व्रत परिचय तथा नियम

व्रत हिंदू संस्कृति एवं धर्मके प्राण है;व्रतोंपर वेद, धर्मशास्त्रों, पुराणों तथा वेदाङ्गोंमें बहुत कहा गया है ।


व्रत-परिचय

व्रतोंसे अनेक अंशोंमें प्राणिमात्रका और विशेषकर मनुष्योंका बड़ा भारी उपकार होता है । तत्त्वदर्श महर्षियोंने इनमें विज्ञानके सैकड़ों अंश संयुक्त कर दिये है । यद्यपि रोग भी पाप है और ऐसे पाप व्रतोंसे दूर होते ही हैं, तथापि कायिक, वाचिक, मानसिक और संसर्गजनित पाप, उपपाप और महापापादि भी व्रतोंसे दूर होते है । उनके समूल नाशका प्रत्यक्ष प्रमाण यही है कि व्रतारम्भके पहले पापयुक्त प्राणियोंका मुख हतप्रभ रहता है और व्रतकी समाप्ति होते ही वह सूर्योदयके कमलकी तरह खिल जाता है । भारतमें व्रतोका सर्वव्यापी प्रचार है । सभी श्रेणीके नर-नारी सूर्य-सोम-भौमादिके एकभुक्तसाध्य व्रतसे लेकर एकाधिक कई दिनोंतकके अन्नपानादिवर्जित कष्टसाध्य व्रतोंको बड़ी श्रद्धासे करते हैं । इनके फल और महत्त्व भी प्रायः सर्वज्ञात हैं । फिर भी यह सूचित कर देना अत्युक्ति न होगा कि 'मनुष्योंके कल्याणके लिये व्रत स्वर्गके सोपान अथवा संसार-सागरसे तार देनेवाली प्रत्यक्ष नौका है । व्रतोंके प्रभावसे मनुष्योंकि आत्मा शुद्ध होती है । संकल्पशक्ति बढ़ती है । बुद्धि, विचार, चतुराई या ज्ञानतन्तु विकसित होते है । शरीरके अन्तस्तलमें परमात्माके प्रति भक्ति, श्रद्धा और तल्लीनताका संचार होता है । व्यापार-व्यवसाय, कला-कौशल, शास्त्रानुसंधान और व्यवहार-कुशलताका सफल सम्पादन उत्साहपूर्वक किया जाता है और सुखमय दीर्घ जीवनके आरोग्य साधनोंका स्वतः संचय हो जाता है

व्रतों के लिये उपयुक्त विधि-विधान
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मनुष्योंके हितके लिये तपोधन महर्षियोने अनेक साधन नियत किये है, उनमें एक साधन व्रत भी है ।
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'निरुक्त' में व्रतको कर्म सूचित किया है और 'श्रीदत्त'ने अभीष्ट कर्ममें प्रवृत्त होनेके संकल्पको व्रत बतलाया है । इनके सिवा अन्य आचार्योंने पुण्यप्राप्तिके लिये किसी पुण्य तिथिमें उपवास करने या किसी उपवासके कर्मानुष्ठानद्वारा पुण्य संचय करनेके संकल्पको व्रत सूचित किया है ।
३.
