मिश्रितप्रकरणम्‌ - श्लोक ११३ ते १५०

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथाशुभस्वप्ना : । तैलाश्र्यक्तोऽथ दिग्वासा आरूढी माहिषं खरम्‌ । उष्ट्रं कृष्णं वृषं वाऽश्वं याम्यां गच्छन्न जीवति ॥११३॥

पाकस्थाने वने रक्तपुष्पाढये सतिकागृहे । विकलांगो विशेत्स्वप्ने सोऽसुभिर्विप्रयुज्यते ॥११४॥

जतुकौकुमसिह्लादिधातवो यस्य मंदिरे । पतंति तरुतस्तस्य गेहदाहश्व चौरभी : ॥११५॥

नाभेरन्यत्र गात्रेषु तृणपुष्पद्रुमोद्रम : । खरोष्ट्रकपिसर्पाद्यैर्यानं स्नेहस्य भक्षणम्‌ ॥११६॥

कलुषेणांबुना मस्या कर्द्दमैर्गोमयेन च । स्नेहेन वपुषो लेप : कर्द्दमे विनिमज्जनम्‌ ॥११७॥

पातो द्दग्दंतहस्तस्य जिह्वायाश्व त्रयं तथा । एते शोकप्रदा ; स्वप्ना द्दष्टा हांनिकरा अपि ॥११८॥

स्वप्ने संदोलनं गीतं क्रीडितं स्फोटितं तथा । हसितं भर्त्सितं स्त्रोतोवहानीरे ह्यधोगतम्‌ ॥११९॥

सूर्येंदुध्वजताराणां पात : स्वस्य चितावपि । रज्ज्वा च्छेद : शिरोभागे कांस्यवर्णस्य धारणम्‌ ॥१२०॥

प्रवेशो जननीगर्भे दुष्टमेतदरिष्टदम्‌ । करवीरमशोकं च लतापाशोन बंधनम्‌ ॥२१२॥

कृष्णांबरधरायोषालिंगनं मृत्युकारकम्‌ । आरुह्य पुष्पितान्‌ वृक्षान्‌ यो विचिंत्य निजं वपु : ॥१२२॥

भूषयत्यरुणै : पुष्पै : सोऽपि प्राणैर्वियुज्यते । धृतरक्तांबरश्लिष्टो हत्यामाप्नोति मानव : ॥१२३॥

यस्तु धूममथात्मानं व्याप्तं धूमेन चेक्षते । भस्माज्यलोहलाक्षाश्व स च लक्ष्म्या वियुज्यते ॥१२४॥

क्रोष्टुकुक्कुटमार्जारगोधाबश्रुभुजंगमा : । मक्षिकावृश्विकादंशा द्दष्टा : स्वप्ने न शोभना : ॥१२५॥

रत्नद्रव्यायुध : पानशय्याभूषाश्व योषिताम्‌ । वस्त्रादिप्रियवस्तूनामपहारोऽर्थनाशक : ॥१२६॥

विवाहोत्सवयो : शोको भ्रंशे वा नखकेशयो : । कराद्यवयवानां तु च्छेदने स्वप्ननाशनम्‌ ॥१२७॥

वपनं श्मश्रुकेशानां नेत्ररुक्‌पतनं तथा । कूपगर्तदरीध्वांतविवरेषु न शोभनम्‌ ॥१२८॥

कपोतश्येनगृध्राद्या ऋक्षकौशिकवायसा : । सृगालशशकश्वानो द्दष्टा : स्वप्ने न शोभना : ॥१२९॥

शष्कुलीकृसराश्राणागुडापूपादिभक्षणम्‌ । गोमयं चोष्यपानीयं स्वप्ने पीतं न शोभनम्‌ ॥१३०॥

रक्ते पुरीषमूत्रे वा स्वपन्मृत्युमवाप्नुयात्‌ । रक्तकृष्णानि वासांसि कृष्णानि च बिभर्त्ति य : ॥१३१॥

पितृकार्यं प्रकुर्वाणो म्रियते स न संशय : । भूतप्रेतपिशाचाद्यै : श्वपचै : सह संगत : ॥१३२॥

आह्रतो वाऽथ तैर्याम्यां स्वल्पाहैर्म्रियते तु स : । असूर्यं दिवसं रात्रिं विचंद्रां गततारकाम्‌ ॥१३३॥

