अयोध्या काण्ड - दोहा १४१ से १५०

गोस्वामी तुलसीदास जीने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

रामु लखन सीता सहित सोहत परन निकेत।
जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत ॥१४१॥

चौपाला

जोगवहिं प्रभु सिय लखनहिं कैसें । पलक बिलोचन गोलक जैसें ॥
सेवहिं लखनु सीय रघुबीरहि । जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि ॥
एहि बिधि प्रभु बन बसहिं सुखारी । खग मृग सुर तापस हितकारी ॥
कहेउँ राम बन गवनु सुहावा । सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा ॥
फिरेउ निषादु प्रभुहि पहुँचाई । सचिव सहित रथ देखेसि आई ॥
मंत्री बिकल बिलोकि निषादू । कहि न जाइ जस भयउ बिषादू ॥
राम राम सिय लखन पुकारी । परेउ धरनितल ब्याकुल भारी ॥
देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं । जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं ॥

दोहा

नहिं तृन चरहिं पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि।
ब्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजि निहारि ॥१४२॥

चौपाला

धरि धीरज तब कहइ निषादू । अब सुमंत्र परिहरहु बिषादू ॥
तुम्ह पंडित परमारथ ग्याता । धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता
बिबिध कथा कहि कहि मृदु बानी । रथ बैठारेउ बरबस आनी ॥
सोक सिथिल रथ सकइ न हाँकी । रघुबर बिरह पीर उर बाँकी ॥
चरफराहिँ मग चलहिं न घोरे । बन मृग मनहुँ आनि रथ जोरे ॥
अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें । राम बियोगि बिकल दुख तीछें ॥
जो कह रामु लखनु बैदेही । हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेही ॥
बाजि बिरह गति कहि किमि जाती । बिनु मनि फनिक बिकल जेहि भाँती ॥

दोहा

भयउ निषाद बिषादबस देखत सचिव तुरंग।
बोलि सुसेवक चारि तब दिए सारथी संग ॥१४३॥

चौपाला

गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई । बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई ॥
चले अवध लेइ रथहि निषादा । होहि छनहिं छन मगन बिषादा ॥
सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना । धिग जीवन रघुबीर बिहीना ॥
रहिहि न अंतहुँ अधम सरीरू । जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू ॥
भए अजस अघ भाजन प्राना । कवन हेतु नहिं करत पयाना ॥
अहह मंद मनु अवसर चूका । अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका ॥
मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई । मनहँ कृपन धन रासि गवाँई ॥
बिरिद बाँधि बर बीरु कहाई । चलेउ समर जनु सुभट पराई ॥

दोहा

बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति।
जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भाँति ॥१४४॥

चौपाला

जिमि कुलीन तिय साधु सयानी । पतिदेवता करम मन बानी ॥
रहै करम बस परिहरि नाहू । सचिव हृदयँ तिमि दारुन दाहु ॥
लोचन सजल डीठि भइ थोरी । सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी ॥
सूखहिं अधर लागि मुहँ लाटी । जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी ॥
बिबरन भयउ न जाइ निहारी । मारेसि मनहुँ पिता महतारी ॥
हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी । जमपुर पंथ सोच जिमि पापी ॥
बचनु न आव हृदयँ पछिताई । अवध काह मैं देखब जाई ॥
राम रहित रथ देखिहि जोई । सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई ॥

दोहा

धाइ पूँछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नर नारि।
उतरु देब मैं सबहि तब हृदयँ बज्रु बैठारि ॥१४५॥

चौपाला

पुछिहहिं दीन दुखित सब माता । कहब काह मैं तिन्हहि बिधाता ॥
पूछिहि जबहिं लखन महतारी । कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी ॥
राम जननि जब आइहि धाई । सुमिरि बच्छु जिमि धेनु लवाई ॥
पूँछत उतरु देब मैं तेही । गे बनु राम लखनु बैदेही ॥
जोइ पूँछिहि तेहि ऊतरु देबा।जाइ अवध अब यहु सुखु लेबा ॥
पूँछिहि जबहिं राउ दुख दीना । जिवनु जासु रघुनाथ अधीना ॥
देहउँ उतरु कौनु मुहु लाई । आयउँ कुसल कुअँर पहुँचाई ॥
सुनत लखन सिय राम सँदेसू । तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू ॥
दोहा