वेदोक्तेन प्रकारेण कृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः ।
शरीरशोषणं यत् तत् तप इत्युच्यते बुधैः ॥

सरल भावार्थ - मनुष्य-जीवनको सफल करनेके कामोंमें व्रतकी बड़ी महिमा मानी गयी है । और उपवासके नियम-पालनसे शरिरको तपाना ही तप है।
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लोकप्रसिद्धिमें व्रत और उपवास दो हैं और ये कायिक, वाचिक, मानसिक, नित्य, नैमित्तिक, काम्य, एकभुक्त, अयाचित, मितभुक् चान्द्रायण और प्राजापत्यके रूपमें किये जाते हैं ।
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वास्तवमें व्रत और उपवास दोनो एक है, अन्तर यह है कि व्रतमें भोजन किया जा सकता है और उपवासमें निराहार रहना पड़ता है ।
इनके कायिकादि तीन भेद है - १. शस्त्राघात, मर्माघात और कार्यहानि आदिजनित हिंसाके त्यागसे 'कायिक, २. सत्य बोलने और प्राणिमात्रमें निर्वैर रहनेसे 'वाचिक' और ३. मनको शान्त रखनेकी दृढ़तासे 'मानसिक' व्रत होता है ।
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पुण्यसंचयके एकादशी आदि 'नित्य' व्रत, पापक्षयके चान्द्रायणादि 'नैमित्तिक' व्रत और सुख-सौभाग्यादिके वटसावित्री आदि 'काम्य' व्रत माने गये हैं । इनमे द्रव्यविशेषके भोजन और पूजनादिकी साधनाके द्वारा साध्य व्रत 'प्रवृत्तिरूप' होते है और केवल उपवासदि करनेके द्वारा साध्य व्रत 'निवृत्तरूप' है । इनका यथोचित उपयोग फल देता है ।
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एकभुक्त व्रतके - स्वतन्त्र, अन्याङ्ग और प्रतिनिधि तीन भेद हैं ।
१. दिनार्ध व्यतीत होनेपर 'स्वतन्त्र' एकभुक्त होता है,
२. मध्याह्नमे 'अन्याङ्ग' किया जाता है और
३. 'प्रतिनिधि' आगे-पीछे भी हो सकता है ।
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'नक्तव्रत' रातमें किया जाता है । उसमें यह विशेषता है कि गृहस्थ रात्रि होनेपर उस व्रतकों करें और संन्यासी तथा विधवा सूर्य रहते हुए ।
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'अयाचित व्रत' में बिना मांगे जो कुछ मिले उसीको निषेध काल बचाकर दिन या रातमें जब अवसर हो तभी (केवल एक बार) भोजन करे और 'मितभुक्‌ में प्रतिदिन दस ग्रास ( या एक नियत प्रमाणका) भोजन करे । अयाचित और मितभुक् दोनों व्रत परम सिद्धि देनेवाले है ।
१०.
चन्द्रकी प्रसन्नता, चन्द्रलोककी प्राप्ति अथवा पापादिकी निवृत्तिके लिये 'चान्द्रायण' व्रत किया जाता है । यह चन्द्रकलाके समान बढ़ता है और घटता है । जैसे शुक्लपक्षकी प्रतिपदाको एक, द्वितीयाको दो और तृतीयाको तीन, इस क्रमसे बढ़ाकर पूर्णिमाको पन्द्रह ग्रास भोजन करे । फिर कृष्णपक्षकी प्रतिपदाओ चौदह, द्वितीयाको तेरह और तृतीयाको बारहके उत्क्रमसे घटाकर चतुर्दशीको एक और अमावास्याको निराहार रहनेसे एक चान्द्रायण होता है । यह 'यवमध्य' चान्द्रायण है । ( क्योंकि जैसे जौ आदि-अन्तमें पतला और मध्यमें मोटा होता है, उसी प्रकार एक ग्राससे आरम्भ कर पंद्रह ग्रास बीचमें कर पुनः घटाते हुए एक ग्रासपर समाप्त होता है । यवमध्य चान्द्रायण बराबर किसी मासकी शुक्ल प्रतिपदासे ही शुरू किया जाता है ।)
इसका दूसरा प्रकार है-
११.
शुक्लपक्षकी प्रतिपदाको चौदह, द्वितीयाको तेरह और तृतीयाको बारहके उत्क्रमसे घटाकर पूर्णिमाको एकौर कृष्णपक्षकी प्रतिपदाको एक द्वितीयाको दो और तृतीयाको तीनके क्रमसे बढ़ाकर चतुर्दशीको चौदह ग्रास भोजन करे और अमावास्याको निराहार रहे । यह दूसरा चान्द्रायण है । इसके 'पिपिलिकातनु' चान्द्रायण कहते है ।
१२.
प्राजापत्य बारह दिनोंमें होता है । उसमें व्रतारम्भके पहले तीन दिनोंमे प्रतिदिन बाईस ग्रास भोजन करे । फिर तीन दिनतक प्रतिदिन छब्बीस ग्रास भोजन करे । उसके बाद तीन दिन आपाचित (पूर्ण पकाया हुआ) अन्न चौबीस ग्रास भोजन करे और फिर तीन दिन सर्वथा निराहार रहे । इस प्रकार बारह दिनमें एक 'प्राजापत्य' होता है । ग्रासका प्रमाण जितना मुहमें आ सके, उतना है ।
१३.
