शिवगीता - अध्याय ८

विविध गीतामे प्राचीन ऋषी मुनींद्वारा रचा हुवा विश्व कल्याणकारी मार्गदर्शक तत्त्वोंका संग्रह है।

Gita has the essence of Hinduism, Hindu philosophy and a guide to peaceful life and ever lasting world peace.


श्रीरामचन्द्र बोले, पंचभूतके देहकी उत्पत्ति स्थिति नाश किस प्रकारसे होता है और इसका स्वरूप क्या है, हे भगवन्‌! विस्तारपूर्वक आप मुझसे कहिये ॥१॥

श्रीभगवान बोले - पृथ्वी आदि पंचभूतसे बना हुआ यह शरीर देह है, इसमें पृथ्वी प्रधान है और दूसरे चार इसमें मिले हुए अर्थात सहकारी है ॥२॥

जरायुज, अंडज, स्वेदज और उद्भिज्ज यह पांचभौतिक देहके चार भेद है ॥३॥

और मानसिक उत्पत्ति जो कहाती है वह पांचवी है उसे दैवसर्ग कहते है, उन चारोंमें जरायुज प्रधान है, सो प्रथम उसीका वर्णन करते है ॥४॥

स्त्रीके रज पुरुषके बीजसे जरायुजकी उत्पत्ति होती है जिस समय ऋतुकालमें स्त्रीके गर्भाशयमें पुरुषका वीर्यप्रवेश होता है ॥५॥

स्त्रीका रज मिलित होता है तभी जरायुज की उत्पत्ति होती है । स्त्रीका रज अधिक होनेसे कन्या और वीर्य अधिक होनेसे पुरुषकी उत्पत्ति होती है ॥६॥

और शुक्र शोणितकी समान होने से नपुंसक होता है, जब स्त्री ऋतुस्नान कर चुके तब चौथे दिनसे सोलह रात्रितक ऋतुकालकी अवधि कही है ॥७॥

उसमें विषम दिन पांचवे सातवे नववें दिनमें स्त्री और युग्म दिनमें पुरुषकी उत्पत्ति होती है ॥८॥

जो सोलहवी रात्रिमें स्त्रीके गर्भ रहता है, तो चक्रवर्ती राजा उत्पन्न होता है इसमें संदेह नही ॥९॥

ऋतुमें स्नान करके जो स्त्री कामातुर हो जिस पुरुष का मुख देखती है, उसी आकृति का गर्भ होता है, इसी कारणसे स्त्री उस दिन स्वामी का मुख देखे ॥१०॥

स्त्रीके उदरमें एक पेशी चमडा निर्मित होता है उसे जरायु कहते है, जिस कारणसे शुक्र और शोणितका योग उसी गर्भमें होता है इसी कारणसे उसे जरायुज कहते है ॥११॥

सर्प और पक्षी आदि जीव अंडज कहलाते है, मशकादि स्वेदज कहलाते है, वृक्षगुल्मादि उद्भिज्ज कहाते है, और देवर्षि आदि मानसिक कहाते है ॥१२॥

अपने पूर्वजन्मके कर्मवशसे यह प्राणी स्त्रीके गर्भाशयमें प्राप्त होकर शुक्र शोणितके मिलनेसे प्रथममासमें शिथिल रहता है ॥१३॥

कुछ दिनोंमें उसकी बुदबुदकी आकृति होने लगती है, कुछ दिनोंमें जेरसी होती है, इस कारण उसमें दहीकी समान कुछ गाढापन आता है फिर कुछ दिन में उसकी पेशी (मांसपिंड) बनती है । इस प्रकार शुक्र शोणित संयोग होते हुए एकमास हो जाता है, दूसरे मांसमेंमांसपिंड बनता है ॥१४॥

तृतीयमासमें शिर, हाथ आदि उत्पन्न होते है, और जीवका आश्रय लिंगदेह चौथे महीनेमें उत्पन्न होता है ॥१५॥

