त्याज्यप्रकरणम्‌ - श्लोक ४४ ते ६३

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथावश्यककृत्ये विशेष : । यमघण्टे त्यजेदष्टौ मृत्यौ द्वादशनाडिका : । अन्येषां पापयोगानां मध्याह्नात्परत : शुभम्‌ ॥४४॥

मृत्युक्रकचदग्धादीनिंदौ शस्ते शुभाञ्जगु : । केचिद्यामोत्तरं चान्ये यात्रायामेव निंदितान्‌ ॥४५॥

बारर्क्षतिथियोगेषु यात्रामेव विवर्जयेत्‌ । विवाहा दीनि कुर्वीत गर्गादीनामिदं वच : ॥४६॥

अथ देशविशेषेण विरुद्धयोगपरिहार : । विरुद्धयोगास्तिथिवारजाता नक्षत्रवारप्रभवाश्च ये च । हूणेषु वंगेषु खसेषु वज्या : शेषेषु देशेषु न ते निषिद्धा : ॥४७॥

कुयोग : सिद्धियोगश्च यदि स्यातामुभावपि । सुयोगो हंति दुर्योग कार्यसिद्धयै शुभावह : ॥४८॥

( आवश्यक कार्यमें विशेषता ) यमघंटकी ८ घडी और मृत्युयोगकी १२ घडी ही अति जरूरत होवे तो त्याग देना और संपूर्णही पापयोग मध्याह्नके अनंतर शुभ जानना चाहिये ॥४४॥

बहुतसे आचायोंका ऐसा भी मत है कि मृत्यु , क्रकच , दग्ध आदि दुष्ट योग चंद्रमा बली होनेसे शुभ हैं । केचित्‌ आचार्य प्रहर १ दिन चढनेके अनंतर शुभ कहते हैं परन्तु मृत्यु आदि अशुभयोग केवल यात्रामें ही वर्जित हैं ॥४५॥

कारण कि वार , नक्षर , तिथिसे उत्पन्न होनेवाले योगोंमें यात्रा ही निषेध है और विवाहादि शुभकर्म्म करनेमें दोष नहीं है ऐसा गार्गादि मुनियोंका वाक्य है ॥४६॥

( देशभेद करके विरुद्ध योगोंका परिहार ) तिथि , वार , नक्षत्रोंसे उत्पन्न होनेवाले मृत्युयोगादि डुष्टयोग हूण वंग ( बंगाला ) खस देशमें वर्जनीय हैं और अन्यदेशोंमें निषिद्ध नहीं हैं ॥४७॥

और के दिनमें यदि कुयोग तथा सिद्धियोग दोनों होवें तो श्रेष्ठयोग दुष्टयोगको दूर करता है और कार्यकी सिद्धि करता है ॥४८॥

अथ पापसौम्यग्रहा : । सूर्यभौमशनिराहुकेतव : पापसंज्ञखचरा : क्षयी विधु : । पूर्णचन्द्रगुरुशुक्रसोमजा : सर्वकर्मसु हि सौम्यखेचरा : ॥४९॥

अथ लग्नस्थचन्द्रविचार : । पापेंदू सग्नगौ त्याज्यौ सर्वेण सर्वकर्मसु । अक्षीणं कर्कि ४ गो २ जस्थ १ केऽप्याहुर्लग्नगं शुभम्‌ ॥५०॥

चन्द्रान्निधनगा : पापा लग्नाद्वा निधनीपगा : । कर्तुश्च फलनाश : स्याद्भग्नभांडे पयो यथा ॥५१॥

द्वंद्वाष्टमगान्‌ पापान्‌ वर्जयेन्नैधनं विलग्नं च । चंद्रं च निधनसंस्थं सर्वारंभेषु कार्याणाम्‌ ॥५२॥

शुभश्चन्द्रोऽप्यसत्पापात्सप्तम : पापयुक्तथा । पापमध्यगत : क्षीणो नीचग : शत्रुवर्गंग : ॥५३॥

अशुभाऽपि शुभश्चन्द्रो गुरुणाऽऽलोकितो युत : । स्वर्क्षोच्चस्थ : शुभांशे वा स्वाधिमित्रांशक तथा ॥५४॥

( पाप सौम्यग्रह विचार ) सूर्य , भौम , शनि , राहु , केतु , क्षीण चन्द्रमा यह पापी ग्रह हैं और पूर्ण चन्द्रमा , गुरु , शुक्र , बुध , यह संपूर्ण कार्योमें शुभके देनेवाले शुभग्रह हैं ॥४९॥

( लग्नमें चंद्रमाका विचार ) पापग्रह और चन्द्रमा लग्नमें संपूर्ण कायोंमें त्याज्य हैं , कई काचार्य पूर्ण चन्द्रमाको और कर्क ४ वृष २ मेध १ स्थित चन्द्रमाको लग्नमें शुभ कहते हैं ॥५०॥

और चन्द्रमासे या लग्नसे आठवे पापग्रह कर्ताके कार्यनाशक हैं जैसे फूटे हुए भांडे ( पात्र ) मेंसे जल निकल जावे ॥५१॥

और चन्द्रमासे आठवें पापग्रह : तथा लग्न और लग्नसे आठवें चन्द्रमाको संपूर्ण कार्योंमें त्याग देना चाहिये ॥५२॥