उपर्युक्त व्रत मास, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण समय और देवपूजासे सहयोग रखते है । यहा-वैशाख, भाद्रपद, कार्तिक और माघके 'मास' व्रत । शुक्ल और कृष्णके 'पक्ष' व्रत । चतुर्थी, एकादशी और अमावास्या आदिकें 'तिथि' व्रत । सूर्य, सोम और भौमादिके 'वार' व्रत । श्रवण, अनुराधा और रोहिणी आदिके 'नक्षत्र' व्रत । व्यतीपातादिके 'योग' व्रत । भद्रा आदिके 'करण' व्रत और गणेश, विष्णु आदिके 'देव' व्रत स्वतन्त्र व्रत है ।
१४.
बुधाष्टमी- सोम, भौम, शनि, त्रयोदशी और भानुसप्तमी आदि 'तिथि-वार' के, चैत्र शुक्ल नवमि भौम, पुष्य मेषार्क और मध्याह्नकी 'रामनवमी' तथा भाद्रपद कृष्णपक्ष अष्टमी बुधवार रोहिणी सिंहार्क और अर्धरात्रिकी 'कृष्णजन्माष्टमी' आदिके सामूहिक व्रत है । कुछ व्रत ऐसे है, जिनमें उपर्युक्त तिथि-वारादिके विभिन्न सहयोग यदा-कदा प्राप्त होते है ।

तिथ्यादिका निर्णय
१५.
उदयस्तथा तिथिर्या हि न भवेद् दिनमध्यगा ।
सा खण्डा न व्रतानां स्यादारम्भश्च समापनम् ॥
(हेमाद्रि व्रतखण्ड सत्यव्रत)
खखण्डव्यापिमार्तण्डा यद्यखण्डा भवेत् तिथिः ।
व्रतप्रारम्भनं तस्यामनस्तगुरुशुक्रयुक ॥
(हेमाद्रि वृद्ध वसिष्ठ)
कर्मणो यस्य यः कालस्तत्कालव्यापिनी तिथिः ।
तया कर्माणि कुर्वीत ह्रासवृद्धी न कारणम् ॥
(वृद्ध याज्ञवल्क्य)
सरल भावार्थ - सूर्योदयकी तिथि यदि दोपहरतक न रहे तो वह 'खण्डा' होती है, उसमें व्रतका आरम्भ और समाप्ति दोनों वर्जित
है और सूर्योदयसे सूर्यास्तपर्यंत रहनेवाली तिथि 'अखण्डा' होती है । यदि गुरु और शुक्र अस्त न हुए हों तो उसमें व्रतका
आरम्भ अच्छा है । जिस व्रतसम्बन्धी कर्मके लिये शास्त्रोंमें जो समय नियत है, उस समय यदि व्रतकी तिथि मौजूद हो तो
उसी दिन उस तिथिके द्वारा व्रतसम्बन्धी कार्य ठीक समयपर करना चाहिये । तिथिका क्षय और वृद्धि व्रतका निश्चय करनेमें
कारण नहीं है ।
१६.
या तिथिऋक्षसंयुक्ता या च योगेन नारद ।
मुहूर्त्तत्रयमात्रापि सापि सर्वा प्रशस्यते ॥
(गोभिल)
पारणे मरणे नृणां तिथिस्तात्कालिकी स्मृता ॥ (नारदीय)
यां तिथिम समनुप्राप्य उदयं याति भास्करः ।
सा तिथिः सकला ज्ञेया स्नानदानजपादिषु ॥ (देवल)
पूर्वाह्णो वै देवानां मध्याह्नो मनुष्याणामपराह्णः पितृणाम् ॥
(श्रुति)
सरल भावार्थ - जो तिथि व्रतके लिये आवश्यक नक्षत्र और योगसे युक्त हो, वह यदि तीन मुहूर्त हो तो वह भी श्रेष्ठ होती है ।
जन्म और मरणमें तथा व्रतादिकी पारणामें तात्कालिक तिथि ग्राह्य है; किंतु बहुत-से व्रतोंकी पारणामें विशेष निर्णय किया जाता
है, वह यथास्थान दिया है । जिस तितिमें सूर्य उदय या अस्त हो, वह तिथि स्नान-दान जपादिमें सम्पूर्ण उपयोगी होती है ।
पूर्वाह्ण देवोंका, मध्याह्न मनुष्योंका और अपराह्ण पितरोंका समय है । जिसका जो समय हो, उसका पूजनादि कर्म उसी समयमें
करना चाहिये ।
१८.
