मण का रक्षण । गुरुक्षोभ होता ॥६१॥
ऐसा संकट दोनो तरफ । उससे होता पश्चाताप । नीच जाति को गुरुत्व । इस कारण न मिले ॥६२॥
तथापि मान ही लिया जीव ने । फिर स्वयं को ही भ्रष्ट करे । बहुत जनों को भ्रष्ट करे । यह तो दूषण ही ॥६३॥
अस्तु अब रहने दो यह विचार । स्वजाति के चाहिये गुरुवर । अन्यथा भ्रष्टाकार । अवश्य होता ॥६४॥
जो जो उत्तम गुण । वे सब सद्गुरु के लक्षण । तथापि कहूं पहचान । हो जिससे ॥६५॥
एक गुरु एक मंत्रगुरु । एक यंत्रगुरु एक तंत्रगुरु । एक उस्तादगुरु एक राजगुरु । कहते जनों में ॥६६॥
एक कुलगुरु एक माना हुआ गुरु । एक विद्यागुरु एक कुविद्या गुरु । एक असद्गुरु एक जातिगुरु । दण्डकर्ता ॥६७॥
एक मातागुरु एक पितागुरु । एक राजगुरु एक देवगुरु । एक को कहते जगद्गुरु । सकल कला ॥६८॥
ऐसे ये सत्रह गुरुवर । इनसे और भी अलग गुरुवर । सुनो उनका विचार । कहता हूं ॥६९॥
एक स्वप्नगुरु एक दीक्षागुरु । कोई कहता प्रतिमा गुरु । कोई कहता स्वयं को गुरु । मेरा मैं ही ॥७०॥
जिस जाति का जो व्यापार । उतने ही होते उनके गुरुवर । इसका अगर करें विचार । तो है उदंड ॥७१॥
अस्तु ऐसे ये उदंड गुरुवर । नाना मतों के विचार । मगर जो मोक्षदाते सद्गुरुवर । अलग ही होते सबसे ॥७२॥
नाना सद्विद्या के गुण । इस पर भी कृपालुपन । ये सद्गुरु के लक्षण । जानो श्रोतागण ॥७३॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे गुरुलक्षणनाम समास दूसरा ॥२॥

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Last Updated : December 01, 2023

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