तब यह गर्भ माताके उदरमें चलायमान होने लगता है । पुत्र दक्षिणपार्श्व और कन्या वामपार्श्वमें स्थित होती है ॥१६॥

और नपुंसक उदरके मध्यभागके स्थित होता है । इस कारण दक्षिणापार्श्वमें जन्म लेनेके अनन्तर होनेवाले श्मश्रु तथा दन्तादिको छोड़कर सब अंग प्रत्यंग के भाग ॥१७॥१८॥

एक साथ चौथे मासमें हो जाते है, पुरुषोंके गंभीरता स्थिरादि धर्म और स्त्रियों के चञ्चलतादि धर्म चौथेमासमें उत्पन्न हो जाते है जो सूक्ष्मरूपसे रहते है ॥१९॥

और नपुंसक गर्भके स्त्री पुरुषोंके मिले हुए धर्म गर्भमें उत्पन्न होते है और माताके ह्रदयमें सन्निकटही इसका ह्रदय होकर जिस वस्तुकी माता इच्छा करती है उसी वस्तुकी यह इच्छा करता है इस कारण गर्भकी वृद्धिके निमित्त माताकी इच्छा पूर्ण करनी चाहिये और इसीसे गर्भवती स्त्रीको दोहदवती अर्थात दो ह्रदयवाली कहते है ॥२०॥२१॥

और उसकी इच्छा पूर्ण न होने से गर्भमें निर्बलता, बुद्धिहीनता व्यंगतादि दोष हो जाते है । और माताका जिन विषयोंमें चित्त होता है उन विषयोमें ही आर्त वह पुरुष होता है, इसलिये गर्भिणीकी इच्छा पूर्ण करे ॥२२॥

पांचवे महीनेसे चित्त बढ़ता है तथा मांस और रक्तकी पुष्टि होती है, छठे महीनेमें, अस्थि स्नायु और नख मस्तकके केश तथा शरीरके लोभ प्रगट होते है ॥२३॥

सातवें मासमें बल शरीरका वर्ण तथा सब अवयवोंकी पूर्णता होती है और वह गर्भका बालक घुटनोंमें कोनी धर हाथोंसे कान ढक ॥२४॥

और गर्भवाससे व्याकुल होकर भयभीत हुआसा स्थित होता है ॥२५॥

उस समय इसको अनेक जन्मो की सुधि हो जाती है तब बड़ा दुःखी होता है और हा! कष्टकी बात है ऐसे कहता हुआ दुःखी होता है अपने आत्माको शोचता है ॥२६॥

वह असह्य और मर्मभेदी यातना को प्राप्त होकर बारंबार कष्ट पाता है जिस प्रकार से तपायें रेतमें उसीको डाल दो उसको जो वेदना होती है ऐसी वेदनाको वह प्राप्त होता है और दुःख भोगता है ॥२७॥

गर्भवासके दुःख यह है प्रथम गर्भवासकी अग्निसे (जो जठराग्नि कहाती है) सन्तप्त होकर कहता है कि यह ज्वाला मुझको अत्यन्त पीडित करती है ॥२८॥

इसी प्रकार उदरके की़ए जब काटते है तो विदित होता है कि इनके मुख कूटशाल्मलिके काटेकी समान तीक्ष्ण है और यह मुझको अत्यन्त पीड़ित करते है ॥२९॥

गर्भकी बड़ी भारी दुर्गन्ध और जठराग्निकी ज्वालासे जो मुझको दुःख प्राप्त हुआ है, उससे कुम्भीपाक नरकका दुःख कम है ॥३०॥

मवाद, रक्त, कफ, अमंगल, पदार्थही पान करने और वांति भक्षण करने को मिलती है, अशुचि पदार्थ मल मुत्रादिमें रहनेसे गर्भमे स्थित प्राणी कीड़ाही हो जाता है ॥३१॥

जो दुःख गर्भशय्यामें सोकर मैने पाया है यह दुःख सम्पूर्ण नरकोंमें भी पडकर प्राप्त नही होता ॥३२॥