पूर्वाह्णः प्रथमं सार्धं मध्याह्नः प्रहरं तथा ।
आतृतीयादपराह्णः सायाह्नश्च ततः परम् ॥
(गोभिल)
सरल भावार्थ - आजके सूर्योदयसे कलके सूर्योदयतक एक दिन होता है । उसके दिन और रात्रि दो भाग है । पहले भाग (दिन)
में प्रातःसंध्या और मध्याह्नसंध्या तथा दूसरे बाग (रात्रि) में सायाह्न और निशीथ है । इनके अतिरिक्त पूर्वाह्ण, मध्याह्न, अपराह्ण
और सायाह्नरूपमें चार भाग माने है । व्यासजीने दिनभरकें पाँच भाग निश्चित किये है
१९. सूर्योदयसे तीन-तीन मुहूर्त्तके प्रातःकाल, संगव, मध्याह्न, अपराह्ण और सायाह्न- ये पाँच भाग है । त्रिशद्‌घटी प्रमाणके दिनमानका पंद्रहवा हिस्सा एक मुहूर्त होता है । यदि दिनमान ३४ घड़िके हों, तो सवा दो और २६ के हों, तो पौने दोका मुहूर्त्त होता है । निर्णयमें मुहूर्त्त और उपर्युक्त दिनविभाग आवश्यक होते है ।
२०. प्रदोषोऽस्तमयादूर्ध्वं घटिकाद्वयमिष्यते । (तिथ्यादि तत्त्वम्)
पूर्वाह्णो दैविकः कालो मध्याह्नश्चापि मानुषः ।
अपराह्णः पितृणां तु सायाहो राक्षसः स्मृतः ॥
(व्यास)
सरल भावार्थ - प्रदोषकाल सूर्यास्तके बाद दो घड़ीतक माना गया है और उषःकाल सूर्योदयसे पहले रहता है । दिनमें पूर्वाह्ण देवोंका, मध्याह्न मनुष्योंका, अपराह्ण पितरोंका और सायाह्न राक्षसोंका समय है । अतः यथायोग्य कालमें दानादि देनेसे यथोचित फल मिलता है ।
२१. निजवर्णाश्रमाचारनिरतः शुद्धमानसः ।
अलुब्ध सत्यवादी च सर्वभूतहिते रतः ॥
सरल भावार्थ - व्रतके अधिकारी कौन है? इस विषयमें धर्मशास्त्रोंकी आज्ञा है कि जो अपने वर्णाश्रमके आचार-विचारमें रत रहते
हों, निष्कपट, निर्लोभ, सत्यवादी, सम्पूर्ण प्राणियोंका हित चाहनेवाले, वेदक अनुयायी, बुद्धिमान तथा पहलेसे निश्चय करके यथावत कर्म करनेवाले हो ऐसे मनुष्य व्रताधिकारी होते है ।
२२. पूर्वं निश्च्यमाश्रित्य यथावत्कर्मकारकः ।
अवेदनिन्दको धीमानधिकारी व्रतादिषु ॥
(स्कन्दपुराण)
नस्ति स्त्रीणां पृथग् यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम् ।
भर्तृशुश्रूषयैवैता लोकानिष्टान् व्रजन्ति हि ॥
(स्कन्दपुराण)
पत्नी पत्युरज्ञाता व्रतादिष्वधिकारिणी । (व्यास)
सरल भावार्थ - उपर्युक्त गुणसम्पन्न ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र, स्त्री और पुरुष सभी अधिकारी है । केवल सौभाग्यवती स्त्रियोंके लिये यह लिखा है कि पतिकी सेवाके सिवा उनके लिये न कोई यज्ञ है, न व्रत है और न उपासना है । वे पतिकी सेवासे ही स्वर्गादि अभीष्ट लोकोंमे जा सकती है । फिर भी वे चाहें तो पतिकी अनुमतिसे करें; क्योंकि पत्नी पतिकी आज्ञा माननेवाली होती है । अतः उसके लिये पतिका व्रत ही कल्याणकारी है । अस्त, शास्त्रकारोंकी व्रतादिके विषयमें यह आज्ञा है कि उनका आरम्भ श्रेष्ठ समयमें किया जाय ।
२३. अस्तगे च गुरौ शुक्रे बाले वृद्धे मलिम्लुचे ।