ह्रदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु ॥
जानत हौं मोहि दीन्ह बिधि यहु जातना सरीरु ॥१४६॥

चौपाला

एहि बिधि करत पंथ पछितावा । तमसा तीर तुरत रथु आवा ॥
बिदा किए करि बिनय निषादा । फिरे पायँ परि बिकल बिषादा ॥
पैठत नगर सचिव सकुचाई । जनु मारेसि गुर बाँभन गाई ॥
बैठि बिटप तर दिवसु गवाँवा । साँझ समय तब अवसरु पावा ॥
अवध प्रबेसु कीन्ह अँधिआरें । पैठ भवन रथु राखि दुआरें ॥
जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए । भूप द्वार रथु देखन आए ॥
रथु पहिचानि बिकल लखि घोरे । गरहिं गात जिमि आतप ओरे ॥
नगर नारि नर ब्याकुल कैंसें । निघटत नीर मीनगन जैंसें ॥
दोहा

सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु।
भवन भयंकरु लाग तेहि मानहुँ प्रेत निवासु ॥१४७॥

चौपाला

अति आरति सब पूँछहिं रानी । उतरु न आव बिकल भइ बानी ॥
सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा । कहहु कहाँ नृप तेहि तेहि बूझा ॥
दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई । कौसल्या गृहँ गईं लवाई ॥
जाइ सुमंत्र दीख कस राजा । अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा ॥
आसन सयन बिभूषन हीना । परेउ भूमितल निपट मलीना ॥
लेइ उसासु सोच एहि भाँती । सुरपुर तें जनु खँसेउ जजाती ॥
लेत सोच भरि छिनु छिनु छाती । जनु जरि पंख परेउ संपाती ॥
राम राम कह राम सनेही । पुनि कह राम लखन बैदेही ॥

दोहा

देखि सचिवँ जय जीव कहि कीन्हेउ दंड प्रनामु।
सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहँ रामु ॥१४८॥

चौपाला

भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई । बूड़त कछु अधार जनु पाई ॥
सहित सनेह निकट बैठारी । पूँछत राउ नयन भरि बारी ॥
राम कुसल कहु सखा सनेही । कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही ॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए । सुनत सचिव लोचन जल छाए ॥
सोक बिकल पुनि पूँछ नरेसू । कहु सिय राम लखन संदेसू ॥
राम रूप गुन सील सुभाऊ । सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ ॥
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू । सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू ॥
सो सुत बिछुरत गए न प्राना । को पापी बड़ मोहि समाना ॥

दोहा

सखा रामु सिय लखनु जहँ तहाँ मोहि पहुँचाउ।
नाहिं त चाहत चलन अब प्रान कहउँ सतिभाउ ॥१४९॥

चौपाला

पुनि पुनि पूँछत मंत्रहि राऊ । प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ ॥
करहि सखा सोइ बेगि उपाऊ । रामु लखनु सिय नयन देखाऊ ॥
सचिव धीर धरि कह मुदु बानी । महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी ॥
बीर सुधीर धुरंधर देवा । साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा ॥
जनम मरन सब दुख भोगा । हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा ॥
काल करम बस हौहिं गोसाईं । बरबस राति दिवस की नाईं ॥
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं । दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं ॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी । छाड़िअ सोच सकल हितकारी ॥

दोहा

प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरि तीर।
न्हाई रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ बीर ॥१५०॥

चौपाला

केवट कीन्हि बहुत सेवकाई । सो जामिनि सिंगरौर गवाँई ॥
होत प्रात बट छीरु मगावा । जटा मुकुट निज सीस बनावा ॥
राम सखाँ तब नाव मगाई । प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई ॥
लखन बान धनु धरे बनाई । आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई ॥
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा । बोले मधुर बचन धरि धीरा ॥
तात प्रनामु तात सन कहेहु । बार बार पद पंकज गहेहू ॥
करबि पायँ परि बिनय बहोरी । तात करिअ जनि चिंता मोरी ॥
बन मग मंगल कुसल हमारें । कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें ॥

छंद

तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं ॥
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करेहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसल धनी ॥

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Last Updated : February 26, 2011

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