इस प्रकार से पूर्वकालमें प्राप्त हुई अनेक प्रकारकी यातनाओंको स्मरण करता हुआ मुक्त होनेका उपाय सोचता यही अभ्यास करता रहता है ॥३३॥

आठवे महीनेमे त्वचा और श्रुति प्राप्त होती है । इसी प्रकार ओज इन्द्रियशक्ति और तेज शरीरके आरम्भ करनेहारे तथा धातुपरिणामसे होनेहारे ह्रदयके तेज जो जीवनके मुख्य कारण है वह प्राप्त होते है ॥३४॥

कुछ समयतक अतिशय चंचल होनेके कारण किसी समय माताके ह्रदयमें चंचलरूपसे रहता है, कभी गर्भाशयमें चपलता को प्राप्त हो जाता है । इसी कारण अष्टम मासमें उत्पन्न हुआ बालक बहुध नही जीता कारण कि वह ओज और तेजसे हीन होता है ॥३५॥

फिर नौवें मासमें प्रसूतिका समय होता है परन्तु शीघ्र प्रसव होनेका प्रतिबंधक यह है कि, जो कुछ गर्भके प्रारब्ध कर्म हुए तो उसे और कुछ कालतक गर्भमें रहना पड़ता है ॥३६॥

माताकी एक रक्तवाहिनी नाडी नाबिचक्रकी एक नाड़ीसे मिली हुई है, उसीके द्वारा माताका भक्षण किया अन्न गर्भमें पहुँचता है, इस प्रकार माताके आहारसे पुष्टिको प्राप्त हो यह गर्भ उसीके द्वारा जीवित रहता है ॥३७॥

योनिचक्रमें इसके सम्पूर्ण अंग अस्थियोंसे पिचकर व्यधित होते है, तब यह प्रथम कुक्षिसे निकलकर योनिए बाहर आता है, उस समय उसका शरीर मेदा रुधिर से लिप्त और जरायुसे आच्छादित रहता है ॥३८॥

यह प्राणी अत्यन्त दुःख से पीड़ित हो नीचेको मुखकर जैसेही योनिचक्रसे निकलता है वैसेही ऊंचे स्वरसे रोता है, इस प्रकार गर्भवास के यन्त्रसे निकलकर दुःखही भोगता है, कही सुख नही मिलता ॥३९॥

जन्म लेकर यह कुछ भी नही कर सकता, केवल मांसके पिंडकी समान पड़ा रहता है, तब इसके मातापिता दंड हाथमे लिये कुत्ते बिलाव तथा डाढवाले जन्तुओंसे इसकी रक्षा करते है ॥४०॥

उस समय यह ज्ञानशून्यही पिताकी ही समान राक्षसोको भी जानता है, पीनेको दुग्ध जानकर पीनेकी अभिलाषा करता है, तात्पर्य यह है कि बाल अवस्थाभी महाकष्टकारक है ॥४१॥

जबतक सुषुम्ना नाडी कफसे आच्छादित रहती है तबतक स्फुट अक्षर और वचन बोलनेको वह समर्थ नही होता ॥४२॥

इसी कारणसे यह गर्भमेभी नही रो सकता ॥४३॥

पीछे युवा अवस्थाके आनेसे कामदेवके ज्वरसे विह्वलहो अकस्मात ही कभी कुछ गाता है कभी अपना पराक्रम कहने लगता है ॥४४॥

कभी अभिमानसे वृक्षों पर चढता, कभी शान्त प्राणियोंको उद्वेजित करता, कभी काम क्रोधके मदसे अन्धा हो किसीको भी नही देखता ॥४५॥

अस्थि मांस और नाडी इनके सिवाय स्त्रीके मन्मथ स्थानमें और क्या है जिसमें कि मेंढकके फाड़े हुए पेटकी समान दुर्गन्ध आती है परन्तु तथापि उसमें आसक्त हुआ कामबाण से पीड़ित हो अपने आत्मा को अत्यंत जलाता है ॥४६॥