उद्यापनमुपारम्भं व्रतानां नैव कारयेत ॥
(गार्ग्य)
सोमशुक्रगुरुसौम्यवासराः सर्वकर्मसु भवन्ति सिद्धिद्धाः । (रत्नमाला)
हस्तमैत्रमृगपुष्यत्र्युत्तरा अश्विपौष्णशुभयोगसौख्यदाः। (मुक्तकसंग्रह)
सरल भावार्थ - बृहस्पति और शुक्रका अस्त तथा अस्त होनेके पहलेके तीन दिन वृद्धत्वके और उदय होनेके बाद तीन दिन बालत्वके व्रतारम्भमें वर्जित है । ऐसे अवसरमें व्रतादिका आरम्भ और उत्सर्ग नहीं करना चाहिये । इनके सिवा भद्रादि कुयोग और मलमासादि भी त्याज्य है । किसी भी व्रतके आरम्भमें सोम, शुक्र, बृहस्पति और बुधवार हो तो सब कामोंमे सफलता प्राप्त कराते है और इनके साथ अश्विनी, मृगशिरा, पुष्य, हस्त, तीनो उत्तरा, अनुराधा और रेवती नक्षत्र, प्रीति, सिद्धि, साध्य, शूभ, शोभन और आयुष्मान योग हों तो सब प्रकारका सुख देते है ।
२४. अभुक्त्वा प्रातराहारं स्नात्वाऽऽचम्य समाहितः ।
सूर्याय देवताभ्यश्च निवेद्य व्रतमाचरेत् ॥
(देवल)
सरल भावार्थ - व्रत करनेवला व्रतके आरम्भके पहले दिन मुण्डन कराये और शौच-स्नानादि नित्यकृत्यसे निवृत्त होकर आगामी दिनमें जो व्रत किया जाय, उसके उपयोगी व्यवस्था करे । मध्याह्नमें एकभुक्त व्रत करके रात्रिमें सोत्साह शयन करे । दूसरे दिन उषःकालमें (सूर्योदयसे दो मुहूर्त्त पहले) उठकर शौच-स्नानादि करके प्रातःकालका भोजन बना किये ही सूर्य और व्रतके देवताको अपनी अभिलाषा निवेदन करके व्रतका आरम्भ करे ।
२५. व्रतारम्भे मातृपूजांनान्दीश्राद्धं च कारयेत । (शातातप)
स्नात्वा व्रतवता सर्वव्रतेषु व्रतमूर्तयः ।
पूज्याः सुवर्णमय्याद्या दानं दद्याद् द्विजानपि ॥
(पृथ्वीचन्द्रोदय)
कुर्यादुद्यापनं चैव समाप्तौ यदुदीरितम् ।
उद्यापनं विना यत्तु तद्गतं निष्फलं भवेत् ॥
(नन्दिपुराण)
सरल भावार्थ - आरम्भमें गणपति, मातृका और पञ्चदेवका पूजन करके नान्दीश्राद्ध करे और व्रत-देवताकी सुवर्णमयी मूर्ति बनवाकर उसका पञ्चोपचार, देशोपचार या षोडशोपचार पूजन करे । मास, पक्ष, तिथि, वार और नक्षत्रादिमें जिसका व्रत हो उसका अधिष्ठाता ही 'व्रतका देवता' होता है । अतः प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीयादिके यथाक्रम अग्नि, ब्रह्मा, गौरी आदि और अश्विनी, भरणी, कृत्तिकादिके नासत्य (अश्विनीकुमार), यम और अग्नि आदि तथा वारोंके सूर्य, सोम, भौमादि अधिष्ठाता है ।
२६. कुर्यादुद्यापनं चैव समाप्तौ यदुदीरितम् ।
उद्यापनं विना यत्तु तद्गतं निष्फलं भवेत् ॥
(नन्दिपुराण)
सरल भावार्थ - उपर्युक्त प्रकारसे (जिस अवधिका व्रत हो उस अवधितक) यथाविधि व्रत करके उसके समाप्त होनेपर वित्तानुसार उद्यापन करे । उद्यापन किये बिना व्रत निष्पल होता है
२७. क्रोधात् प्रमादाल्लोभाद् वा व्रतभङ्गो भवेद् यदि ।
दिनत्रयं न भुञ्जीत.................. ॥
(गरुड)
............... पुनरेव व्रती भवेत ॥ (वायुपुराण)
