उत्तरकाण्ड - दोहा ९१ से १००

गोस्वामी तुलसीदासजीने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास ।

ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास ॥९१ -क॥

काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत ।

धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत ॥९१ -ख॥

 

चौपाला

प्रभु अगाध सत कोटि पताला । समन कोटि सत सरिस कराला ॥

तीरथ अमित कोटि सम पावन । नाम अखिल अघ पूग नसावन ॥

हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा । सिंधु कोटि सत सम गंभीरा ॥

कामधेनु सत कोटि समाना । सकल काम दायक भगवाना ॥

सारद कोटि अमित चतुराई । बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ॥

बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता । रुद्र कोटि सत सम संहर्ता ॥

धनद कोटि सत सम धनवाना । माया कोटि प्रपंच निधाना ॥

भार धरन सत कोटि अहीसा । निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ॥

छंद

निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै ।

जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ॥

एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं ।

प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं ॥

दोहा

रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ ।

संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ ॥९२ -क॥

सोरठा

भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन ।

तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन ॥९२ -ख॥

चौपाला

सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए । हरषित खगपति पंख फुलाए ॥

नयन नीर मन अति हरषाना । श्रीरघुपति प्रताप उर आना ॥

पाछिल मोह समुझि पछिताना । ब्रह्म अनादि मनुज करि माना ॥

पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा । जानि राम सम प्रेम बढ़ावा ॥

गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई । जौं बिरंचि संकर सम होई ॥

संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता । दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता ॥

तव सरूप गारुड़ि रघुनायक । मोहि जिआयउ जन सुखदायक ॥

तव प्रसाद मम मोह नसाना । राम रहस्य अनूपम जाना ॥

दोहा

ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि ।

बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि ॥९३ -क॥

प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि ।

कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि ॥९३ -ख॥

चौपाला

तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा । सुमति सुसील सरल आचारा ॥

ग्यान बिरति बिग्यान निवासा । रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा ॥

कारन कवन देह यह पाई । तात सकल मोहि कहहु बुझाई ॥

राम चरित सर सुंदर स्वामी । पायहु कहाँ कहहु नभगामी ॥

नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं । महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं ॥

मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई । सोउ मोरें मन संसय अहई ॥

अग जग जीव नाग नर देवा । नाथ सकल जगु काल कलेवा ॥

अंड कटाह अमित लय कारी । कालु सदा दुरतिक्रम भारी ॥

सोरठा

तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन ।

मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल ॥९४ -क॥

दोहा

प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग ।

कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग ॥९४ -ख॥

चौपाला

गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा । बोलेउ उमा परम अनुरागा ॥

धन्य धन्य तव मति उरगारी । प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी ॥

सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई । बहुत जनम कै सुधि मोहि आई ॥

सब निज कथा कहउँ मैं गाई । तात सुनहु सादर मन लाई ॥

जप तप मख सम दम ब्रत दाना । बिरति बिबेक जोग बिग्याना ॥

सब कर फल रघुपति पद प्रेमा । तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा ॥

एहि तन राम भगति मैं पाई । ताते मोहि ममता अधिकाई ॥

जेहि तें कछु निज स्वारथ होई । तेहि पर ममता कर सब कोई ॥

सोरठा

पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं ।

अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित ॥९५ -क॥

पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर ।

कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ॥९५ -ख॥

चौपाला

स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा । मन क्रम बचन राम पद नेहा ॥

सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा । जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा ॥

राम बिमुख लहि बिधि सम देही । कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही ॥

राम भगति एहिं तन उर जामी । ताते मोहि परम प्रिय स्वामी ॥

तजउँ न तन निज इच्छा मरना । तन बिनु बेद भजन नहिं बरना ॥

प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा । राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा ॥

नाना जनम कर्म पुनि नाना । किए जोग जप तप मख दाना ॥

कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं । मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं ॥

देखेउँ करि सब करम गोसाई । सुखी न भयउँ अबहिं की नाई ॥

सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी । सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी ॥