अस्थि मांस शिरा और त्वचा इसके सिवाय स्त्री के शरीर में और क्या है जो यह पुरुष स्त्रियोंमें आसक्त होकर मायसे मूढ होनेके कारण जगत् में कुछ भी नही देखता ॥४७॥

एक समय प्राणपवन निर्गत हो जाने से भी मृगकेसे नेत्रवालीका यह देह व्यर्थता को प्राप्त होता है और पांच छः दिन बीतनेपर फिर वह देह दीखता भी नही ॥४८॥

इस प्रकार युवाअवस्थामें दुःख भोगने उपरांत वृद्धावस्थाका दुःख प्रारंभ होता है तब यह महानिरादरके स्थान जराको प्राप्त होकर महादुःखी होता है, इसका ह्रदय कफसे व्याप्त हो जाता है और खाया हुआ अन्नभी जीर्ण नही होता ॥४९॥

दांत गिर पडते है, दृष्टि मंद हो जाती है, तथा अनेक प्रकारके रोग होनेके कारण कटु तिक्त कषाय औषधियोंका सेवन करता है वायुसे कमर टेढी हो जाती है, कटि गर्दन हाथ जंघा चरण यह निर्बल हो जाते है ॥५०॥

तब सहस्त्रों रोग इसके शरीरमें लिपट जाते है बंधु तिरस्कार करते है (दोहा-सींग झडे और खुर घिसे, पीठ बोझ नहि लेय । ऐसे बूढे बैलको, कौन बांध भुस देय) तब यह पवित्रतारहित ही मलसे व्याप्त शरीर होनेके कारण नखशिखपर्यन्त सब शरीरोंसे सन्तप्त होता है ॥५१॥

तथापि ईश्वरका ध्यान नही करता और शय्या श्रेष्ठ भोजन आदि दुर्लभ भोगोंका ध्यान करता हुआ स्थित होता है इसके हाथ पैर कांपने लगते है, सब इन्द्रियोंकी शक्ति कुंठित हो जाती है और कोई सामर्थ्य न रहनेके कारण बालक भी इसकी हँसी करते है ॥५२॥

फिर इसके आगे मरणकालके दुःखका तो कोई दृष्टान्त ही नही, दरिद्रादि पीडा रोगादि पीड़ा कितनी ही प्राप्त हो उसको कुछ न गिनकर एक मरणके भयसे सबही भयभीत होते है ॥५३॥

बंधुओंसे घिरे हुए प्राणी को मृत्यु ले जाती है जिस प्रकार समुद्रमें प्राप्त हुए सर्पको गरुड ले जाता है ॥५४॥

हा प्रिये! हा धन! हा पुत्रो! इस प्रकार दारुण विलाप करते हुए इस पुरुषको मृत्यु इस प्रकार ले जाता है जैसे सर्प मेंढकको ले जाता है ॥५५॥

सम्पूर्ण मर्मस्थानोंके टूटने और शरीरके अवयवोंकी संधियों भग्न होनेसे जो दुःख मरनेवाले को होता है वह मुमुक्षुओंको स्मरण करना चाहिये, इसके स्मरण करने से संसारसे वैराग्य होकर आवागमनसे छूटनेके निमित्त नारायणके चरणोमें ध्यान लगेगा ॥५६॥

यमदूतोंके दृष्टि आकर्षण करने और चेतना लुप्त हो जाने से कालपाशमें बन्धेका कोई रक्षक नही होता ॥५७॥

तब यह अज्ञानसे युक्त हो महत् चित्तमे प्रवेश होने से नही बोलता और जब भार्या पुत्रदि जातिके लोग पुकारते है तो उत्तर न देकर दीन नेत्रोंसे देखने लगता है ॥५८॥

तब इस जीवको लोहनिर्मित कालपाशसे यमदूत खैचते है एक ओरसे बंधुओंका स्नेह खेचता है तब यह कुछ नही कर सकता, तटस्थरूपसे देखता है ॥५९॥

हिचकी बढने और श्वास रुकने तथा तालुके सूखने से उस मृत्युके पकड़े हुएका कोई आश्रय नही होता ॥६०॥