सरल भावार्थ - व्रतीको इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि व्रत आरम्भ करनेके बाद यदि क्रोध, मोह या आलस्यवश उसे
अधूरा छोड़ दे तो तीन दिनतक अन्नका त्याग करके फिर उस व्रतका आरम्भ करे ।
२८. असकृज्जलपानाच्च सक्रुताम्बूलभक्षणात ।
उपवासः प्रणश्येत दिवास्वापाच्च मैथुनात ॥
(विष्णु)
क्षमा सत्यं दया दानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
देवपूजाग्निहवनं संतोषः स्तेयवर्जनम् ॥
सर्वव्रतेष्वयं धर्मः सामान्यो दशधा स्थितः ।
(भविष्यपुराण)
सरल भावार्थ - व्रतके समय बार-बार जल पीने, दिनमें सोने, ताम्बूल चबाने और स्त्री-सहवास करनेसे व्रत बिगड़ जाता है ।
व्रतके दिनोंमें स्तेय (चोरी) आदिसे वर्जित रहकर क्षमा, दया, दान, शौच, इन्द्रियनिग्रह, देवपूजा, अग्निहोत्र और संतोषके काम
करने उचित और आवश्यक है ।
२९. अष्टौ तान्यव्रतघ्नानि आपो मूलं फलं पयः ।
हविर्ब्राह्मणकाम्या च गुरोर्वचनमौषधम् ॥
(पद्मपुराण)
चरुभैक्ष्यसक्तुकणयावकशाकपयोदधिघृतमूलफलादीनि
हवींष्युत्तरोत्तरं प्रशस्तानि ।
(गौतम)
सरल भावार्थ - जल, फल, मूल, दूध, हवि, ब्राह्मणकी इच्छा, ओषधि और गुरु (पूज्यजनों) के वचन-इन आठसे व्रत नहीं बिगड़ते
होमवशिष्ट खीर, भिक्षाका अन्न, सत्तू (सेके हुए जौका चूर्ण), कण (गोरैड़ या तृणपुष्प), यावक (जौ), शाक (तोरों, ककड़ी, मेथी आदि), गोदुग्ध, दही, घी, मूल, आम, अनार, नारंगी और कदलीफल आदि खानेयोग्य हविष्य है ।
३०. गन्धालङ्कारवस्त्राणि पुष्पमालानुलेपनम् । (वृद्धशातातप)
नैकवासा जपेन्मन्त्रं बहुवासकुलोऽपि वा ।
सर्वेषु तूपवासेषु पुमान् वाथ सुवासिनी ।
धारयेद् रक्तवस्त्राणि कुसुमानि सितानि च ॥
(विष्णुधर्म)
ब्राह्मणस्य सितं वस्त्रं मञ्जिष्ठं नृपतेः स्मृतम् ।
पीतं वैश्यस्य शूद्रस्य नीलं मलवदिष्यते ॥
(मनु)
वामकुक्षौ न नाभो च पृष्ठे चैव यथाक्रमम् ।
त्रिकच्छेन समायुक्तो द्विजाऽसौ मुनुरुच्यते ॥
(याज्ञवल्क्य)
आयतं पर्वणां कृत्वा गोकर्णाकृतिवत् करम् ।
एतेनैव विधानेन द्विजो ह्याचमनं चरेत् ॥
(भारद्वाज)
सरल भावार्थ - व्रतमें गन्ध, पुष्प, माला, वस्त्र और व्रतयोग्य अलङ्कारादि ग्राह्य है । व्रत-पूजा या हवनादिमें केवल एक वस्त्र (धोती आदि) पहनकर या बहुत वस्त्र धारणकर मन्त्रादिके जप करना या होमादि करना उचित नही । व्रत करने वाला पुरुष हो या सुवासिनी (स्त्री) हो, सम्पूर्ण व्रतोंमें लाल वस्त्र और सुगन्धित सफेद पुष्प धारण करे । वर्णभेद्से ब्राह्मणोंके सफेद, क्षत्रियोंके मजीठ-जैसे, वैश्योंके पीले और शूद्रोंके नीले अथवा बिना रंगके वस्त्र अनुकूल होते है और धोती त्रिकच्छ (जिसमें नीचेका पल्ला पृष्ठपर और आगेके पल्लेका ऊपरका हिस्सा नाभिके नीचे और नीचेका हिस्सा बायें पसवाड़ेमें लगाया जाता है) उत्तम मानी गयी है । ऐसी धोती बांधनेवाले ब्राह्मण मुनि होते है । इसके अतिरिक्त ध्वजप्रयुक्त, ग्रन्थियुक्त और यवनोंके समान