संस्कारप्रकरणम्‌ - श्लोक १ ते १२

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


तत्रादौ गर्भाधानम्‌ । ऋतौ तु प्रथमे कार्यं पुन्नक्षत्र शुभे दिने । मघामूलांत्यपक्षांतं मुक्त्वा चंद्रे बले सति ॥१॥

ऋतु : स्वाभाविक : स्त्रीणां रात्रय : षोडश स्मृता : । तासामाद्याश्वतस्रस्तु निदितैकादशा च या ॥२॥

त्रयोदशी च शेषा : स्यु : प्रशस्ता दश वाप्तरा : । युग्मासु पुत्रा जायंते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु ॥३॥

अथ वर्ज्यकाल : । उपल्पवे वैधृतिपातयाश्व विष्टयां दिवा पारिघपूर्वभागे । संध्यासु पर्वस्वपि मातृपित्रोर्मृतेऽह्वि पत्नीगमनं विवर्ज्यम्‌ ॥४॥

षष्टयष्टमीपंचदशीचतुर्थीचतुर्दशीमप्युभयत्र हित्वा । शेषा : शुभा : स्युस्तिथयो निषेके वारा : शशांकार्यसितेंदुजाश्व ॥५॥

अथ नक्षत्राणि । विष्णुप्रजेशरविमित्रसमीरपौष्णमुलोत्तरावरुणभानि निषेककार्ये । पूज्यानि पुष्यवसुशीतकराश्विचित्रादित्याश्व मध्यमफला विफला : स्युरन्ये ॥६॥

( अथ संस्कारप्रकरणं प्रारभ्यते ॥ ) प्रथम गर्गाधानका मुहूर्त्त लिखते हैं ) प्रथम ऋतुकालमें , पुरुषसंज्ञावाले शुभ नक्षत्रोंमें मघा , मूल , पक्षांतको त्यागके बलयुक्त चन्द्रमामें गर्भाधान संस्कार करना योग्य है ॥१॥

स्त्रियोंके स्वभावसे ही ऋतुकालकी १६ रात्रि हैं , उनमें आद्यकी चार ४ रात्रि और ग्यारहवीं ११ रात्रि तथा तेरहवीं १३ रात्रि अशुभ हैं और बाकीकी १० रात्रि शुभ जाननी और उनमें युग्म रात्रियोंमें स्त्रीके गर्भ रहनेसे पुत्र होता है तथा विषम रात्रियोंमें पुत्री होती है ॥२॥३॥

( स्त्रीसंगमें वर्ज्यकाल ) ग्रहण , वैधृति . व्यतिपात , भद्रादिन , परिघयोगका पूर्वार्द्ध , संध्याकाल , पर्व , मातापिताके श्राद्धका दिन स्त्री संगमें त्याग देवे ॥४॥

तथा षष्ठी ६ अष्टमी ८ पूर्णिमा १५ चौथ ४ चौदश १४ तिथियोंके विना अन्य तिथि और सोम , गुरु , शुक्र , बुध , यह वार गर्भाधानमें श्रेष्ठ हैं ॥५॥

( श्रेष्ठ , मध्यम , निषिद्ध नक्षत्र ) और श्र . रो . ह . अनु . स्वा . रे . मू . उ . ३ श . यह नक्षत्र श्रेष्ठ हैं तथा पुष्य . ध . मृ . अश्वि . चि . पुन . यह नक्षत्र गर्भाधानमें मध्यम हैं , बाकीके नक्षत्र निषिद्ध जानने ॥६॥

अथ पुंसवनं सीमंतोन्नयनं च । आर्द्रात्रयं ३ भाद्रयुग्मं २ मृग : पूषा श्रुति : कर : । मूलत्रयं ३ गुरु : सूर्यो भौमो रिक्तां ४ । ९ । १४ विना तिथिम्‌ ॥७॥

आद्ये १ द्वये २ त्रये ३ मासे लग्ने कन्या ६ झषे १२ स्थिरे २ । ५ । ८ । ११ । चापे ९ पुंसवनं कुर्यात्सीमंतं चाष्टमे तथा ॥८॥

पुंसवनं प्रथमगर्भ एव कार्यम्‌ । सकृच्च कृतसंस्कारा : सीमंतेन द्विजातय : । यं यं गर्भं प्रसूयंते स सर्व : संस्कृतो भवेत्‌ ॥९॥

अथ जातकर्म । जातकर्म शिशौ जाते पिता तत्कालमाचरे‌त्‌ । एकादशेऽह्नि वा कुर्याद्द्वादशे वा यथाविधि ॥१०॥

अथ जननसमये दुष्टकालवि चार : । तत्र तावत्तिथिगंडांतम्‌ । पूर्णा ५ । १० । १५ नंदा १ । ६ । ११ ख्ययोस्तिख्यो : संधिनाडीद्वयं तथा । गंडांतं मृत्युदं जन्मयात्रोद्वाहव्रतादिषु ॥११॥

अथ लग्नगंडांतम्‌ । कुलीर ४ सिंहयो : ५ कीट चापयो ९ र्मीन १२ मेषयो : १ । गडांतमंतरालं स्याद्धटिकार्धं मृतिप्रदम्‌ ॥१२॥

( पुंसवनसीमंतोन्नयनमु , ) आ . पु . पु . पूर्वाभा . उ . भा . मृ . रे . श्र . मू . पूर्वाषा . उत्तराषा . यह नक्षत्र तथा गुरु . आदित्य वार रिक्ता ४ । ९ । १४ के विना तिथि और पहला १ दूसरा २ तीसरा ३ मास तथा कन्या ६ , मीन १२ , स्थिर २ । ५ । ८ । ११ लग्न पुंसवन करनेमें श्रेष्ठ हैं और सीमंतोन्नयन आठवें ८ मासमें श्रेष्ठ हैं ॥७॥८॥

और सीमंतोन्नयन संस्कार प्रथम गर्भमें ही करना चाहिये , कारण , प्रथम गर्भमें करनेसे फिर जो जो गर्भ रहेगा , उन सर्व गर्भोंका संस्कार हो गया है ॥९॥

( जातकर्ममु . ) जातकर्म बालकके जन्मनेके अनंतर पिताको करना योग्य है अथवा जन्मसे ग्यारहवें ११ या बारहवें १२ दिन यथाविधि करना चाहिये ॥१०॥

( जन्मकालमें दुष्ट काल हो सो लिखते हैं ) ( तिथिगडांत ) पूर्णा ५ । १० । १५ और नंदा १ । ६ । ११ तिथिके अन्तकी २ घडी गडांतकी हैं सो जन्ममें और यात्रा , विवाह , यज्ञोपवीतमें मुत्युकारक हैं ॥११॥

( लग्नगण्डान्त ) कर्क ४ सिंह ५ लग्नकी वृश्चिक ८ धन ९ की मीन १२ मेषके १ अन्तकी आधी घडी गंडांतकी हैं ॥१२॥

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Last Updated : November 11, 2016

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