संसाररूपी चक्रमें आरूढ हुआ यमदूतोंसे घिरा कालफांसीमें बंधा महादुःखी हो मै कहा जाऊँ इस प्रकारसे वह जीव विचार करता है ॥६१॥

क्या करूं, कहां जाऊ, क्या ग्रहण करूं, क्या त्याग दूँ इस प्रकार चिन्तन करता कर्तव्यतासे मूढ हो शीघ्रही प्राणोंको त्यागता है ॥६२॥

मार्ग में यमदूतोंसे घसीटा हुआ यातनाकी देहमें प्राप्त होकर यहांसे जाकर जिन जिन यमयातनाओंका दुःख भोगता है उन्हे कहने को कौन समर्थ है ॥६३॥

जिस शरीरको केशर कस्तूरी चन्दन कपूर आदि लगाकर सदा भूषित किया था जिसे अनेक गहनोंसे शोभित और वस्त्रोंसे आच्छादित किया था ॥६४॥

वह शरीर प्राणवायुके निर्गत होतेही छूनेके अयोग्य और देखनेको भी अयोग्य हो जाता है फिर कोई इसको क्षणमात्र न रखकर घरसे निकालने लगते है ॥६५॥

तब यह शरीर काष्ठसे जलाकर क्षणमात्रमें भस्म कर दिया जाता है (फूलबोझ जिन शिर न संभारे, तिनके अंग काठ बहु डारे ! शिरपीडा जिनकी नहिं हेरी, करत कपाल क्रिया तिनकेरी) अथवा श्रृगाल गृध्र कुत्ते कौए इसको खाजाते है फिर यह करोडों जन्मतकभी दृष्टिगोचर नही होता है ॥६६॥

जादूगरके समान उत्पन्न जादूसरीके इस जगतमे मेरी माता मेरा पिता मेरे गुरुजन मेरे स्वजन ऐसी कौन प्रतिज्ञा करता है? जीव केवल कर्मोको ही लेकर परलोक में जाता है, जैसे मार्गमें पथिकोंके विश्रामके लिये छायाका कोई वृक्ष आ जाता है, ऐसा ही यह मृत्युलोक है ॥६७॥

जिस प्रकारसे पक्षी संध्याकालमें वृक्षपर आकर बसेरा लेते है और प्रातःकाल उठकर एक दूसरे को त्याग अपने अभिलषित देशों मे चले जाते है इसी प्रकारसे जाति अजातिके पुरुषोंका समागम है, कर्मानुसार अपने कुटुम्बादिमें जन्म लेकर स्थित होते है, कर्म समाप्त होते ही अपनी गति को प्राप्त होते है । इससे मनुष्यको उचित है कि, प्राणियोंके समागमको पथिक समाजके समान जाने, यथा (या दुनियामें आयके, छांड देइ तू ऐठ । लेना है सो लेइले, उठी जात है पैठ ) ॥६८॥

मृत्युके बीजसे जन्म और जन्मके बीजसे मृत्यु होती है अर्थात जो उत्पन्न हुआ है उसका अवश्य नाश होगा और नाश हुआ अवश्य जन्म लेगा, यह प्राणी इसी प्रकार घटीयन्त्रकी समान निरंतर भ्रमण करता रहता है ॥६९॥

हे रामचन्द्र! गर्भके वीर्यके प्राप्त होनेसे इस प्रकारसे प्राणीका जन्म और मृत्यु होती है यह महाव्याधि है, जीवन मरण दोनों मेंही महादुःख होता है, इस व्याधि को दूर करनेके निमित्त मेरे सिवाय दूसरी औषधि नही (नान्यपंथाः विद्यते अयनायेति श्रुतेः) इस कारण मेरा भजन करना योग्य है ॥७०॥

इति श्रीपद्मपुराणे शिवगीतासूपनिषत्सु० शिवराघवसंवादे पिण्डोत्पत्तिकथनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥८॥

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Last Updated : October 15, 2010

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