दोनो पल्ले खुली हुई धोती वर्जित है । व्रत करनेवाले मोहवश बिना आचमन किये क्रिया करें, तो उनका व्रत वृथा होता है । नहाते-धोते, खाते-पिते, सोते, छींके लेते समय और गलियोंमें घूमकर आनेपर आचमन किया हुआ हो तो भी दुबारा आचमन करे । यदि जल न मिले तो दक्षिण कर्णका स्पर्श कर ले, आचमन लेते समय दाहिने हाथकी अङ्गुलियोंको मिलाकर सीधी करे और उनमेसे कनिष्ठा तथा अंगूठेको अलग रखकर आचमन करे अथवा-दाहिने हाथके पोरुओंको बराबर करके हाथको गौके कान-जैसा बनाकर आचमन करे । (लोक-व्यवहारमें आचमनादिके भूल जानेपर दाहिना कान छुआ करते है ।)
३१. अधोवायुसमुत्सर्गे आक्रन्दे क्रोधसम्भवे ।
मार्जारमूषकस्पर्शे प्रहासेऽनृतभाषणे ॥
निमित्तेष्वेषु सर्वेषु कर्म कुर्वन्नपः स्पृशेत् ।
(बृहस्पति)
२. उपवासे तथा श्राद्धे न खादेद् दन्तधावनम् । (स्मृत्यन्तर)
अलाभे दन्तकाष्ठानां निषिद्धायां तिथौ तथा ।
अपां द्वादशगण्डूषैर्विदध्याद् दन्तधावनम् ॥ (व्यास)
३. पर्णोदकेनाङ्गुल्या वा दन्तान् धावयेत..... ।
(स्मृत्यर्थसार)
४. गोयानमुष्ट्रयानं च कथंचिदपि नाचरेत् ।
खरयानं च सततं व्रते चाप्युपसङ्करम् ॥
(स्मृत्यन्तर)
सरल भावार्थ - अधोवायुके निकल जाने, आक्रन्द (रोने), क्रोध करने, बिल्ली और चूहेसे छू जाने, जोरसे हंसने और झूठ बोलनेपर जलस्पर्श करना आवश्यक होता है । उपवासमें और श्राद्धमेंदतौन नहीं करना चाहिये । यदि अधिक आवश्यक हो तो जलके बारह कुल्ले करे- अथवा आमके पल्लव, जल या अंगुलीसे दांतोंको साफ कर लें । व्रत करनेवालोको बैल, उँट और गदहेकी सवारी नही करनी चाहिये ।
३२. बहुकालिकसंकल्पो गृहीतश्च पुरा यदि ।
सूतके मृतके चैव व्रतं तन्नैव दुष्यति ॥
(शुद्धितत्त्व-विष्णु)
काम्योपवासे प्रक्रान्ते त्वन्तरा मृतसूतके ।
तत्र काम्यव्रत कुर्याद् दानार्चनविवर्जितम् ॥
(कूर्मपुराण)
सरल भावार्थ - बहुत दिनोंमें समाप्त होनेवाले व्रतका पहले संकल्प कर लिया हो तो उसमें जन्म और मरणका सूतक नहीं लगता । इसी प्रकार किसी कामनाके व्रतमें सूतक आ जाय, तो दान और पूजनके सिवा व्रतमें बाधा नहीं आती । कई व्रत ऐसे हैं, जिनमें दान, व्रत और पूजन तीनों होते हैं । यथा-गणेश-चतुर्थी, अनन्त-चतुर्दशी और अर्कसप्तमी आदिमें व्रतेश्वरकी पूजा, वायन आदिका दान और अभीष्टका व्रत तीनों है । ऐसे व्रतोंमें अशौच आनेपर व्रत करता रहे- दान और पूजा न करे ।
३३. प्रारब्धदीर्घतपसां नारीणां यद् रजो भवेत् ।
न तत्रापि व्रतस्य स्यादुपरोधः कदाचन ॥
(सत्यव्रत)
सरल भावार्थ - बड़े व्रतका प्रारम्भ करनेपर स्त्री रजस्वला हो जाय, तो उससे भी व्रतमें कोई रुकावट नहीं होती । अशौचके माननेंमें सपिण्ड, साकुल्य और सगोत्र-इन तीनोंका निश्चय आवश्यक होता है । तीन पीढ़ीतक सपिण्ड, दस पीढ़ीतक साकुल्य और इससे आगे सगोत्र पीढ़ी माने जाते है । इनमें सामान्यरूपसे सपिण्डमें दस दिन, साकुल्यमें तीन दिन और सगोत्रमें एक दिन अथवा स्नानमात्र सूतक रहता है । लम्बे व्रतोंमें इससे बाधा नहीं होती ।
