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श्रीकृष्ण माधुरी - पद १३१ से १३५

`श्रीकृष्ण माधुरी` पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


राग रामकली
ऐसे सुने नंदकुमार।
नख निरखि ससि कोटि वारत चरन कमल अपार ॥१॥
जानु जंघ निहारि, करभा करनि डारत वारि।
काछनी पै प्रान वारत, देखि सोभा भारि ॥२॥
कटि निरखी तनु सिंह वारत, किंकिनी जु मराल।
नाभि पै हृदै मुक्ता माल निरखत वारि अवलि बलाक।
करज कर पै कमल वारत, चलति जहँ जहँ साक ॥४॥
भुजनि पै बर नाग वारत, गए भगि पताल।
ग्रीव की उपमा नही कहुँ, लसति परम रसाल ॥५॥
चिबुक, पै चित वारि डारत, अधर अंबुज लाल।
बँधुक, बिद्रुम, बिंब वारत, चारु लोचन भाँति ॥७॥
कंज, खंजन, मीन, मृग सावकहु डारत वारि।
भ्रकुटि पै सुर चाप वारत, तरनि कुंडल हारि ॥८॥
अलक पै वारति अँध्यारी, तिलक भाल सुदेस।
सूर प्रभु सिर मुकुट धारैं, धरैं नटवर भेष ॥९॥

१३२.
राग सारंग
ऐसी बिधि नंदलाल, कहत सुने माई।
देखै जौ नैन रोम, रोम प्रति सुहाई ॥१॥
बिधना द्वै नैन रचे, अंग ठानि ठान्यौ।
लोचन नहिं बहुत दए, जानि कैं भुलान्यौ ॥२॥
चतुरता प्रबीनता बिधाता का जानौ।
अब ऐसे लगत हमैं वातैं न अयानौ ॥३॥
त्रिभुवन पति तरुन कान्ह, नटवर बपु काछ।
हमकौं द्वे नैन दिए, तेऊ नहिं आछै ॥४॥
ऐसो बिधि कौ बिबेक, कहौ कहा वाकौं।
सूर कबहुँ पाऊँ जौं अपने कर ताकौं ॥५॥

१३३.
राग नट
मुख पै चंद डारौं बारि।
कुटिल कच पै भौंर वारौं, भौंह पै धनु वारि ॥१॥
भाल केसर तिलक छबि पै मदन सर सत वारि।
मनु चली बहि सुधा धारा, निरखि मन द्यौं वारि ॥२॥
नैन सरसुति जमुन गंगा उपमा डारौं वारि।
मीन, खंजन, मृगज वारौं, कमल के कुल वारि ॥३॥
निरखि कुंडल तरनि वारौं, कूप स्त्रवननि वारि।
झलक ललित कपोल छबि पै मुकुर सत सत वारि ॥४॥
नासिका पै कीर वारौं, अधर बिद्रुम वारि।
दसन पै कन ब्रज वारौं, बीज दाडिम वारि ॥५॥
चिबुक पै चित-बित्त वारौं, प्रान डारौं वारि।
सूर हरि की अंग सोभा, को सकै निरवारि ॥६॥

१३४.
राग सोरठ
स्याम उर सुधा दह मानौ।
मलै चंदन लेप कीन्हे, बरन यह जानौ ॥१॥
मलै तनु मिलि लसति सोभा, महा जल गंभीर।
निरखि लोचन भ्रमत पुनि पुनि, धरत नहिं मन धीर ॥२॥
उर जु भँवरी भँवर मानौ नीलमनि की काँति।
भृगु चरन हिय चिह्न ए, सब जीव जल बहु भाँति ॥३॥
स्याम बाहु बिसाल केसर खौर विविध बनाइ।
सहज निकसे मगर मानौ कूल खेलत आइ ॥४॥
सुभग रोमावली की छबि, चली दह तै धार।
सूर प्रभु की निरखैं सोभा जुबति बारंबार ॥५॥

१३५.
राग सारंग
सघन कल्पतरु तर मनमोहन।
दच्छिन चरन चरन पे दीन्हे,
तनु त्रिभंग कीन्हे मृदु जोहन ॥१॥
मनिमै जटित मनोहर कुंडल,
सिखी चंद्रिका सीस रही फबि।
मृगमद तिलक, अलक घुँघरारी,
उर बनमाला कहा जु कहौं छबि ॥२॥
तन घन स्याम पीत पट सोभित,
हृदै पदिक की पाँति दिपति दुति।
तन बन धातु बिचित्र बिराजति,
बंसी अधरनि धरैं ललित गति ॥३॥
करज मुद्रिका, कर कंकन छबि,
कटि किंकिनि, पग नूपुर भ्राजत।
नख सिख कांति बिलोकिं सखी री,
ससि औ भानु मगन तन लाजत ॥४॥
नख सिख रुप अनूप बिलोकत,
नटवर भेष धरैं जु ललित अति।
रुप रासि जसुमति कौ ढोटा
बरनि सकै नहिं सूर अलप मति ॥५॥

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Last Updated : September 06, 2011

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