दोहा

प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस ।

सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस ॥९६ -क॥

पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल ॥

नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल ॥९६ -ख॥

चौपाला

तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई । जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई ॥

सिव सेवक मन क्रम अरु बानी । आन देव निंदक अभिमानी ॥

धन मद मत्त परम बाचाला । उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला ॥

जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी । तदपि न कछु महिमा तब जानी ॥

अब जाना मैं अवध प्रभावा । निगमागम पुरान अस गावा ॥

कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई । राम परायन सो परि होई ॥

अवध प्रभाव जान तब प्रानी । जब उर बसहिं रामु धनुपानी ॥

सो कलिकाल कठिन उरगारी । पाप परायन सब नर नारी ॥

दोहा

कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ ।

दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ ॥९७ -क॥

भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म ।

सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म ॥९७ -ख॥

चौपाला

बरन धर्म नहिं आश्रम चारी । श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ॥

द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन । कोउ नहिं मान निगम अनुसासन ॥

मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा । पंडित सोइ जो गाल बजावा ॥

मिथ्यारंभ दंभ रत जोई । ता कहुँ संत कहइ सब कोई ॥

सोइ सयान जो परधन हारी । जो कर दंभ सो बड़ आचारी ॥

जौ कह झूँठ मसखरी जाना । कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना ॥

निराचार जो श्रुति पथ त्यागी । कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ॥

जाकें नख अरु जटा बिसाला । सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ॥

दोहा

असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं ।

तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ॥९८ -क॥

सोरठा

जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ ।

मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ ॥९८ -ख॥

चौपाला

नारि बिबस नर सकल गोसाई । नाचहिं नट मर्कट की नाई ॥

सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना । मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना ॥

सब नर काम लोभ रत क्रोधी । देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी ॥

गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी । भजहिं नारि पर पुरुष अभागी ॥

सौभागिनीं बिभूषन हीना । बिधवन्ह के सिंगार नबीना ॥

गुर सिष बधिर अंध का लेखा । एक न सुनइ एक नहिं देखा ॥

हरइ सिष्य धन सोक न हरई । सो गुर घोर नरक महुँ परई ॥

मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं । उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं ॥

दोहा

ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात ।

कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात ॥९९ -क॥

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि ।

जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ॥९९ -ख॥

चौपाला

पर त्रिय लंपट कपट सयाने । मोह द्रोह ममता लपटाने ॥

तेइ अभेदबादी ग्यानी नर । देखा में चरित्र कलिजुग कर ॥

आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं । जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं ॥

कल्प कल्प भरि एक एक नरका । परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ॥

जे बरनाधम तेलि कुम्हारा । स्वपच किरात कोल कलवारा ॥

नारि मुई गृह संपति नासी । मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी ॥

ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं । उभय लोक निज हाथ नसावहिं ॥

बिप्र निरच्छर लोलुप कामी । निराचार सठ बृषली स्वामी ॥

सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना । बैठि बरासन कहहिं पुराना ॥

सब नर कल्पित करहिं अचारा । जाइ न बरनि अनीति अपारा ॥

दोहा

भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग ।

करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग ॥१०० -क॥

श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक ।

तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ॥१०० -ख॥

छंद

बहु दाम सँवारहिं धाम जती । बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती ॥

तपसी धनवंत दरिद्र गृही । कलि कौतुक तात न जात कही ॥

कुलवंति निकारहिं नारि सती । गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती ॥

सुत मानहिं मातु पिता तब लौं । अबलानन दीख नहीं जब लौं ॥

ससुरारि पिआरि लगी जब तें । रिपरूप कुटुंब भए तब तें ॥

नृप पाप परायन धर्म नहीं । करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं ॥

धनवंत कुलीन मलीन अपी । द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ॥

नहिं मान पुरान न बेदहि जो । हरि सेवक संत सही कलि सो ।

कबि बृंद उदार दुनी न सुनी । गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी ॥

कलि बारहिं बार दुकाल परै । बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै ॥

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Last Updated : February 28, 2011

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