३४. व्रते च तीर्थेऽध्ययने श्राद्धेऽपि च विशेषतः ।
परान्नभोजनाद् देवि यस्यान्नं तस्य तत्फलम् ॥
(टोडरानन्द)
भर्ता पुत्रः पुरोधाश्च भ्राता पत्नी सखापि च ।
यात्रायां धर्मकार्येषु कर्तव्याः प्रतिहस्तकाः ॥
(मदनरत्न, प्रभासखण्ड)
पुत्राद् वा कारयेदाद्याद् ब्राह्मणान् वापि कारयेत् । (वायुपुराण)
सरल भावार्थ - व्रतमें, तीर्थयात्रामें, अध्ययनकालमें तथा विशेषकर श्राद्धमें दूसरेका अन्न लेनेसे जिसका अन्न होता है, उसीको उसका पुण्य प्राप्त हो जाता है । आपत्ति अथवा असामर्थ्यवश यात्रा और व्रतादि धर्मकार्य अपनेसे न हो सके तो पति, पत्नी, ज्येष्ठ पुत्र, पुरोहित, भाई यामित्रको प्रतिहस्तक (प्रतिनिधि या एवजी) बनाकर उनसे करावे । उपर्युक्त प्रतिनिधि प्राप्त न हो तो वह काम ब्राह्मणसे हो सकता है ।
३५. संध्ययोरुभयोर्जप्ये भोजने दन्तधावने ।
पितृकार्ये च दैवे च तथा मूत्रपुरीषयोः ॥
गुरूनां संनिधौ दाने योगे चैव विशेषतः ।
एषु मौनं समातिष्ठन् स्वर्गं प्राप्नोति मानुषः ॥
(अङ्गिरा)
दानमाचमनं होमं भोजनं देवतार्चनम् ।
प्रौढपादो न कुर्वीत स्वाध्यायं पितृतर्पणम् ॥
आसनारूढपादस्तु जान्वोर्व जङ्घयोस्तथा ।
कृतावसिक्थको यश्च प्रौढपादः स उच्यते ॥
(शाट्यायन)
सरल भावार्थ - प्रातः- सायं (संध्या) और संधियोंमें, जप, भोजन और दतौनमें, मूत्र और पुरीषके त्यागमें, पितृकार्य तथा देवकार्यमें और दान, योग तथा गुरुके समीपमें मौन रहनेसे मनुष्यको स्वर्ग मिलता है- 'मौनं सर्वार्थसाधकम् ।' दान, होम, आचमन, देवार्चन, भोजन, स्वाध्याय और पितृतर्पण ये 'प्रौढपाद' (ऊकड़ू)बैठकर न करे । प्रौढपाद तीन प्रकारका होता है, एक यह कि पावोंके तलवे आसनपर रखकर दोनों घुटने मिलाके पीडियोंको जांघोसे लगाकर बैठे । दुसरा-दोनों घुटने आसनपर लगाकर एड़ियोंपर आरूढ़ हो और तीसरा यह है कि दोनों पैर सीधे फैलाकर जांघे आसनपर लगावे । ये तीनों ही निषिद्ध हैं ।
३६. कन्या शय्या गृहं चैव देयं यद् गोस्त्रियादिकम् ।
एका एकस्य दातव्या न बहुभ्यः कथंचन ॥
(कात्यायन)
सरल भावार्थ - कन्या, शय्या (सुख-शय्या), मकान, गौ और स्त्री- ये एकहीको देने चाहिये; बहुतोंको देनपर हिस्सा होनेसे पाप लगता है । व्रतमें रहकर प्राणरक्षाके अर्थसे जल पीवे । फल, मूल, दूध, जौ, यज्ञशिष्ट तथा हवि खाय; रोग-पीड़ामें वैद्यकी बतलायी हुई औषध ले ब्राह्मणकी अभिलाषा सिद्ध करे तो अति शीघ्र और गुरुके वचनसे करे । दीर्घ या अदीर्घ सभी व्रतोंकी पारणासे पूर्ति
और उद्यापनसे समाप्ति जाननी चाहिये । कदचित ये दोनों न किये जायं, तो व्रत निष्फल हो जाता है ।

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Last Updated : January 22, 2014

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