वृष्टिं योऽकालजां पश्येत्स्वप्ने सोऽपि विनश्यपि । सीसपित्तलकस्तारकांस्यताम्राज्यसंचय : ॥१३४॥

शुष्कवृक्षौषंध शिल्पी द्दष्टाश्वैते न शोभना : । प्रासादच्छत्रगात्राणां शिखराणां घ्वजस्य च ॥१३५॥

पतनं शक्रचापस्य नृपराष्ट्रविनाशम्‌ । तारं कोलाहलाह्नाननिंदाक्रोशादिसंश्रवात्‌ । विंद्याद्राजभयं दंष्ट्रिश्रृंगिकीशाद्यभिद्रवान्‌ ॥१३६॥

( दुष्टस्वप्न ) स्वप्नमें तैल लगावे , नंगा हो , महिष , गधे , ऊंट , काला वृषभ , काले घोडेपर चढके दक्षिणदिशामें जावे तो मृत्यु होती है ॥११३॥

पाकस्थान रसोईमें , या लालपुष्पोंके बनमें , जापे ( जच्चा ) के घरमें विकल होके स्वप्नमें प्रवेश हो सो मृत्युको प्राप्त होता है ॥११४॥

लाख , कुंकुम , सिलारस आदि वृक्षसे घरमें पडे तो घरका दाह , चोरोंका भय होता है ॥११५॥

नाभिके विना और गात्रोंमें तृण , पुष्प , वृक्ष पैदा होजावे और खर , ऊंट , वानर , सर्प आदिकी सवारी करे , घृत तेल भक्षण करे ॥११६॥

मलिन जलसे , स्याहीसे , कादोंसें , गोमयसें , घृत तेलसे शरीरको लेप करे या कीचडमें घुसजावे ॥११७॥

दांत , नेत्र , हाथ , जिहा पडजावे तो यह स्वप्न शोक , हानि करते हैं ॥११८॥

स्वप्नमें हिंडोलेमें हींडे , गीत गावे . ख्याल करे , कूदे , हँसे , झिडके , या नदीके प्रवाहमें घुसजावे ॥११९॥

सूर्य , चन्द्रमा , ध्वजा , तारा , पडता दीखे , अपनी चितासे रज्जू टूटे , शिरमें कांसी धारण करे ॥१२०॥

माताके गर्भमें प्रवेश हो तो अरिष्ट होता है । कनेर , अशोक , बेलसे लपटा हुआ देखे ॥१२१॥

काले वस्त्र धारण करी हुई स्त्रीसे आलिंगन करे तो मृत्यु हो , फूले हुए वृक्षोंपर चढके जानता हुआ लालपुष्पोंकरके अपने शरीरको भूषित करे तो मृत्यु होती है या लाल वस्त्र धारण करे तो हत्याको प्राप्त होता है ॥१२२॥१२३॥

जो धूवां देखे या धूंवेकरके व्याप्त शरीरको देखे या भस्म , घृत . लोह , लाखको देखे तो लक्ष्मी नाश हो ॥१२४॥

श्रृगाल , कुकडा , मार्जार , छिपकली , नोलिया , सर्प , मक्षिका , वृश्चिक यह स्वप्नमें काटे तो अशुभ है ॥१२५॥

रत्न , धन , आयुध , पान , शय्या , स्त्रियोंका आभूषण , वस्त्र आदि प्रियवस्तु चोरी जावे तो धननाश करे ॥१२६॥

विवाह उत्सवमें शोक होजावे , या नख केश टूटजावे या हाथ पग आदि शरीरका अंगच्छेदन होजावे तो अशुभ है ॥१२७॥

दाढी , मूछ , केश , आदिको मूंडावे , नेत्र दूखे या फूतजावे , या कूंवां , गर्त , गुफा , अंधेरा , छिद्रमें पडजावे तो अशुभ है ॥१२८॥

कमेडी , शिकरा , गीध , रीच्छ , कौशिक , कागला , श्रृगाल , शूशिया , श्वान , यह स्वप्नमें देखे तो अशुभ है ॥१२९॥

सुहाली , लापसी , गुड , पूडे आदिका भक्षण , गोमय , गर्मपानीका अशुभ है ॥१३०॥

रक्त , विष्ठा , मूत्रमें सोवे तो मृत्यु हो , लाल कालावस्त्र धारण करे और पितृकार्य करावे तो मृत्यु हो , भूत , प्रेत , पिशाच , चांडालोंकरके सहित गमन करे तो भी मरे ॥१३१॥१३२॥