और यदि चन्द्रमा शुभ ही है परंतु पापग्रहसे सातवें हो या पापग्रह सहित हो तथा पापग्रहोंके मध्यगत हो अथवा क्षीण या नीचराशिका हो या शत्रुकी राशिमें हो तो अशुभ है ॥५३॥

और चंद्रमा अशुभ भी है परंतु बृहस्पति देखता हो या उच्चराशिपर हो या शुभग्रहके या अपने मित्रके नवांशकमें हो तो शुभ होता है ॥५४॥

अपि सौम्यग्रहैर्युक्तं गुणै : सर्वै : समन्वितम्‌ । व्यया १२ ष्ट ८ रिपुगे ६ चन्द्रे लग्नदोष : स संज्ञित : ॥५५॥

तल्लग्नं वर्जयेद्यत्नाज्जीवशुक्रसमान्वेतम्‌ । उच्चगे नीचगे वाऽपि मित्रगे शत्रुराशिगे ॥५६॥

अपि सवगुणीपेतं दम्पत्योर्निधनप्रदम्‌ । शशांके पापसंयुक्ते दोषसंग्रहकारक : ॥५७॥

अथ सर्वकार्ये लग्नबलम्‌ । सर्वेषु शुभकार्येषु नेष्टा : खेटा व्ययाष्टगा : । लग्ने पापरिपौ सौम्या : पापा केन्द्रत्रिकोणगा : ॥५८॥

सौम्या : केंद्रत्रिकोणस्था : पापास्तु त्रिषडायगा : ते सर्वे लाभगा : खेटा : श्रेष्ठा : स्यु : शुभकर्मणि ॥५९॥

भाव : स्वपतिना सौम्यर्द्दष्टो युक्तो बलाधिक : । पूर्णं फलं निंज धत्ते व्यस्तं पापैर्युतेक्षित : ॥६०॥

यदि लग्न शुभग्रहोंकरके तथा संपूर्ण गुणोंकरके युक्त भी है परंतु चंद्रमा १२।८।६ हा तो अशुभ ही जानना ॥५५॥

और उस लग्नमें यदि गुरु , शुक्र भी हैं तथा चन्द्रमा उच्चराशि ४ या नीचराशि ८ अथवा मित्रके या शत्रुके घरमें है और संपूर्ण गुणोंकरके सहित लग्न है परंतु पापग्रहयुक्त चन्द्रमा हो तो दोषकारक ही होता है और स्त्री पुरुषकी मृत्यु करता है ॥५६॥५७॥

( संपूर्ण कार्ययोग्य लग्नबलविचार ) संपूर्णकायोंमें पापग्रह १२ । ८ । १ इन जगहमें तथा ६ में शुभग्रह और पापग्रह केंद्र १ । ४ । ७ । १० त्रिकोण ९ । ५ में अशुभ होते हैं ॥५८॥

और सौम्यग्रह केंद्र १ । ४ । ७ । १० त्रिकोण ९ । ५ में और पापग्रह ३ । ६ । ११ इन स्थानोंमें तथा संपूर्ण ग्रह ग्यारवें ११ श्रेष्ठ होते हैं ॥५९॥

और जो स्थान अपने स्वामीकरके या शुभग्रहोंकरके देखा हुआ हो और बलयुक्त हो परंतु उससे सातवें ७ कोई ग्रह होवे नहीं तथा पापग्रहों करके देखा हुआ नहीं हो तो पूर्णफल देता है ॥६०॥

अथावश्यककृत्ये दुष्टतिथिवारर्क्षचंद्रतारादीनां दानम्‌ ॥ तंहुलाश्च तिथौ दुष्टेकरे रत्नं सकांचनम्‌ ॥ गामृक्षे कनकं योगे करणे धान्यमेव च ॥६१॥

शंखं रोप्ययुतं चंद्रे तारायां सैंधवं तथा । नाडयां हेमं नरी दद्यात्कार्येऽत्यावश्यके सति ॥६२॥

अथ दुष्टचंद्रेविशेषदानम्‌ । श्वेतं वास : सिता धेंनु : शखो वा क्षीरपूरित ; । देयो वा राजतश्चन्द्रश्चन्द्रदोषोपशांतये ॥६३॥

इति श्रीरत्नगढनगर निवासिना पंडितगौड - श्रीचतुर्थीलालशर्मणा

विरचिते मुहूर्तप्रकाशेऽद्‌भुतनिबन्धे द्वितीयं त्याज्यप्रकरणम्‌ ॥२॥

( अति जरूरतमें दुष्टतिथि वार नक्षत्र चंद्र ताराका दान ) यदि तिथि दुष्ट हो तो तंडुलका दान करे और वार दुष्ट हो तो सुवर्णसहित रत्न देवे , राशि अशुभ हो तो गोदान ओर योग दुष्ट हो तो सुवर्णदान तथा करण अशुभ हो तो धान्य्का दान करना चाहिये ॥६१॥

और चंद्रमा अशुभ हो तो शंख चांदीसहित तथा तारा दुष्ट हो तो सैंधव लवण और नाडी अशुभ हो तो सुवर्णदान आवश्यक कार्यमें करे ॥६२॥

( दुष्टचन्द्रमाका विशेष दान ) श्वेतवस्त्र , सफेद धेनु , दुग्धपूरित शंख और चांदीका चन्द्रमा चन्द्रशांतिके अर्थ देना चाहिये ॥६३॥

इति मुहूर्त्तप्रकाशे त्याज्यप्रकरणं द्वितीयम्‌ ॥२॥

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Last Updated : November 11, 2016

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