मानसागरी - अध्याय २ - द्वादशभावनिरीक्षणविधि

सृष्टीचमत्काराची कारणे समजून घेण्याची जिज्ञासा तृप्त करण्यासाठी प्राचीन भारतातील बुद्धिमान ऋषीमुनी, महर्षींनी नानाविध शास्त्रे जगाला उपलब्ध करून दिली आहेत, त्यापैकीच एक ज्योतिषशास्त्र होय.

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लग्न आदिक द्वादशभावोंमेंसे जो जो भाव अपने पूर्ण बली स्वामीवाला हो अथवा स्वामीसे युक्त वा देखा जात हो अथवा शुभग्रहोंकी दृष्टिसे युक्त हो तो क्रमसे उस भावकी वृद्धि कहना चाहिये ॥१॥

रुप, वर्ण, चिह्न, जाति अवस्थाका प्रमाण, सुख,ल दुःख और साहस इन सब पदार्थोंका विचार तनुभावसे करना चाहिये ॥२॥

स्वर्णादि धातु, क्रय, विक्रय रत्नादि, कोषका संग्रह ये सब दूसरे ( धन ) भावसे विचार करना चाहिये ॥३॥

सहोदरभाईका, नौकरका और पराक्रमका विचार तीसरे ( सहज ) भावसे करना चाहिये ॥४॥

चौथे ( सुह्यत् ) भावसे मित्र, मकान, ग्राम, चौपाये जीव, क्षेत्र भूमि इन सबका विचार करना चाहिये, जो शुभग्रह बैठे होय या देखते होंय तो इन सब पदार्थोकी वृद्धि कहना और जो चौथे स्थानमें पापग्रह बैठे होंय वा देखते होंय तो इन पदार्थोंकी हानि होती है ॥५॥

बुद्धिके प्रबंध, विद्या, सन्तान, मंत्राराधन, नीति, न्याय और गर्भकी स्थिति ये सब विचार पंचम ( सुत ) भावसे करना चाहिये ॥६॥

शत्रु, व्रण ( फोडा, फुंसी, तिल, मस्सा ), क्रूरकर्म, रोग, चिंता, शंका, मातुलका शुभाशुभ विचार, ये सब छठे ( शत्रु ) भावसे विचार करना चाहिये ॥७॥

युद्ध, स्त्री, व्यापार, परदेशसे आनेका विचार ये सब सप्तम ( जाया ) भावसे विचार करना चाहिये ॥८॥

नदीके पार उतरना, रास्ता, विषमस्थान, शस्त्रप्रहार, आयुषीय समस्त संकटोंका विचार अष्टम ( रन्ध्र ) भावसे करना चाहिये ॥९॥

धर्मक्रियामें मनकी प्रवृत्ति और निर्मल स्वभाव, तीर्थयात्रा, नीति, नम्रता ये सब नवम ( भाग्य ) भावसे विचार करना चाहिये ॥१०॥

व्यापार, मुद्रा, राजमान्य और राजसंबंधी प्रयोजन, पिताके सुखदुःखका विचार, महत् पदकी प्राप्ति ये सब दशम ( पुण्य ) भावसे विचार करना चाहिये ॥११॥

हाथी, घोडा, सोना, चांदी, वस्त्र, आभूषण, रत्नोंका लाभ, पालकी, मकान इन सब चीजोंका विचार ग्यारहवें ( लाभ ) भावसे करना चाहिये ॥१२॥

हानिका विचार व दानका व व्ययका व दंड और बंधन इन सबका विचार ( व्यय ) बारहवें भावसे करना चाहिये ॥१३॥ इति द्वादशबावनिरीक्षणविधिः ॥

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Last Updated : January 22, 2014

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