अथवा भूत आदिकरके दक्षिण दिशामें ले जाया जावे तो थोडेही दिनोंमें मरता है , दिन सूर्यरहित देखे , रात्रि चन्द्र तारारहित देखे ॥१३३॥

ऋतु विना वर्षा देखे तो भी मरता है और सीसा , पीतल , रांग , कांसी , ताम्बा , सूखे वृक्ष , औषधी , चेजारा देखे तो अशुभ हैं , महल , घर , छत्र , पर्वतोंके टोल . ध्वजाको पडी देखे ॥१३४॥१३५॥

इन्द्रका धनुष पड देखे , राजाका राज्य नाश हो , कोलाहल सुने , निंदाक्रोश आदि सुने तो देशमें भय होता है , दंष्ट्री , श्रृंगी , वानर आदि भागते देखे तो अशुभ है ॥१३६॥

अथ दु : स्वप्नदर्शने शांति : । दुष्टे त्वालोकिते स्वप्ने निवेद्य ब्राह्मणाय च ॥१३७॥

आशीर्भिस्तोषितो विप्रै : पुन : स्वप्यान्नरेश्वर : । न ब्रूयाच्च पुन : स्वप्नं संस्नायात्पुण्यवारिभि : ॥१३८॥

कार्यो मृत्युंजयो होम : शांतिं स्वस्त्ययनादिकम्‌ । सेवाऽश्वत्थगवां प्रातर्दानं स्वर्णादि शक्तित : ॥१३९॥

श्रवणं भारतादीनां स्वप्नदोषनिवृत्तये । बृहस्पतिप्रणीतं च स्वप्नाध्यायं पठेदपि ॥१४०॥

स्तुतिं च वासुदेवस्य तथा तस्य च पूजनम्‌ । गजेंद्रमोक्षश्रवणं ज्ञेयं दु : स्वप्ननाशनम्‌ ॥१४१॥

इति स्वप्नफलम्‌ ।

( दुष्टस्वप्न देखनेमें शान्ति ) इसप्रकार दुष्ट स्वप्न आवे तो ब्राह्मणको कहना चाहिये ॥१३७॥

और ब्राह्मणोंका आशीर्वाद लेके फिर सोना शुभ है । सोके उठंने के अनन्तर फिर किसीको कहना नहीं चाहिये और पवित्र जलसे स्नान करना शुभ पीपल गौ आदिकी सेवा करनी , शक्तिके अनुसार सुवर्णका दान देना ॥१३९॥

भारत आदिकी कथा सुननी , अथवा स्वप्नाध्यायको पढे तो दुष्ट स्वप्न शांति हो ॥१४०॥

विष्णुभगवान्‌की स्तुति पूजन करे और गजेंद्रमोक्षको श्रवण करे तो दुष्ट स्वप्नका दोष शांत हो ॥१४१॥

इति स्वप्नफलम्‌ ।

अथ होलिकावातपरीक्षा । पूर्वे वायौ होलिकायां प्रजाभूपालयो : सुखम्‌ । पलयनं च दुर्भिक्षं दक्षिणे जायते ध्रुवम्‌ ॥१४२॥

पश्विमे तृणंसपत्तिरुत्तरे धान्यसंभव : । यदि खे च शिखा वृष्टर्दुंर्ग राजा च संश्रयेत्‌ ॥१४३॥

नैऋत्यां चैव दुर्भिक्षमैशान्यां तु सुभिक्षकम्‌ । अग्नेर्भीतिरथाग्नेय्यां वायव्यां बाहवोऽजनला : ॥१४४॥

अथ होलिकानिर्णय : । प्रतिपद्भूत १।१४ भद्रासु याऽर्चिता होलिका दिवा । संवत्सरं तु तद्राष्ट्रं पुरं दहति सा द्रुतम्‌ ॥१४५॥

प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदातिस्यां भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे ॥१४६॥

अथ वारप्रवृत्तिकस्य विचार : । दिनमानं च रात्र्यर्द्धं बाणेंदुना १५ समन्वितम्‌ । दिनप्रवृत्तिं विज्ञेयं गर्गलल्लादिभाषितम्‌ ॥१४७॥

( होलीके वायुका फल ) होलीदीपनके समय में पूर्वकी वायु चले तो प्रजा . राजाको सुख हो और दक्षिणकी वायु हो तो भागड पडे , या दुर्भिक्ष पडे ॥१४२॥

पश्चिमकी हो तो तृण बहुत हो , उत्तरकी चले तो अन्न बहुत हो और आकाशमें होलीकी लटा जावे तो वर्षा हो और राजाको किल्लेका आसरा लेना चाहिये कारण शत्रुका भय होगा ॥१४३॥

नैऋत्यकोणकी वायु हो तो दुर्भिक्ष पडे , ईशानकी हो तो सुभिक्ष हो , अग्निकोणकी वायु हो तो अग्निका भय हो और वायुकोणकी वायु हो तो संवत्‌भरमें पवन बहुत चले ॥१४४॥

यदि होलिका प्रतिपदा चतुर्दशी , भद्राको जलाई जावे तो बरसभर राज्यको और पुरुषको दग्ध करती है ॥१४५॥

फाल्गुन सुदि पूर्णिमा प्रदोषकालव्यापिनी लेनी चाहिये उस समयमें भद्र हो तो भद्राके मुखकी घडी त्यागके प्रदोषमें ही होली पूजनी जलानी शुभ है ॥१४६॥

( वारप्रवृत्तिका विचार ) दिनमानकी संपूर्ण घडी और रात्रिमानसे आधी घडी मिलाके पंद्रह फेर मिलावे और संपूर्ण घडी जितनी हो उतनी घडियोंके अनंतर वार लगता है यह गर्गलल्लआदि आचार्यांका मत है ॥१४७॥

ग्रथालंकार : । श्रीरामकृष्णपौत्रेण कस्तूरीचंद्रसूनुना । मयाचतुर्थीलालेन कृतोऽयं सारसंग्रह : ॥१४८॥

अनेन प्रीयतां शंभुर्भवान्या सह सर्वदा । भवन्तु सुप्रसन्नाश्व दैवज्ञा गुणसूचका : ॥१४९॥

बाणबाणांकचंद्रेऽब्दे १९५५ विक्रमादित्यसंज्ञके । श्रावणे शुक्लपंचम्यां ग्रंथ : पूर्णोऽभव च्छिव : ॥१५०॥

शम्‌ ॥ इति श्रीमन्महाराजाधिराजक्षत्रियकुलार्कमरुदेशाधिपतिश्रीगंगासिंहवर्मणो बीकानेरराज्यान्तर्गतश्रीरत्नगढनगरनिवासिना श्रीवसिष्ठगोत्रोद्भवेन श्रीरामकृष्ण - अमरचंद्रपौत्रेण श्रीकस्तूरीचंद्रचतुर्भजसूनुना श्रीमहादेवभक्तमाध्यंदिनवाजसनेयिना पंडितगौडवैद्यश्रीचतुर्थीलाल ( चौथमल ) शर्मणा विरचिते मुहूर्त्तप्रकाशे अद्भुतनिबन्धे नवमं मिश्रितप्रकरणं समाप्तम्‌ ॥९॥

( ग्रंथकर्ताका वंशवर्णन ) श्रीरामक्रुष्णजीका पौत्र और श्रीकस्तूरीचंद्रजीका पुत्र श्रीचतुर्थीलाल नाम पंडित मैं हूं सो यह ज्योतिषके सारका संग्रका संग्रह किया हूं ॥१४८॥

सो इस ग्रंथकरके भवानी ( पार्वती ) सहित श्रीमहादेवजी प्रसन्न हों और गुणके जाननेवाले ज्योतिषी लोग भी प्रसन्न हों ॥१४९॥

विक्रमादित्यके संवत्‌ १९५५ श्रावणशुक्ल ५ में यह ग्रंथ आनंदपूर्वक समाप्त हुआ ॥१५०॥

इति श्रीरत्नगढनिवासिना पंडितगौडश्रीचतुथींलाल ( चौथमल ) शर्मणा

विरचितायां मुहूर्त्तप्रकाशभाषाटीकायां नवमं मिश्रितप्रकरणं समाप्तम्‌ ॥९॥

समाप्तश्वायं पूर्वार्ध : ।

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Last Updated : November 11, 2016

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